परम्परागत खेती से हटकर कमाई का नया ज़रिया ढूँढ़ रहे किसानों के लिए रसभरी एक बढ़िया विकल्प बन सकता है। इसके लिए हर तरह की ज़मीन उपयुक्त है। लेकिन उपजाऊ बलुई दोमट मिट्टी में रसभरी की शानदार पैदावार होती है। वैसे तो रसभरी एक खरपतवार किस्म का पौधा है, सामान्य फसल के बीच इसका उगना किसानों के लिए सिरदर्द बनकर मुश्किलें पैदा करता है। लेकिन यदि रसभरी की बाक़ायदा खेती की जाए तो ये बाज़ार में अन्य फलों की तुलना में अच्छा भाव पाते हैं।
सह-फसली खेती के लिए रसभरी एक उम्दा विकल्प है। बशर्ते, बाक़ी फसलें रसभरी के पकने से पहले काटी जा सकें। इसे सन्तरे के बाग़ में भी उगा सकते हैं। पत्तागोभी, फूलगोभी, सौंफ, बैंगन, टमाटर, मिर्च तथा धनिया जैसी फसलों के साथ रसभरी की खेती की जा सकती है, क्योंकि ये रसभरी से पहले कट जाती हैं। रसभरी वैसे तो मौसमी फल है, लेकिन नयी तकनीक से विकसित इसकी कई किस्में बारहमासी भी हैं।
जैसा नाम वैसा काम
अपने नाम के अनुरूप रसभरी न सिर्फ़ एक रसदार फल है, बल्कि औधषीय और पौष्टिक गुणों की वजह से भी मौसमी फलों में इसका ख़ास स्थान है। इसका रस खूब खट्टा होता है। इसे मकोय, चिरपोटी, पटपोटनी और केप गुसबेरी भी कहते हैं। इसका वानस्पतिक नाम Physalis peruviana है। इसका फल पत्तियों से बने अपने एक ख़ास खोल (आवरण) में विकसित होता है।
ये स्ट्राबेरी, ब्लैक बेरी या ब्लू बेरी जैसा बीजयुक्त फल है। भारत में मिलने वाली रसभरी का रंग हल्का नारंगी या पीला होता है, जबकि दक्षिण अमरीका और यूरोप में लाल, नीला, काला, पीला, नारंगी, सुनहरा और जामुनी रंग की भी रसभरी होती है। भारत में रसभरी की देसी किस्मों में गर्मियों में थोड़े दिनों के लिए ही फसल आती है, लेकिन इसकी सदाबहार किस्म में सर्दियों में ज़्यादा फल आते हैं। इस किस्म में काँटे नहीं होते, इसलिए इन्हें तोड़ना आसान होता है।
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बेहद गुणकारी है रसभरी
रसभरी में प्रोटीन, विटामिन ‘सी’ और ‘ए’ तथा कैटोरिन नामक एंटीऑक्सीडेंट भरपूर मात्रा में होते हैं। इसमें कैल्शियम, फास्फोरस आयरन, मैग्नीशियम और फोलिक एसिड भी पाया जाता है। इससे रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। ये चेहरे की झुर्रियों और दाग़-धब्बों की रोकथाम के अलावा पाचन, पित्त, पीलिया, लीवर, ह्रदय, ब्लड प्रेशर, डायबिटीज़ और नेत्र रोगों में बेहद उपयोगी है। अनियमित मासिक धर्म से पीड़ित स्त्रियों को रसभरी की पत्तियों का काढ़ा फ़ायदा पहुँचाता है।
रसभरी की पत्तियों के काढ़ा से भूख भी बढ़ती है और बबासीर तथा गठिया में लाभ होता है। इसकी पत्तियों का लेप सफ़ेद दाग और गठिया के मरीज़ों के लिए लाभकारी है तो फलों को सूखाकर बनाये गये चूर्ण से खाँसी, हिचकी और साँस सम्बन्धी रोगों में लाभ होता है। ये मधुमेह और लीवर की सूजन घटाने में भी बेहद उपयोगी माना गया है। रसभरी में पॉलीफिनॉल केरिटिनॉयड्स पाया जाता है जो कैंसर से लड़ने में मददगार है।
