पशु मेला: पशुपालकों की संख्या बढ़ने के बावजूद क्यों घट रही है पशु मेलों में दिलचस्पी?

बिहार के सोनपुर से लेकर राजस्थान के नागौर पशु मेला तक पशुधन की खरीद-बिक्री में कमी आई है। हफ़्तों, महीनों तक चलने वाले बड़े-बड़े पशु मेले अब सीमित होते जा रहे हैं। आख़िर इसका कारण क्या है? इस आलेख में इसी सवाल के जवाब की करते हैं तलाश।  

pashu mela पशु मेला

हरियाणा के भिवानी में 25 से 27 फरवरी के बीच पशु मेला लगाया गया, जिसमें पशुपालन विभाग ने उन्नत नस्ल के पशुओं को लाने का निर्धारित दरों पर खर्च वहन किया। इसके साथ ही पशुपालकों के लिए नि:शुल्क बसों की व्यवस्था की। सरकार की ओर से पूरी कोशिश की गई कि गाय, भैंस, बकरी, ऊंट, घोड़े, सुअर की अच्छी नस्लों को पशु मेला में लाया जा सके।पशुपालन को लेकर लोगों में जागरुकता भी लाई जा सके और खरीदारों-विक्रेताओं को एक अच्छा बाज़ार भी मिल सके। फरवरी में ही राजस्थान के नागौर में मशहूर श्री रामदेव पशु मेला का आयोजन किया गया। कोरोना के कारण दो साल के बाद यहां मेले में रौनक दिखाई दी, लेकिन पशुपालकों के मुताबिक खरीद-बिक्री में वो तेज़ी नहीं नज़र आई, जो पहले कभी हुआ करती थी।

एशिया के सबसे बड़े पशु मेले ‘सोनपुर मेला’ में भी पहले जैसी रौनक नहीं

यही स्थिति न सिर्फ़ देश बल्कि एशिया के सबसे बड़े पशु मेला के नाम से मशहूर सोनपुर मेला में लगातार देखी जा रही है। बिहार के सारण ज़िले में सोनपुर है, जो गंगा और गंडक नदी के संगम पर है। बिहार की राजधानी पटना से सोनपुर की दूरी 20 किलोमीटर है। गंगा नदी के उस पार पटना है और गंडक के पार हाजीपुर। सोनपुर मेला के बारे में बुजुर्ग बताते हैं कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन से लेकर पूरे एक महीने तक यहां सदियों से मेला लगता रहा है। पहले के ज़माने में जब कृषि विज्ञान केंद्र, कृषि अनुसंधान केंद्र कम थे, तब कृषि उपकरणों से जुड़ी जानकारियां किसानों तक पहुंचाने, कृषि यंत्रों की खरीद-बिक्री करने के लिए सरकारी और निजी उद्यमियों की ओर से बड़े पैमाने पर यहां प्रदर्शनी लगाई जाती थी। मेले में लाखों लोग जुटते थे तो इस अवसर पर देश भर से पशु लाए जाते थे और खरीदारों, विक्रेताओं की भारी भीड़ जुटती थी। सोनपुर मेला अभी भी लगता है, लेकिन लोगों का कहना है कि अब पशुओं की संख्या भी कम होती है और खरीदारों की भी। गाय, भैंस, बकरी से लेकर घोड़े और हाथी की अलग-अलग नस्लों की एक ही जगह उपलब्धता और ऐतिहासिक मेला की पहचान होने के बावजूद सोनपुर मेला की रौनक फीकी पड़ती जा रही है।

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पशु मेला: पशुपालकों की संख्या बढ़ने के बावजूद क्यों घट रही है पशु मेलों में दिलचस्पी?बैल हुए बेकार तो पशु मेला का घटने लगा आकार

पशु मेलों में लोगों की दिलचस्पी घटने के पीछे वैसे तो कई कारण हैं, जैसे बैल की जगह ट्रैक्टर का बढ़ता इस्तेमाल। बीसवीं शताब्दी तक देश के हर हिस्से में बैल खेती के लिए बेहद ज़रूरी होते थे। खेत की जुताई से लेकर तैयार फसल की थ्रेसिंग तक में बैलों का इस्तेमाल होता था। कोल्हू में तेल तैयार करने में भी बैल ही काम आते थे। परिवहन साधनों का विकास होने तक बैलगाड़ी से न सिर्फ़ फसलों की ढुलाई होती थी, बल्कि लोगों के आने-जाने में भी बैलगाड़ी की ज़रूरत होती थी। हर पशु मेले में होने वाली खरीद-बिक्री का सबसे ज़्यादा हिस्सा बैलों का ही होता था, जो अब पूरी तरह से ख़त्म हो चुका है। अब बैलों का इस्तेमाल बहुत कम जजगहों पर खेती में किया जाता है, क्योंकि किसानों को बैलों की तुलना में ट्रैक्टर से खेती में कम लागत आती है।

