Papaya Cultivation : पपीते की वैज्ञानिक खेती ने बनाया आदिवासी किसानों का जीवन बेहतर, रूपवंती दीदी ने सीखा और बदला समीकरण
पपीते की वैज्ञानिक खेती के प्रौद्योगिकी प्रशिक्षण में लगभग 1,300 आदिवासी किसानों को प्रशिक्षित किया गया।
पपीते की वैज्ञानिक खेती के गुर सीखकर झारखण्ड की रूपवंती दीदी ने 200 वर्ग मीटर के क्षेत्र में लगाए पपीते के 45 पौधे जिससे तीन महीने में उनकी कमाई 15,950 हुई
पपीते की खेती झारखण्ड राज्य के हर घर में बागबानी का महत्वपूर्ण हिस्सा है। झारखण्ड निवासी अपने घर में पपीते का पौधा सालों से उगा रहें हैं और उसका सेवन कर रहे हैं। इसके बावजूद राज्य के आदिवासी किसान पपीते की वैज्ञानिक खेती के बारे में नहीं जानते थे।
पपीते की वैज्ञानिक खेती का प्रौद्योगिकी प्रशिक्षण
इसी दूरी को कम करने के मक़सद से 2018-19 के दौरान झारखंड के गुमला, रांची और लोहरदगा जिलों में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का पूर्वी अनुसंधान परिसर की कृषि प्रणाली के पहाड़ी एवं पठारी अनुसंधान केंद्र ने पपीते की वैज्ञानिक खेती पर प्रौद्योगिकी प्रदर्शन किया। ये प्रदर्शन ICAR की जनजातीय उप-योजना के तहत किया गया था। कृषि आजीविका के क्षेत्र में काम करने वाले एक गैर सरकारी संगठन ‘प्रदान’ (प्रोफेशनल असिस्टेंस फॉर डेवलपमेंट एक्शन) ने इस परियोजाना को बढ़ावा देने और आदिवासी किसानों को इकट्ठा करने के लिए हर संभव मदद की। पपीते के रोपण से पहले आदिवासी किसानों को करीब 8 व्यापक क्षेत्र में प्रशिक्षण दिया गया। अपने एक्सपोज़र विजिट के दौरान किसान पपीते की वैज्ञानिक खेती के साइट पर भी गए। इस प्रशिक्षण में लगभग 1,300 आदिवासी किसानों को प्रशिक्षित किया गया।

ये प्रौद्योगिकी प्रदर्शन करीब 600 आदिवासी किसानों के खेतों में किया गया, जिसमें 30,000 पौधे लगाए गए। इन पौधों में तीन प्रकार के पपीते की किस्म थी – रेड लेडी, NSC 902 और रांची लोकल। किसान अपने बगीचे में ज्यादातर ‘रांची लोकल’ किस्म के पौधे ही लगा रहे थे। इसका मुख्य कारण है इस किस्म का दूसरी किस्मों के मुकाबले कीट और रोगों के प्रति कम संवेदनशील होना। लेकिन इस किस्म से किसानों को नुकसान या फिर कहें तो कम मुनाफा होता था। सिर्फ 50 से 60 प्रतिशत पौधे ही फल दे पाते थे। इसलिए किसानों ने हर गड्ढे में तीन पौधे रोपें। नर पौधों को फूल आने के बाद हटाया। ये कोशिश सफल रही। इस अभ्यास के बाद 80 से 90 प्रतिशत पौधों में फल आए। आख़िरकार ‘रांची लोकल’ किस्म की पारंपरिक रोपण विधि की तुलना में इस विकसित तकनीक की मदद से उत्पादन में 30 से 40 प्रतिशत वृद्धि हुई।
रूपवंती दीदी की सफल कहानी
लोहरदगा जिले के दुबांग गांव की रूपवंती दीदी इस प्रौद्योगिकी प्रदर्शन के सफल होने का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। उन्होने लगभग 200 वर्ग मीटर के क्षेत्र में नई तकनीक के अनुसार ‘रांची लोकल’ किस्म के 45 पपीते के पौधे लगाए। इनमें से रूपवंती दीदी के 38 पौधों में फल आए। 5 से 7 महीने के बाद उन्होंने कच्चा पपीता बेचना शुरू किया। दीदी ने अपनी उपज का लगभग 65% कच्चा पपीता, सब्जी के रूप में बेचा, जिससे उन्हें 8,550 रुपये की आमदनी हुई। बाकी उपज को 10 से 13 महीने बाद उन्होंने पके फल के रूप में बेचा जिससे उन्हें 7,400 रुपये की आमदनी हुई। इस हिसाब से ‘रांची लोकल’ पपीते की खेती से रूपवंती दीदी की कुल कमाई 15,950 रुपये हुई।
