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हिमाचल प्रदेश के शिमला जिले की शिलरू गांव की रहने वाली सुषमा चौहान ने जब अपनी पारंपरिक सेब की खेती में बढ़ते ख़र्च और रासायनिक दवाओं के दुष्प्रभाव को महसूस किया, तो उन्होंने एक बेहतर विकल्प की तलाश शुरू की। इसी दौरान उन्हें प्राकृतिक खेती की जानकारी मिली, जो उनके लिए सिर्फ़ एक तकनीक नहीं बल्कि एक नया रास्ता साबित हुई।
सुषमा जी का परिवार पहले से ही 50 बीघा ज़मीन पर बागवानी करता आ रहा है, जिसमें सेब, चेरी, आलूबुखारा, मक्की और राजमाश जैसी फ़सलें शामिल हैं। लेकिन जब बात खेती के ख़र्च और मिट्टी की सेहत की आई, तो उन्होंने साल 2019 में अपने बाग के एक हिस्से — सिर्फ़ 5 बीघा — पर प्राकृतिक खेती अपनाने का निर्णय लिया।
रासायनिक खेती से हुआ नुक़सान (Harmful effects of chemical farming)
सुषमा जी बताती हैं कि पहले जब वे रासायनिक तरीकों से खेती करती थीं, तो सिर्फ़ 5 बीघा खेत पर 40,000 रुपये तक का ख़र्च आ जाता था। इसके बावजूद मिट्टी की गुणवत्ता गिरती जा रही थी, और फल उतने स्वास्थ्यवर्धक नहीं रह गए थे। रासायनिक दवाओं और उर्वरकों के लगातार प्रयोग से फ़सलें कमज़ोर होने लगी थीं। उत्पादन तो मिल रहा था लेकिन गुणवत्ता और लागत का संतुलन नहीं बन पा रहा था। ऐसे में उन्होंने प्राकृतिक खेती की तरफ कदम बढ़ाया।
प्राकृतिक खेती की शुरुआत और प्रशिक्षण (Starting and training of natural farming)
2019 में सुषमा चौहान ने सोलन जिले के नौणी में कृषि विभाग द्वारा आयोजित प्राकृतिक खेती शिविर में 6 दिन का प्रशिक्षण लिया। इस प्रशिक्षण से उन्हें बिना रसायन और मशीन के ज़मीन से कैसे बेहतर उत्पादन लिया जा सकता है, इसकी स्पष्ट समझ मिली।
प्रशिक्षण के बाद उन्होंने अपनी 5 बीघा ज़मीन पर पूरी तरह से प्राकृतिक खेती का प्रयोग शुरू किया। इसके लिए उन्होंने एक देसी गाय खरीदी और खेती में उपयोग होने वाले सभी उत्पाद — जैसे जीवामृत, घनजीवामृत, सनातनाष्ठ और ‘खट्टी लस्सी’ — खुद घर पर ही बनाना शुरू कर दिया।
परिणाम दिखे पहले ही सीजन में (The results were visible in the very first season)
सिर्फ़ पहले ही सीजन में सुषमा जी को प्राकृतिक खेती के जबरदस्त परिणाम दिखने लगे। उन्होंने बताया कि रासायनिक खेती की तुलना में उन्होंने इस बार सिर्फ़ 2000 रुपये का इनपुट ख़र्च किया, जबकि उत्पादन और आय क़रीब 3 लाख रुपये तक पहुंच गई। उन्होंने यह भी महसूस किया कि अब मिट्टी की गुणवत्ता सुधरने लगी है, और पेड़-पौधों की हालत पहले से कहीं ज़्यादा अच्छी है। कीट और बीमारियों पर काबू पाने के लिए भी वे अब रासायनिक दवाओं के बजाय प्राकृतिक खेती के घरेलू नुस्खों का इस्तेमाल कर रही हैं।
शुरुआती झिझक और अब आत्मविश्वास (Initial hesitation and now confidence)
सुषमा जी बताती हैं कि शुरू में उन्हें भी झिझक थी कि क्या यह तरीका सफल होगा? लेकिन जैसे-जैसे परिणाम सामने आए, उनका आत्मविश्वास बढ़ता चला गया।
वे अब कहती हैं —
“प्राकृतिक खेती ने मेरी सोच को बदल दिया है। हर दिन मैं और ज़्यादा आश्वस्त हो रही हूं कि यह तरीका न केवल सस्ता है बल्कि टिकाऊ भी है।”
परिवार का सहयोग बना ताकत (Family support becomes strength)
सुषमा जी की इस नई दिशा में उनके परिवार ने भी भरपूर सहयोग दिया। उनके पति, ननद और अन्य सदस्य भी इस बदलाव में उनके साथ खड़े रहे। ख़ासकर उनकी ननद, काला चौहान, खेती में उपयोग होने वाले घोल और दवाएं बनाने में मदद करती हैं और छिड़काव में भी साथ देती हैं।
स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों को फ़ायदा (Benefits for both health and environment)
सुषमा जी के अनुसार, प्राकृतिक खेती न सिर्फ़ मिट्टी और फ़सलों के लिए अच्छी है, बल्कि इससे परिवार के स्वास्थ्य में भी सुधार हुआ है। आज वे सिर्फ़ खुद के लिए ही नहीं, बल्कि पर्यावरण के लिए भी खेती कर रही हैं।
छोटे किसानों के लिए बड़ा विकल्प (Big option for small farmers)
सुषमा चौहान की कहानी यह दिखाती है कि प्राकृतिक खेती सिर्फ़ बड़े किसानों के लिए नहीं, बल्कि सीमित संसाधनों वाले किसानों के लिए भी एक बेहतर विकल्प है। कम ख़र्च, ज़्यादा मुनाफ़ा और मिट्टी की उर्वरता को बनाए रखना — ये सभी फ़ायदे इसे ख़ास बनाते हैं।
निष्कर्ष (Conclusion)
प्राकृतिक खेती ने सुषमा चौहान को एक नया आत्मविश्वास दिया है। अब वे न सिर्फ़ आर्थिक रूप से सशक्त हैं, बल्कि पर्यावरण के प्रति भी अधिक जागरूक हैं। उनका अनुभव यह दिखाता है कि यदि किसान पारंपरिक तरीकों से थोड़ा हटकर सोचें, तो वे कम लागत में भी बेहतरीन परिणाम पा सकते हैं।
उनकी कहानी हर उस किसान के लिए प्रेरणा है जो खेती में कुछ नया और टिकाऊ करना चाहता है। आज जब हम जैविक और स्वस्थ भोजन की ओर बढ़ रहे हैं, ऐसे समय में प्राकृतिक खेती ही भविष्य की सही दिशा है।
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