पशु मेले में गाय की खरीदारी को लेकर लोग अब ज़्यादा जागरुक

पशुपालन ग्रामीण अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग है और ज़्यादातर ग्रामीण परिवारों के पास मवेशियों को लेकर काम की जानकारी होती है। अनुभवी पशुपालक पशु मेलों में जाकर सैंकड़ों, हज़ारों मवेशियों के बीच से भी अपने मुताबिक पशु चुन लिया करते हैं। आमतौर पर दांत गिनकर वो दुधारु पशुओं की उम्र का अंदाज़ा लगा लेते हैं और खुद दूध निकाल कर ये पुख्ता कर लेते हैं कि एक वक्त में कितना दूध देती है। दो से तीन दांत वाले कम आयु के दुधारू पशु खरीदना फ़ायदेमंद होता है। दो साल की उम्र के पशु में ऊपर-नीचे मिलाकर आठ स्थायी और आठ अस्थायी, पांच साल वाले पशुओं में 16 स्थायी और 16 अस्थायी दांत होते हैं, जबकि छह साल से ऊपर की आयु वाले पशु में 32 स्थायी दांत होते हैं।

हाल के वर्षों में पशुपालन को लेकर आई जागरुकता के बाद खरीदार न सिर्फ़ उम्र और दूध की मात्रा के बारे में जानना चाहते हैं, बल्कि पशुओं की पूरी वंशावली यानी लाइन और प्रजनन रिकॉर्ड भी पता करते हैं। वंशावली से ये पुख्ता होता है कि उसकी नस्ल क्या है, वो नस्ल किस इलाके में और किस जलवायु के अनुकूल है और जो कीमत मांगी जा रही है, वो कितनी उचित है। इसी तरह प्रजनन रिकॉर्ड से ये पता चलता है कि पशु के गर्भधारण, प्रजनन क्षमता ठीक है या नहीं।

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ये सभी जानकारियां किसी पशु मेले में कुछ घंटे या एक दिन में नहीं मिल पातीं, इसलिए लोग किसी अनजान विक्रेता से खरीदारी करने में हिचकते हैं। पशुओं की कीमत अब पहले की तुलना में कई गुना ज़्यादा हो चुकी है। इसे ध्यान में रखते हुए खरीदार उसी पशुपालक से खरीदना चाहते हैं, जिसे लेकर पूरी तरह आश्वस्त हो।

व्यावसायिक स्तर पर पशुपालन करने वाले पशुपालक अब सीधे उन विक्रेताओं से संपर्क करते हैं, जहां इसी मकसद से पशुओं का पालन किया जाता है। ऐसे केंद्रों पर हर पशु की लाइन यानी उसकी मां, पिता और उसके पहले की पीढ़ी का पूरा रिकॉर्ड दर्ज रहता है। इसके अलावा, पशु का मेडिकल रिकॉर्ड भी होता है। ऐसे में अगर किसी को एक-दो मवेशी खरीदना हो तो वो आसपास लगने वाले पशु मेले से ले भी लेता है, लेकिन ज़्यादा संख्या में खरीदारी के लिए पशु मेले उसकी उम्मीदों पर अब खरे नहीं उतर पाते।

भैंस, बकरी की खरीदारी के लिए पशु मेलों में अभी भी अच्छी मांग

गायों की तुलना में भैंस और बकरियों की खरीद-बिक्री पशु मेलों में अभी भी ठीक हो रही है। इसका कारण ये है कि उम्र, दूध की मात्रा और स्वास्थ्य के आधार पर कीमत तय होते ही सौदा हो जाता है।

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पशु मेला: पशुपालकों की संख्या बढ़ने के बावजूद क्यों घट रही है पशु मेलों में दिलचस्पी?पशु मेलों को पुनर्जीवित करने के लिए क्या हो?

इस बदलती तस्वीर के बावजूद पशु मेलों की प्रासंगिकता बनी हुई है क्योंकि पारंपरिक मेलों से लोगों का भावनात्मक लगाव बना हुआ है। दूसरी ओर, सरकारें ऐसे मेलों को प्रोत्साहन देती हैं क्योंकि ये एक ऐसा बाज़ार है, जहां खरीदार और विक्रेता दोनों के लिए पर्याप्त विकल्प मिल जाते हैं। इसके साथ ही कृषि प्रदर्शनी, कृषि तकनीकों के बारे में जानकारियां भी किसानों तक पहुंचाने में मदद मिलती है।

ऐसे में पशु मेलों को फिर से पुनर्जीवित करने के लिए पशुपालकों को अपने पशु से जुड़ी हर जानकारी खरीदारों को देने की ज़रूरत है। पशु चिकित्सालयों से उस पशु का पूरा हेल्थ रिकॉर्ड बनवाकर खरीदारों को दिखाने और उसकी वंशावली यानी लाइन का पता चलने पर पशु मेलों में भी लौट सकती है रौनक।

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सम्पर्क सूत्र: किसान साथी यदि खेती-किसानी से जुड़ी जानकारी या अनुभव हमारे साथ साझा करना चाहें तो हमें फ़ोन नम्बर 9599273766 पर कॉल करके या [email protected] पर ईमेल लिखकर या फिर अपनी बात को रिकॉर्ड करके हमें भेज सकते हैं। किसान ऑफ़ इंडिया के ज़रिये हम आपकी बात लोगों तक पहुँचाएँगे, क्योंकि हम मानते हैं कि किसान उन्नत तो देश ख़ुशहाल।

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