बहुस्तरीय खेती (Multilayer Farming): जानिए कैसे छोटे किसानों के लिए वरदान बन सकती है मल्टी लेयर फार्मिंग (multi layer farming)?
मल्टी लेयर फार्मिंग में समान रफ़्तार से विकासित होने वाली फ़सलों को बहुस्तरीय भवन की तरह उगाया जाता है
मल्टी लेयर फार्मिंग से सभी मौसम में अनेक फ़सलों की पैदावार, आमदनी और रोज़गार सुनिश्चित होता है। ये सीमित ज़मीन पर भी अधिकतम उत्पादकता देती है। इससे उपज को होने वाले नुकसान का जोखिम कम होता है। ये सीमित खेत और संसाधनों का अधिकतम दक्षता से दोहन करके ज़्यादा पैदावार पाने की बेहतरीन तकनीक है, इसीलिए इसमें छोटे किसानों की ज़िन्दगी का कायाकल्प करने की क्षमता है।
देश के 80 प्रतिशत किसान ऐसे छोटे और सीमान्त श्रेणी के हैं, जिनकी औसत जोत का आकार 1.1 हेक्टेयर है। छोटी जोत की वजह से इन किसानों के लिए खेती को लाभकारी बनाना बेहद मुश्किल होता है। क्योंकि इनमें से ज़्यादातर किसान आज भी परम्परागत मौसमी फ़सलों की ही खेती करते हैं। भारी बारिश, बाढ़, तूफ़ान जैसी प्राकृतिक आपदाओं से इसी तबके के किसानों को सबसे ज़्यादा नुकसान झेलना पड़ता है। लेकिन यही किसान यदि सूझबूझ के साथ उन्नत ढंग से मल्टी लेयर फार्मिंग यानी multi layer farming को अपनायें तो उन्हें साल भर आमदनी पाते रहने का मौका मिल सकता है। इस बहुफसलीय कृषि प्रणाली या multi crop farming system भी कह सकते हैं।
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क्या है मल्टी लेयर फार्मिंग?
मल्टी लेयर या मल्टी क्रॉप मल्टी लेयर फार्मिंग का सीधा सिद्धान्त है – ज़मीन के उपजाऊपन का भरपूर इस्तेमाल। इसमें एक ही खेत में एक साथ कई फ़सलें पैदा की जाती है, ताकि मिट्टी का ताक़त का पूरा दोहन हो सके और कम ज़मीन से भी बढ़िया कमाई पायी जा सके। एक ही मौसम में विभिन्न फ़सलों को एक साथ बोया जाना ही बहुस्तरीय कृषि प्रणाली की विशेषता है। इसमें ज़मीन पर मचान बनाकर विभिन्न ऊँचाई स्तर वाली फ़सलों को लगाया जाता है। सीमित भूमि और संसाधनों की अधिकतम दक्षता से ज़्यादा पैदावार पाने की ये बेहतरीन तकनीक है, इसीलिए इसमें छोटे किसानों की ज़िन्दगी का कायाकल्प करने की क्षमता है।
कैसे करें मल्टी लेयर फार्मिंग?
सम्बलपुर यूनिवर्सिटी के खाद्य विज्ञान प्रौद्योगिकी और पोषण विभाग के विशेषज्ञों के अनुसार, मल्टी लेयर फार्मिंग में समान रफ़्तार से विकासित होने वाली फ़सलों को बहुस्तरीय भवन की तरह उगाया जाता है। इसमें कई प्रकार की फ़सलों को एक ही ज़मीन से पोषण मिलता है। इसमें पहले स्तर पर भूमि के अन्दर और कम ऊँचाई पर उगने वाली फ़सलें जैसे अदरक, आलू, टमाटर, प्याज़, मिर्ची, बैंगन, लौकी, कुन्दरू आदि बोते हैं। ये मिट्टी को जकड़कर रखते हैं।
मल्टी लेयर फार्मिंग में दूसरे स्तर के लिए हरी पत्तियों वाली फ़सलें जैसे पालक, मेथी, धनिया पत्ती आदि को चुना जाता है, क्योंकि इनकी बढ़वार 15-20 दिनों में ज़मीन को पूरी तरह से ढक लेती है। इससे फ़सलों को नुकसान पहुँचाने वाले खरपतवारों में कमी आती है।

जब कटाई का समय आता है, तो पत्तेदार फ़सलों की पत्तियों को तोड़ने के बजाय उन्हें जड़सहित उखाड़ लेते हैं। इससे मिट्टी ढीली और भुरभुरी हो जाती है। यह मिट्टी के सेहत को भी बेहतर बनाता है। ऐसा करने से ऑक्सीजन और धूप भी मिट्टी की नीचे पहुँच पाता है। इससे भूमिगत फ़सलों को फ़ायदा होता है। दूसरी ओर यदि ऊपर की फ़सलों को उखाड़कर निकाला नहीं जाएगा तो वो नीचे की फ़सलों के विकास में बाधक बन सकती हैं।
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शेड या मचान बनाना अनिवार्य है