रसभरी में फाईटोकैमिक्ले भी मिलता है जो दिल की सेहत के लिए उपयोगी है तो कॉलेस्ट्रॉल और हाईब्लड प्रेशर को भी नियंत्रित रखता है। कच्ची और जंगली रसभरी नहीं खानी चाहिए क्योंकि ये जहरीली हो सकती है। गर्भवती और स्तनपान करा रही महिलाओं तथा बेरीज से एलर्जी वाले लोगों को डॉक्टर से सलाह से ही रसभरी का सेवन करना चाहिए।
रसभरी का व्यावसायिक लाभ
रसभरी का पेड़ क़रीब दो फ़ीट ऊँचा और झाड़ीनुमा होता है। व्यावसायिक खेती में प्रति एकड़ 25-30 क्विंटल रसभरी की पैदावार मिलती है। सामान्य तापमान पर 3-4 दिनों ये खराब नहीं होता। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग जैसे ड्राई और फ़्रोजन फ़्रूट्स तथा सॉस, प्यूरी, जेम, जूस, हर्बल चाय बनाने वालों के बीच रसभरी की माँग हमेशा रहती है। इसीलिए रसभरी का दाम भी अच्छा मिलता है। रसभरी से छोटे स्तर पर भी जैम और सॉस बनाकर अच्छी कमाई हो सकती है।
कैसे करें रसभरी की खेती?
रसभरी के लिए 15 से 25 डिग्री सैल्सियस का तापमान अपेक्षित होता है। इसमें नारंगी रंग पाने तक फल ढंग से विकसित होते हैं। रसभरी की पैदावार, इसके स्वाद, रंग, आकार और पौष्टिकता पर अनुकूल तापमान का असर पड़ता है। रसभरी के बीज जून-जुलाई में नर्सरी में बोये जाते हैं। प्रति हेक्टेयर के लिए 200-250 ग्राम बीज पर्याप्त हैं। बीजों की घनी बुवाई नहीं करें। बुआई के बाद सड़े गोबर की खाद में बालू मिलाकर बीजों को ढक दें और हल्की सिंचाई करें।
अंकुरित होने तक बीजों की क्यारियों को घास-फूँस से ढककर धूप से बचाएँ। सर्दियों में नर्सरी से पौधों को निकालें और खेतों में रोपाई करें। रोपाई के लिए उपयुक्त मात्रा में खाद डालकर गहरी जुताई करके खेत को तैयार करते हैं। फिर एक मीटर की दूरी पर 20-25 सेंटीमीटर ऊँची मेड़ वाली क्यारियाँ बनाकर मेड़ों में एक-एक मीटर की दूरी पर रसभरी के पौधे रोपने चाहिए। रसभरी को हल्की सिंचाई की ही ज़रूरत होती है, इसीलिए ड्रिप या स्प्रिंकिलर वाली सिंचाई करें और फसल को जल भराव से बचाएँ।
उर्वरक और कीटनाशक का प्रयोग कृषि या बाग़वानी विशेषज्ञ की सलाह लेकर ही करें। रसभरी का पौधा जल्दी बढ़ता है। इसकी जड़ें अपने आप अंकुरित होकर नया पौधा भी बना लेती हैं। इसीलिए गुराड़ी-निराई और कटाई-छँटाई का ख़्याल रखना चाहिए। फसल के पकने पर रसभरी के फल का खोल (आवरण) पीला पड़ने लगता है। पके फल को ही तोड़ना चाहिए क्योंकि कच्चा फल कुछ जहरीला होता है।
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रसभरी की पैकिंग
पेड़ से रसभरी के फल को खोल और डंठल समेत सावधानीपूर्वक तोड़ना चाहिए। फिर इसकी पैकिंग ऐसे करें कि इसमें हवा का आवागमन होता रहे। इसके लिए बाँस की टोकरी या प्लास्टिक का कैरेट इस्तेमाल करना चाहिए। पैकिंग सही हो तो रसभरी 72 घंटे ताज़ा बनी रहती है। इसीलिए इन्हें दूर की मंडी तक भेजकर बेहतर दाम पा सकते हैं। मंडी में स्वस्थ, बेदाग़ और सुन्दर फलों का बढ़िया दाम मिलता है।
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