दुनिया का सबसे महंगा, सबसे ज्यादा रंगीन और खुशबूदार मसाला है केसर। ये कुदरत की एक ऐसी शानदार नियामत है जो बेमिसाल है। सैफरन (Saffron) या ज़ाफ़रान के नाम से भी पुकारे जाने वाले केसर के मामले में भारत की किस्मत अच्छी है क्योंकि यहां के कश्मीर प्रांत में इसकी बेहतरीन किस्म पैदा होती है। ख़ास बात ये है कि हर साल 21 अक्टूबर आते ही यहां के पम्पोर इलाके में केसर के जामुनी रंग की पत्तियों वाले फूल बल्ब से बाहर खिलने शुरू हो जाते हैं। इस बार भी ऐसा ही हुआ। हर बार नवंबर की शुरुआत होते-होते केसर की फसल पूरे यौवन पर होती है। इसका कारण है इन दिनों यहां केसर को मुफीद आने वाला वो मौसम जिसमें एक ख़ास तापमान और नमी का संतुलन होता है। हाल ही में हुई बारिश के बाद बने इस मौसम में अबकी दफा उम्मीद यही की जा रही है कि हफ्ते भर बाद जम्मू-श्रीनगर नेशनल हाईवे पर मीलों तक जमीन जामुनी चुनरी ओढ़े दिखाई देगी, लेकिन चंद दिनों के कुदरत के इस करिश्मे को बरसों से इस मौसम में कायम रखने में केसर किसानों को खासी मेहनत के साथ ज़बरदस्त कौशल का परिचय देना पड़ता है। जब कुदरत, किसान और कौशल में अच्छा तालमेल होता है तो कीमत और खूबसूरती के मामले में सोने को भी टक्कर देने वाली केसर की फसल किसान की किस्मत को भी चमका देती है।
पुलवामा के पम्पोर में होता है 90% केसर उत्पादन
भारत में केसर की पैदावार का 90 फीसदी पुलवामा के पम्पोर इलाके में ही होता है और यहां के वर्तमान किसानों के पुरखे इसकी खेती करते रहे हैं। एक बार तो ऐसा वक्त आ गया था कि केसर किसान इतनी महंगी बिकने वाली वस्तु को उगाने से कतराने लगे थे। मेहनत ज्यादा, फसल कम, उसकी कीमत के साथ मुनाफा भी कम। खैर सरकार जागी और दखल दिया। 2010 के दशक में बनाए गए सैंकड़ों करोड़ रूपये के केसर मिशन विभिन्न वजह से उतना असरदार नतीजे नही दे सका, लेकिन भारत और जम्मू कश्मीर में केसर से जुड़े पूरे सिस्टम को जगाने का तगड़ा काम ज़रूर किया है। मिशन की नाकामियां गिनाने वाले भी कम से कम इस दिशा में हासिल इस एक उपलब्धि के लिए तो योजना की तारीफ़ ज़रूर करते हैं। खुद केसर उगाने से लेकर निजी तौर पर दिलचस्पी लेकर इसके प्रचार में जुटे इरशाद अहमद डार और उनके जैसे किसान अब केसर के भविष्य को आशान्वित होने लगे हैं। इरशाद अहमद डार पुलवामा के ही उस पतलबाग गांव के निवासी हैं जो केसर सर्वाधिक की खेती वाले इलाके पम्पोर के पास है। यहां इरशाद का ज़िक्र इसलिए किया जा रहा है क्योंकि जब यहां केसर की चर्चा कृषि अधिकारी करते हैं तो इरशाद का नाम खुद ब खुद बातचीत में आ जाता है।
फूल से केसर निकालना मेहनत और नाज़ुक काम
दरअसल, 34 बरस के इरशाद की खासियत पुश्तों से चली आ रही उनकी केसर की खेती और इस खेती की बारीकियों से बखूबी वाकिफ होना तो है ही, वो ऐसे ऐसे काम करते हैं जो उनको किसान और कृषि विज्ञानी से भी ऊपर के स्तर पर पहुंचा देते हैं। उनसे मुलाकात उनके खेत में ही हुई जहां वो परिवार के साथ इस सीज़न में उगे केसर के फूलों की तुड़ाई के लिए आए थे। करीने से तोड़े और टोकरी में सहेजकर रखे जाते इन नरम फूलों के सबसे नाज़ुक हिस्से यानि वर्तिकाग्र ( स्टिग्मा – Stigma) का सबसे ज्यादा ख्याल रखा जाता है क्योंकि केसर वही होता है। कश्मीरी में इसे कुंग कहा जाता है और केसर के फूल को कुंगपोश। सूखने के बाद यही कुंग केसर या ज़ाफ़रान कहलाता है, लेकिन फूल के हिस्सों को अलग करके कूंग को सुखाने का काम किसानों के घरों में भीतर ही होता है। लिहाज़ा इन दिनों केसर किसानो के घर खुशबू से महकते रहते हैं। इरशाद के यहां भी घर पर यही दृश्य दिखाई दिया। परिवार का सबसे छोटा बमुश्किल से तीन साल का उनका बेटा, पत्नी और बुजुर्ग माँ इस काम में जुटे हुए हैं।