मल्टी लेयर फार्मिंग खुले खेतों में नहीं हो सकती। इसके लिए शेड या मचान बनाना पड़ता है। इसे बाँस और घास-फूस से बनाते हैं। यह प्रतिकूल मौसम से फ़सल की रक्षा करता है। मचान महँगे पॉलीशेड की तरह काम करता है। यह मौसमरोधी और जैवनाशी होता है। धूप और मचान की छाया से ऐसा सन्तुलित वातावरण बनता है जो खेत की नमी के वाष्पन की प्रक्रिया को धीमा करता है। इससे सिंचाई की लागत 90 प्रतिशत तक कम हो जाती है और पानी की सदुपयोग बढ़ने से खेती आकर्षक और प्रभावशाली बनती है।
मचान की बदौलत तीसरे स्तर वाली फसलों को सहारा दिया जाता है। इस स्तर के लिए लताओं वाली हरी सब्जियाँ जैसे भाजी, गलका, लौकी, कुम्हड़ा (कद्दू) वग़ैरह बेहद उपयुक्त होती हैं। चौथे स्तर पर पपीता जैसे फसल की खेती करते हैं। इसे मचान के विभिन्न हिस्सों में एक नियमित दूरी पर लगाते हैं। पाँचवें स्तर की फसलों के लिए मचान के ऊपर मेश या तार पर लगाया जाता है, ताकि वहाँ छोटी और हरी पत्तीदार सब्जियाँ जैसे कुन्दरू, करैला वग़ैरह का फैलाव हो सके।
मचान बनाने की लागत
मचान बनाने में प्रति एकड़ के हिसाब से 50 हज़ार से लेकर एक लाख रुपये तक खर्च होता है। लेकिन एक बार बनाया गया मचान कम से कम पाँच साल तक बहुस्तरीय फसलों की सेवा करता है। ग्रामीण इलाकों में मचान बनाने का कच्चा माल काफ़ी कम दाम पर मिल जाता है। मल्टी लेयर फार्मिंग में बोई जाने वाली फ़सलों के बीज स्थानीय होते हैं। ये फ़सलें मौसम के लचीलेपन को झेलने के अनुकूल होती हैं, इसीलिए लम्बे समय तक उपज देती हैं।
कीट-पतंगों से सुरक्षा
मल्टी लेयर फार्मिंग में फ़सलें को कीट-पतंगों से नुकसान कम होता है। मचान की वजह से फ़सल पर बीमारियों से हमला आसानी से नहीं होता। ज़्यादा कीटों के होने पर पीले या नीले रंग के बोर्ड पर गुड़ या सरसों के तेल से लेप करके फ़सल के बीचों-बीच लगाया जाता है। इससे वहाँ आने वाले कीट-पतंगे बोर्ड पर चिपककर मर जाते हैं। यह पद्धति एक छोटी जगह पर कीड़ों से बचाव के लिए बेहद प्रभावी और उपयोगी पायी गयी है। मचान की वजह से एक साथ पूरी फ़सल ख़राब होने का ख़तरा भी कम हो जाता है।
मल्टी लेयर फॉर्मिंग के फ़ायदे
मल्टी लेयर फार्मिंग से सभी मौसम में अनेक फ़सलों की पैदावार, आमदनी और रोज़गार सुनिश्चित होता है। ये सीमित ज़मीन पर भी अधिकतम उत्पादकता देती है। इससे उपज को होने वाले नुकसान का जोखिम कम होता है। इससे एक साथ खड़ी (लम्बा, मध्यम और छोटा), क्षैतिज और भूमिगत (गहरे जड़ वाले पौधों और उथले जड़ वाले पौधों) फसलों की पैदावार मिलती है। इससे खरपतवार नियंत्रण में मदद मिलती है।
मल्टी लेयर फार्मिंग से ज़्यादा बारिश, मिट्टी का कटाव और भूस्खलन जैसे ख़तरों का प्रभाव कमज़ोर पड़ता है। इसमें मिट्टी की नमी की अलग-अलग गहराईयों का प्रभावीशाली उपयोग होता है। ये सभी प्राकृतिक संसाधनों के समुचित उपयोग का शानदार तरीका है। इसीलिए इसे कुशल खेती का दर्ज़ा हासिल है। इससे बाज़ार की माँग के अनुसार फ़सल पैदा करते बढ़िया दाम पाया जा सकता है।
बहुस्तरीय कृषि प्रणाली से पर्यावरणीय सन्तुलन को फ़ायदा होता है। यदि इस प्रणाली से मधुमक्खी पालन को भी जोड़ लिया जाए तो फसल से अधिक आमदनी पाना और आसान हो जाता है। क्योंकि मधुमक्खियाँ परागण को बेहतर बनाती हैं। मल्टी लेयर फार्मिंग से जैविक विविधता को भी लाभ होता है।
मल्टी लेयर फार्मिंग के लिए उपयुक्त फसलें
गन्ना-आलू-प्याज, गन्ना-सरसों-आलू, बैंगन-भिंडी-पोई, पालक-मूली-प्याज़, मक्का-चना-मूँगफली, आम-पपीता-अनार, नारियल-केला-अनार, नारियल-केला-कॉफी, मूँगफली-टमाटर-मिर्च, गाजर-लाल भाजी-टमाटर और मूली-धनिया-मिर्च आदि।
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