कुसुम (safflower) को कम सताती हैं बीमारियाँ, फिर भी फसल की सुरक्षा के लिए क्या उपाय हैं ज़रूरी?

एक ही खेत में कुसुम की फसल बार-बार लेने, नमी बढ़ने और खरपतवार होने से रोगों की आशंका बढ़ती है

कुसुम पर हमलावर प्रमुख कीटों और रोगों की पहचान तथा इससे उपचार की विधियों के बारे में किसान को ख़ूब जागरूक रहना चाहिए। कीटों और बीमारियों से बचाव के लिए उचित फसल चक्र अपनाने, उपचारित बीज की ही बुआई करने, जल निकास की अच्छा प्रबन्ध करने और खेतों में साफ़-सफ़ाई रखना बेहद उपयोगी साबित होता है।

कुसुम की फसल में वैसे तो रोगों की कोई ख़ास समस्या नहीं होती। फिर भी कुसुम की फसल को रोगों और कीटों के हमलों से बचाना बहुत ज़रूरी है, क्योंकि अक्सर इससे 20 से 30 प्रतिशत उपज का नुकसान हो जाता है। इसीलिए कुसुम पर हमलावर प्रमुख कीटों और रोगों की पहचान, कारण और उपचार की विधियों के बारे में किसान को ख़ूब जागरूक रहना चाहिए। एक ही खेत में कुसुम की फसल बार-बार लेने से और बारिश के बाद नमी बढ़ने से या बुआई से पहले खेत में खरपतवार की गन्दगी होने से कुछ कीटों और बीमारियों की आशंका बढ़ जाती है।

इसके बचाव के लिए उचित फसल चक्र अपनाने, उपचारित बीज की ही बुआई करने, जल निकास की अच्छा प्रबन्ध करने और खेतों में साफ़-सफ़ाई रखना बेहद उपयोगी साबित होता है। यदि कुसुम की फसल पर चाँपा कीट और इल्ली, दोनों का प्रकोप दिखायी दे तो प्रति हेक्टेयर 350 मिली विटासाइहेलोथीन प्लस इमिडाक्लोप्रिड (सोलोमोन)  या 1250 मिली लेम्डासाइहेलोथीन प्लस थाओमेथाक्जाम का 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।

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माहूँ या चाँपा कीट- कुसुम की फसल में सबसे ज़्यादा समस्या काले रंग के माहूँ या चाँपा कीट की होती है। ये सबसे पहले खेत के किनारे वाले पौधों पर दिखता है। यह कीट कुसुम की पत्तियों तथा इसके मुलायम तनों से पोषक रस चूसकर उन्हें नुकसान पहुँचाता है। इससे पौधों की बढ़वार रुक जाती है और वो पीले पड़ने लगते हैं। इस बात का ख़्याल रखें कि चाँपा कीट से रोकथाम के लिए किसी भी दवा का छिड़काव सिर्फ़ एक बार ही करें। दूसरे छिड़काव की नौबत दिखे तो पिछले छिड़काव के 15 दिन के बाद किसी अन्य दवा का इस्तेमाल करें। एक बार इस्तेमाल की गयी दवा को अगली बार के छिड़काव में प्रयोग नहीं करें।

चाँपा कीट से रोकथाम के लिए प्रति एकड़ पर लेम्डासाइहेलोथ्रीन प्लस थाओमेथाक्जाम की 80 से 100 मिली मात्रा या 80 ग्राम थाओमेथाक्जाम या इमिडाक्लोप्रीड या एसिटामीप्रीड को 150 लीटर पानी के साथ घोल बनाकर या मिथाइल डेमेटान 25 EC का 0.05% या डाईमिथियोट 30 EC का 0.03%या ट्राइजोफास 40 EC का 0.04% घोल बनाकर छिड़काव करें।  

कुसुम की खेती के कीट और रोग safflower disease and pest
माहूँ या चाँपा कीट (तस्वीर साभार: Department of Agriculture & Cooperation and Farmers Welfare