कीटों के फैलाव को रोकने की दी गयी जानकारी
प्रशिक्षण के दौरान किसानों को सूक्ष्म पोषक तत्वों के इस्तेमाल, विशेष रूप से बोरॉन (0.3%) के उपयोग की अहमियत बताई गई। बोरॉन के मात्र 4 स्प्रे ने पौधे के फल और फूलों का गिरना 22 से 35 प्रतिशत तक कम कर दिया। इससे उपज में 15 से 20 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हुई। पपीता रिंग स्पॉट वायरस (PRSV) के फैलाव को कम करने के लिए भी कोशिश की गईं। इसमें रोग मुक्त बीजों की बुआई की गई। पपीते के खेतों के पास वायरस को न्योता देने वाले कद्दू वर्गीय (कुकुरबिट्स) और सोलेनेशियस जैसे पौधों की खेती पर रोक लगाई गई। एक-एक महीने के अंतराल पर खरपतवार उखाड़े गए और नीम के तेल का छिड़काव किया गया। प्रणालीगत कीटनाशकों का इस्तेमाल भी किया गया। इस अभ्यास ने पपीता रिंग स्पॉट वायरस की समस्या को 50 से 60 प्रतिशत तक कम कर दिया।
प्रौद्योगिकी का असर
इस पहल से किसानों को अच्छा मुनाफ़ा हुआ और ये अभ्यास इनके लिए वरदान साबित हुआ। उपजाऊ क्षेत्र और प्रबंधित अभ्यासों के आधार पर किसानों की आय 1,200 रुपये से बढ़कर 1,75,000 रुपये हो गई। इस पहल ने आसपास के गांवों के अन्य किसानों को भी पपीते की खेती के लिए प्रेरित किया।

रोपण सामग्री की मांग और आदिवासी किसानों के बीच उद्यमिता (entrepreneurship) विकास के अवसर को देखते हुए, क्षेत्र में पपीते की नर्सरी को बढ़ावा देने का निर्णय लिया गया। इसमें लोगो की भागीदारी को मुख्य आधार बनाया गया। गुमला और लोहरदगा जिलों के प्रगतिशील किसानों को “बेहतर पपीता नर्सरी स्थापना” का प्रशिक्षण दिया गया। इस कार्यक्रम में दोनों जिलों के करीब 16 किसानों को शामिल किया गया। प्रशिक्षण से जुड़े किसानों को फलों पर आईसीएआर-एआईसीआरपी (All India Coordinated Research Project, AICRP) की जनजातीय उप योजना के तहत आवश्यक इनपुट दिए गए थे, जैसे- पॉली बैग और पपीते के बीज आदि।
वर्ष 2020, के अप्रैल और मई महीने में प्रशिक्षित पपीता नर्सरी उत्पादक द्वारा 28,000 से ज़्यादा पपीते के बीजों का उत्पादन हुआ जिसे गुमला और लोहरदगा जिले के 1,000 किसानों को बेचा गया। एक पौधे को 10 रुपये के औसत दर पर बेचने से उद्यमिता को तीन महीने में 12,000 रुपये का औसत लाभ हुआ।
पपीते की खेती को आय का सुदृढ़ श्रोत बनाने का लक्ष्य
किसानों को नर्सरी से भी आर्थिक लाभ हुआ। कोविड-19 के कारण लगाया गया लॉकडाउन किसानों के लिए वरदान साबित हुआ। इसके अलावा, कार्यक्रम के तहत पपीता उत्पादकों को मिले लाभ ने इलाके के दूसरे आदिवासी किसानों की भी आँखें खोल दीं। झारखंड सरकार ने भी पिछले 2 वर्षों में अलग-अलग राज्यों और केंद्र प्रायोजित योजनाओं के तहत आदिवासी किसानों के बीच पपीते की खेती को बढ़ावा देना शुरू कर दिया है। आशा की जाती है कि वैज्ञानिक संस्थानों के सहयोग से पपीते की वैज्ञानिक खेती आने वाले वर्षों में जिलों के प्रवासी मजदूरों की आमदनी का प्रभावी श्रोत बनकर उभरे।
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