Raised Bed Planter: जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने में बेहद उपयोगी है कुंड और नाली विधि से बुआई

बुआई की परम्परागत छिटकवाँ विधि को ऊँची लागत और जलवायु परिवर्तन की दोहरी मार से बचाने के लिए ही कृषि विज्ञानियों ने कुंड और नाली विधि से बुआई करने की तकनीक विकसित की। कुंड और नाली विधि की बदौलत खेतों में बारिश के पानी का ज़्यादा संरक्षण होता है।

Raised bed planter जलवायु परिवर्तन कुंड और नाली विधि से बुआई

जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाली बेमौसम बरसात, सूखा और कम या अति-वर्षा ने खेती-किसानी के लिए सबसे बड़ी चुनौतियाँ खड़ी की हैं। इससे उबरने के लिए कृषि वैज्ञानिकों की ओर से चौतरफा उपाय बताये जाते रहे हैं। ऐसा ही एक उपाय है फसल की ‘बुआई की कुंड और नाली विधि’। इस तकनीक को हरेक किसान को फ़ौरन अपनाना चाहिए क्योंकि इसकी वजह से फसल की उपज में 20 से 25 प्रतिशत का इज़ाफ़ा होता है। खेती की लागत घटती है क्योंकि खरपतवार और कीट का प्रकोप कम होता है। इतना ही नहीं, कुंड और नाली विधि की बदौलत खेतों में बारिश के पानी का ज़्यादा संरक्षण होता है और मिट्टी की नमी ज़्यादा टिकाऊ होती है।

Raised bed planter जलवायु परिवर्तन कुंड और नाली विधि से बुआई
तस्वीर साभार: ICAR (सोयाबीन की कुंड और नाली विधि से बुवाई)

छिटकवाँ विधि और जलवायु परिवर्तन

जवाहर लाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर के विशेषज्ञों के अनुसार, परम्परागत छिटकवाँ या लाइन विधि से बुआई करने पर फसल को 25-30 प्रतिशत ज़्यादा सिंचाई की ज़रूरत पड़ती है। यही नहीं, बारिश के दिनों में ऐसी बुआई वाली फसलों को जलभराव से भी बहुत नुकसान होता है। छिटकवाँ विधि से बुआई करने से पहले मिट्टी को भुरभुरा बनाने के लिए कई बार जुताई करनी पड़ती है। इससे खेती की शुरुआती लागत ख़ासी बढ़ जाती है। इतना ही नहीं, छिटकवाँ विधि में बीजों का अंकुरण भी अपेक्षाकृत कम और देर से होता है। इससे पैदावार कम मिलती है।

छिटकवाँ विधि से बुआई करने पर खेत में खरपतवार और कीट का प्रकोप भी ज़्यादा होता है। इससे उबरने के लिए किसान जो भी उपाय अपनाते हैं, उससे खेती की लागत और बढ़ जाती है। ये सभी चुनौतियाँ उस वक़्त और कष्टदायी हो जाती हैं जब जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव के रूप में खेती और किसान को सूखा या अतिवर्षा या बेमौसम की बारिश की मार भी झेलनी पड़ती है। इससे खड़ी फसल के बर्बाद होने या पैदावार के और गिरने का ख़तरा बढ़ जाता है। पैदावार गिरने से किसानों को जितनी आमदनी होती है उससे लागत की भरपायी भी मुश्किल हो जाती है।

कम लागत में ज़्यादा कमाई का नुस्ख़ा

बुआई की परम्परागत छिटकवाँ विधि को ऊँची लागत और जलवायु परिवर्तन की दोहरी मार से बचाने के लिए ही कृषि विज्ञानियों ने कुंड और नाली विधि से बुआई करने की तकनीक विकसित की। इसके लिए वैज्ञानिकों ने ट्रैक्टर से संचालित ऐसे कृषि यंत्र को विकसित किया, जिससे कुंड और नाली विधि वाली बुआई की जाती है। इसके कृषि यंत्र या उपकरण को Raised Bed Planter कहते हैं। इसका दाम 20-25 हज़ार रुपये के आसपास है। इस मशीन का सबसे पहले मैक्सिको की योगी घाटी में इस्तेमाल हुआ। ये धान और गेहूँ की खेती के लिए वरदान साबित हुई।

भारत में कुंड और नाली विधि से बुआई की शुरुआत 1991 में गंगा के मैदानी इलाकों में धान और गेहूँ की फसलों के लिए की गयी। इसने सफलता के ऐसे झंडे गाड़े कि धीरे-धीरे अन्य फसलों में भी इस उन्नत तकनीक का विस्तार हुआ। अभी ये विधि मध्य प्रदेश में उन इलाकों में ख़ूब प्रचलित है जहाँ पर खरीफ में मध्यम से भारी मिट्टी में सोयाबीन, उड़द, मूँग और अरहर उगायी जाती है।

Raised bed planter जलवायु परिवर्तन कुंड और नाली विधि से बुआई
कुंड और नाली विधि से बुआई करने वाला Raised bed planter (तस्वीर साभार: Indiamart)

Raised Bed Planter: जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने में बेहद उपयोगी है कुंड और नाली विधि से बुआईकैसे काम करता है Raised Bed Planter?