इरशाद अहमद डार का ज़िक्र कुछ ही दिन पहले पुलवामा ज़िले के मुख्य कृषि अधिकारी इकबाल खान ने क्यों किया जबकि यहां केसर उगाने वाले तो बहुतेरे किसान हैं लेकिन इस गुत्थी के सुलझने का सिलसिला थोड़ी देर बाद ही शुरू हो गया।
ऑर्गेनिक खेती करके मसाले उगाते हैं
इरशाद अहमद के संयुक्त परिवार की लगभग 80 कनाल जमीन में से 40 फीसदी के करीब तो केसर की खेती को समर्पित है। उनकी 30 कनाल ज़मीन में धान, 10 कनाल में सब्जियां और मसाले तो बाकी में विलो, पॉप्लर जैसी कमर्शियल लकड़ी के पेड़ हैं। खासियत ये है कि इरशाद ऑर्गेनिक खेती में विश्वास करते हैं। दावा करते हैं कि उनके उत्पाद में 100 फ़ीसदी जैविक खाद और जैविक कीटनाशक इस्तेमाल किये जाते हैं। पढ़ाई बेशक विज्ञान की नहीं की। बीए किया है इंदिरा गांधी ओपन यूनिवर्सिटी से लेकिन खेतीबाड़ी की बारीकियां इतनी आ गई और खुद को अपडेट इतना रखते हैं कि किसी भी कृषि एक्पर्ट से लंबी परिचर्चा करने की क्षमता इनमें विकसित हो गई है।
अपनी 12 कनाल ज़मीन में से 8 कनाल में केसर तो बाकी 4 कनाल में कश्मीरी लाल लॉन्ग वन मिर्च, कश्मीरी लाल लहसुन, सरसों और शेल्लोट (एक तरह का प्याज़) बोया है। वो अपने खेतों में लगातार एक फसल नहीं लगाते। उनको बदलते रहते हैं। कहते हैं कि क्रॉप रोटेशन (crop rotation) ज़रूरी है। ये कमर्शियल हिसाब से भी और मिट्टी की उर्वरता के लिए भी फायदेमंद है। मिसाल देते हैं बीते साल लगाए गए मटर की। कहते हैं कि मटर की फसल के कारण मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा कुदरतन बढ़ जाती है लिहाजा ऐसी जगह पर अगली फसल के तौर पर उन्होंने दाल लगाई। यूरिया , डीएपी डालने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। वर्मीकम्पोस्ट या बायो खाद डालो काफी है, बल्कि इसका फायदा ये भी होता है कि कीटनाशक की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। क्योंकि आजकल केमिकल युक्त दवाओं और खाद के दाम वैसे भी इतने बढ़ते जा रहे हैं कि उनका इस्तेमाल लागत बढ़ा देता है और मुनाफा घटा डालता है।
कुदरती खेती में तकनीक का इस्तेमाल भी
अलग-अलग फसल लगाने का एक फायदा और होता है। अगर किसी एक फसल के दाम में कमी हो तो दूसरी फसल संतुलन बना देती है। लिहाज़ा मुनाफा कम ज्यादा ज़रूर होता हो लेकिन घाटा होने से बचा जा सकता है। प्राकृतिक खेती में इरशाद बहुत विश्वास करते हैं लेकिन कुछ मामलों में मानवीय हस्तक्षेप और तकनीक के उपयोग के ज़बरदस्त पक्षधर हैं। मिसाल के तौर पर बताते हैं कि वे केसर के फूल का स्टिग्मा अलग करने का या सुखाने का काम घर पर कुदरती तरीके से करते हैं लेकिन बिक्री सरकार की तरफ से विकसित स्पाइस पार्क (spice park) के ज़रिये करते हैं। यहाँ 30 से 40 फीसदी से ज्यादा तक दाम मिल जाते हैं। असल में यहाँ से बिक्री के सप्लाई होने वाले केसर की पैकिंग पर जीआई टैगिंग (GI Tagging) होती है जो शुद्धता की गारंटी मानी जाती है। लिहाज़ा इस केसर के दाम अच्छे मिलते हैं . जहां तक केसर से इरशाद के लगाव की बात है तो इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वो केसर की खेती को बढ़ावा देने और इसके प्रति लोगों में जागृति बढ़ाने के लिए मुफ्त में बीज देते हैं। 2018 में कश्मीर के बारामुला डिग्री कॉलेज में उन्होंने छात्रों को ट्रायल के तौर पर बीज ही नहीं दिए, एक हफ्ते की ट्रेनिंग भी दी। ये प्रोजेक्ट उनको वहां के बॉटनी विभाग ने दिया था।
