होली के हर्बल रंग (Herbal Colors for Holi): देहरादून के एक कृषि विज्ञान केंद्र ने ग्रामीण महिलाओं की आय बढ़ाने में की मदद, हर्बल रंग बनाने की दी ट्रेनिंग

ग्रामीण महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण को बढ़ावा देने और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में पहल करते हुए कृषि विज्ञान केंद्र ने पर्यावरण के अनुकूल हर्बल रंग बनाने के लिए ग्रामीण महिलाओं को प्रोत्साहित किया।

होली के हर्बल रंग से ग्रामीण महिलाओं को आय बढ़ाने में मिल रही है मदद

देश के सबसे लोकप्रिय त्योहारों में से एक है होली। इसे रंगों का त्योहार भी कहा जाता है और इसमें  अब हर्बल रंग का इस्तेमाल काफ़ी बढ़ गया है। इसकी वजह ये है कि केमकिल युक्त सिंथेटिक रंग खुशियों के रंग में भंग डाल सकते हैं। हर साल लगभग 1 करोड़ टन रासायनिक/सिंथेटिक रंगों (Chemical/Synthetic Colors) का उपयोग लोगों के लिए गंभीर स्वास्थ्य जोखिम पैदा करता है। इसका न सिर्फ त्वचा बल्कि पर्यावरण पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। यही वजह है कि अक्सर विशेषज्ञ लोगों से होली में कुदरती या हर्बल रंग को इस्तेमाल करने की सलाह देते हैं।

पिछले कुछ समय से लोगों में भी जागरुकता बढ़ी है और वह सिंथेटिक रंग से किनारा  करके हर्बल रंग को पसंद कर रहे हैं ।  इससे  बाज़ार में इन रंगों की मांग बढ़ती जा रही है । ऐसे में ग्रामीण महिलाओं के लिए हर्बल रंगों का कारोबार  आर्थिक आत्मनिर्भरता का एक ज़रिया बन सकता  है, क्योंकि हर्बल रंगों को तैयार करने की तकनीक बहुत आसान है और इसमें लागत भी मामूली सी आती है।

अलग-अलग पौधों से तैयार किया जाता है रंग

अलग-अलग पौधों से अलग-अलग रंग तैयार किया जाता है। जैसे पिसी हुई नीम की पत्तियों और पालक का इस्तेमाल हरा रंग बनाने में किया जाता है। इसके साथ ही हल्दी से लाल व पीला रंग बनाया जाता है। यह रंग न तो त्वचा को किसी तरह का नुकसान पहुंचाते हैं और न ही पर्यावरण को। दरअसल, पौधों में कुदरती डाई होती है, जो गैर-विषैले (non-toxic), गैर-एलर्जी (non-allergic), गैर-कार्सिनोजेनिक (non-carcinogenic ) होती है।

ग्रामीण महिलाओं के लिए कमाई का ज़रिया

हर्बल रंगों को बनाने में बहुत ही कम मात्रा में ऐसी सामग्री की ज़रूरत पड़ती है जो स्थानीय रूप से आसानी से मिल जाती है। इसे बनाने की विधि भी आसान है और इसमें कम समय लगने के साथ ही लागत भी मामूली आती है। आजकल बाज़ार में इन रंगों की भारी मांग को देखते हुए साफ है कि इन रंगों को बनाकर ग्रामीण महिलाओं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन सकती हैं। इस लघु उद्योग में आने के लिए स्वंय सहायता समूहों (Self-help Groups) ने भी ग्रामीण स्तर पर महिलाओं को जागरुक करने के साथ ही लिए प्रशिक्षण भी दिया।

कृषि विज्ञान केंद्र देहरादून की पहल

ग्रामीण महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण को बढ़ावा देने और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में पहल करते हुए कृषि विज्ञान केंद्र, देहरादून ने पर्यावरण के अनुकूल हर्बल रंग बनाने के लिए ग्रामीण महिलाओं को प्रोत्साहित किया। उन्हें सिंथेटिक रंग के हानिकारक प्रभाव और हर्बल रंगों के फ़ायदों के बारे में भी  बताया। स्थानीय स्तर पर महिलाओं को रंग बनाने की तकनीक सिखाने के लिए कृषि विज्ञान केंद्र, देहरादून ने कई कार्यक्रम और प्रशिक्षण शिविर भी आयोजित किए।

होली के रंग तैयार करने के लिए स्थानीय रूप से उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग किया गया। इस लघु-उद्यम को शुरू करने के लिए अन्य बुनियादी आवश्यकताओं की पूरी जानकारी दी, ताकि महिलाएं आसानी से यह काम शुरू कर सकें। इतना ही नहीं,  कोविड-19 महामारी के दौरान उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और डिजिटल माध्यम से लोगों को प्रशिक्षित करना ज़ारी  रखा।

महिलाओं ने दिखाई दिलचस्पी

कृषि विज्ञान केंद्र की पहल में ग्रामीण महिलाओं ने बहुत दिलचस्पी दिखाई और प्रशिक्षण कार्यक्रम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। कृषि विज्ञान केंद्र ने महिलाओं द्वारा तैयार उत्पाद की बिक्री के लिए विभिन्न मेलों में स्टॉल लगवाए और स्थानीय बाज़ार में भी उसे उपलब्ध करवाने में मदद की। रंग बनाने की तकनीक सीखने के बाद कई गांवों में महिलाओं ने बड़े पैमाने पर इसका उत्पादन करके अपने जीवनस्तर में सुधार किया है।

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