इस मशीन में 3-5 मोल्ड बोर्ड (फाले) लगे होते हैं जो मिट्टी को दोनों तरफ पलटते हैं। इससे मिट्टी के उभार वाले कुंड और गहराई वाली नाली बनती है। उभार वाले कुंड को शेपर (shaper) समतल करता है और इसी मशीन में लगे हुए सीड ड्रिल से कुंड पर बीजों की बुआई होती है। Raised bed planter से ये सारी प्रक्रिया एक बार में हो जाती है। इसे खींचने के लिए 35 हॉर्स पॉवर से ज़्यादा वाले ट्रैक्टर की ज़रूरत पड़ती है। इसके उपयोग से कुंडों पर अन्तःवर्ती फसलें भी ली जा सकती हैं। इससे खेत की उत्पादकता बढ़ती है। Raised bed planter के ज़रिये पिछले कुंड को तोड़े बिना दोबारा आकार दिया जा सकता है। इससे ईंधन, वक़्त और मज़दूरी की बचत होती है।

कुंड और नाली विधि से बुआई करने पर अतिवर्षा की दशा में भी फसल को नुकसान नहीं होता। इस विधि में बनने वाली नालियाँ जहाँ एक ओर कम वर्षा की दशा नमी के संग्रह के लिए अनुकूल क्षेत्र विकसित करती हैं वहीं ज़्यादा बारिश की दशा में जलनिकासी का बेहतरीन ज़रिया बनती हैं। इसीलिए देश के अनेक अनुसन्धान संस्थानों और कृषि विश्वविद्यालयों ने प्रमाणित किया है कि कुंड और नाली विधि से बुआई करने पर कम समय और लागत में ज़्यादा उत्पादन पाया जा सकता है।

खरीफ की फसलों के लिए तो किसानों को ख़ासतौर पर इसी तकनीक को अपनाने की सलाह दी जाती है। ताकि खेती पर पड़ने वाले जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव को कम से कम किया जा सके। दरअसल, जलवायु परिवर्तन और असामान्य वर्षा से बुन्देलखंड जैसे सूखा आशंकित इलाकों में रबी की अपेक्षा खरीफ की फसलों का रकबा बहुत कम होता जा रहा है। सोयाबीन, उड़द और अरहर जैसी खरीफ की मुख्य फसलों की पैदावार या तो स्थिर हो गयी या गिरती जा रही है। लेकिन यदि कुंड और नाली विधि से बुआई हो तो कम या ज़्यादा बारिश की दशा में भी कुंड की मिट्टी में नमी ज़्यादा वक़्त तक बनी रहती है। इससे बीजों का पर्याप्त अंकुरण होता है और आख़िरकार, पैदावार ज़्यादा मिलती है।

Raised bed planter जलवायु परिवर्तन कुंड और नाली विधि से बुआई
तस्वीर साभार: ICAR

खरपतवार और कीट प्रबन्धन

परम्परागत छिटकवाँ या लाइन विधि से बुआई की तुलना में कुंड और नाली विधि से बुआई करने पर खरपतवार का प्रकोप भी बहुत कम होता है, क्योंकि कुंड के बनने के दौरान मिट्टी सतह पर खड़े खरपतवार, बीजों के नीचे चले जाते हैं। इससे खरपतवार के वही बीज अंकुरित होते हैं, जो ज़मीन की सतह पर एक से डेढ़ सेंटीमीटर गहराई पर पड़े रहते हैं। इससे निराई-गुड़ाई की ज़रूरत नहीं पड़ती और पैदावार तथा आमदनी, दोनों में वृद्धि होती है।

इसी तरह, फसल को प्रभावित करने वाले ज़्यादातर कीट अपना जीवनचक्र ज़मीन की ऊपरी सतह पर ही पूरा करते हैं। कुंड और नाली विधि से बुआई करने पर ज़्यादातर कीटों के अंडे ज़मीन में गहरे धँसने से नष्ट हो जाते हैं क्योंकि कुंड की ऊँचाई से उनके ऊपर मिट्टी का अपेक्षाकृत भारी ढेर बन जाता है। लिहाज़ा, खरपतवार और कीट से निपटने में ख़र्च होने वाले धन-श्रम या लागत में कमी आती है।

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