सोशल मीडिया के ज़रिये युवाओं को खेती की ओर मोड़ा
अन्य तरह की फसलों की खेती से लेकर डेयरी पालन तक को बढ़ावा देने के लिए वो अपने स्तर पर कुछ न कुछ करते रहते हैं। इरशाद बताते हैं कि इस तरह के काम के लिए वे अब तक 31 युवाओं को प्रोत्साहित करके एक सफल किसान बनने में मदद कर चुके हैं। इनमें कुछेक युवतियां भी हैं। अपने खेतीबाड़ी और गाय पालन के साथ साथ खाद बिक्री की दूकान चलाने के बीच इस सबके लिए अलग-अलग जानकारी जुटाना और ऐसे लोगों तक पहुंचना व संपर्क में बने रहना कैसे सम्भव है? इरशाद अहमद डार के पास इसका जवाब है- तकनीक और सोशल मीडिया। एग्रीकल्चर ऑर्गेनिक फार्मिंग कश्मीर नाम के फेसबुक पेज के साथ यूट्यूब चैनल शुरू किया वहीँ व्हाट्सएप ग्रुप भी बनाए।
अलग-अलग श्रेणी के लोगों की ज़रूरत के हिसाब से कुल मिलाकर 8 ग्रुप बना चुके हैं जिनके ज़रिये वे तकरीबन 2000 लोगों से जुड़े हैं। एक ग्रुप तो ऐसा भी है जिसमें यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर और निदेशक व विज्ञानी तक जुड़े हैं। इन ग्रुप के ज़रिये इरशाद समस्याओं, योजनाओं और नई तकनीक आदि जैसे विषयों की जानकारियाँ शेयर करते हैं। कई किसान अपने अनुभव भी साझा करते हैं जिसका लाभ अन्य लोग उठाते हैं, वहीं कुछ विशेषज्ञ खेती किसानी में अपनाए जाने वाले नए-पुराने तौर तरीकों में बदलाव के सुझाव भी देते हैं जिससे गुणवत्ता बढ़ती है।
पढ़े-लिखे किसानों का एफपीओ बनाया
खेतीहरों की विभिन्न प्रकार से मदद कर रहे इरशाद अहमद डार ने अब एक किसान उत्पादन संगठन (farmers production organisation) भी बना लिया है। ये नाबार्ड की योजना है जिसमें किसान एक कंपनी बनाकर उत्पादन करते है। इरशाद अब तक इसमें 120 सदस्य जोड़ चुके हैं। फख्र से बताते हैं कि इन सदस्यों में सभी नौजवान हैं। सबसे कम पढ़ा लिखा सदस्य 12 वीं पास नौजवान है, कई ग्रेजुएट व पोस्ट ग्रेजुएट है तो पीएचडी किये हुए सदस्य भी हैं। जल्द ही औपचारिक तौर पर कार्यालय खोलकर और बैंक खाता खोलने के बाद काम शुरू कर दिया जाएगा। ये एफपीओ किसानों को फसल उगाने से लेकर पैकिंग, ट्रांसपोर्ट और उत्पाद बेचने तक के लिए मदद करेगा।
फसल तैयार करने के साथ लॉन्च करेंगे अपने उत्पाद
तरक्की पसंद व नए प्रयोग के हिमायती इरशाद अहमद डार अपनी फसल से प्रोडक्ट्स भी बनाने के प्लान पर काम कर रहे हैं। कहते हैं कि इस बार लहसुन की फसल के बहुत कम दाम मिले। अब उन्होंने फसल के बजाय लहसुन का पेस्ट बना कर बेचने की योजना बनाई है। गार्लिक पेस्ट की शहरी क्षेत्रों में काफी मांग होती है। इसी तरह वे केसर के पानी में कश्मीरी लाल मिर्च का पेस्ट मिलाकर उसे सुखाने के बाद टिकिया के तौर पर बना कर बिक्री करने के प्लान पर भी काम कर रहे हैं। इस केसर व मिर्च को मिक्स करके बनाए जाने वाले इस मसाले को कश्मीरी में ‘वर’ कहते हैं। इसका इस्तेमाल पारम्परिक कश्मीरी व्यंजनों को पकाने में होता है।
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