जड़सड़न रोग- कुसुम के छोटे पौधों पर जड़सड़न रोग का प्रकोप देखा जा सकता है। इससे जड़ों पर सफ़ेद रंग की फफूँद जम जाती है और पौधे पीले पड़कर सूख जाते हैं। लेकिन यदि बुआई के वक़्त ही मिट्टी और बीजों का उपचार कर लिया जाए तो जड़सड़न रोग से बचाव हो जाता है। बीज का उपचार करने के लिए प्रति किलोग्राम बीज के लिए 5 ग्राम ट्राइकोडर्मा या 100-105 ग्राम टेबूफोनोजोल या 200 से 300 ग्राम काबेंडाजिम प्लस मैंकोजेब का इस्तेमाल करना चाहिए। मिट्टी के उपचार के लिए 5 किग्रा ट्राइकोडर्मा या 100 किग्रा स्यूडोमोनास की मात्रा को गोबर की खाद में मिलाकर बुआई से पहले खेत में डालना चाहिए। और यदि खड़ी फसल में जड़सड़न रोग के लक्षण दिखायी दें तो 450-500 ग्राम एजॉक्सीस्ट्रोबीन या 500 ग्राम टेबुफोनोजोल को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर पर छिड़काव करना चाहिए।

कुसुम की खेती के कीट और रोग safflower disease and pest
कुसुम की फसल वाला जड़सड़न रोग (तस्वीर साभार: ICAR-Indian Institute Of Oilseeds Research)

भभूतिया रोग- भभूतिया रोग की वजह से कुसुम की पत्तियों, टहनियों एवं तनों पर सफ़ेद पाउडर जैसा चूर्ण जमा हो जाता है। इसके प्रभाव से पौधे की प्रकाश संश्लेषण (photo synthesis) की प्रक्रिया बाधित होती है और उसका प्रभावित भाग काला पड़कर सूख जाता है। इसकी रोकथाम के लिए 3 ग्राम घुलनशील गन्धक प्रति लीटर का घोल बनाकर छिड़काव करें या 20 से 25 किग्रा गन्धक चूर्ण का प्रति हेक्टेयर के हिसाब से भुरकाव करें या फिर 500-750 मिली प्रति हेक्टेयर की दर से कैराथेन का प्रयोग करना चाहिए।

गेरुआ रोग- गेरुआ रोग की वजह से कुसुम की पत्तियों पर लाल या गुलाबी रंग के धब्बे दिखायी देते हैं। धीरे-धीरे छोटे धब्बे आपस में मिलकर बड़े हो जाते हैं। इससे प्रभावित कुसुम का पौधा सूखने लगता है। इसकी रोकथाम के लिए प्रोपीकोनोजोल 500 मिली या 1-1.5 किग्रा मैंकोजेब प्रति हेक्टेयर या 3 ग्राम प्रति लीटर की दर से डायथेन M-45 दवा का फसल पर छिड़काव करना चाहिए।

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काला धब्बा रोग- यह रोग अल्टरनेरिया फफूँद से पैदा होता है। इसकी वजह से कुसुम की पत्तियों पर छोटे-छोटे काले धब्बे पड़ जाते हैं, जो धीरे-धीरे फैलने लगते हैं। इसकी रोकथाम के लिए प्रत्येक हेक्टेयर के लिए 100 किग्रा मैंकोजेब का 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।

कुसुम की फलछेदक इल्ली (caterpillar)- तमाम फसलों की तरह कुसुम पर भी कई तरह की इल्लियाँ या रेंगने वाले worm का हमला नज़र आता है। इसका ज़्यादा प्रकोप पौधों में फूल आने के वक़्त होता है। इल्लियाँ कलियों के अन्दर घुसकर फूल के प्रमुख भागों को नष्ट कर देती हैं। इससे पैदावार बुरी तरह से प्रभावित होती है। इल्लियों की रोकथाम के लिए 5 मिली नीम का तेल प्रति लीटर पानी या 160 ग्राम इमेमेवटीन बेंजोएट या 500-550 मिली लेम्डासाइहेलोथ्रीन या 750-1000 ग्राम बवेरिया बॅसियाना का 500 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

कुसुम की खेती के कीट और रोग safflower disease and pest
कुसुम की फलछेदक इल्ली (तस्वीर साभार: Department of Agriculture & Cooperation and Farmers Welfare

 

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