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कांगड़ा जिले का परागपुर इलाका अपनी उपजाऊ ज़मीन और परंपरागत फ़सलों जैसे गेहूं, अदरक और मकई के लिए जाना जाता है। यहां के खेतों में सालों से यही फ़सलें उगाई जाती रही हैं, और यही किसानों की आमदनी का मुख्य ज़रिया भी रही हैं। लेकिन जैसे-जैसे समय बदला और खेती में नई चुनौतियां सामने आने लगीं, वैसे-वैसे किसानों ने भी अपने तरीकों में बदलाव करना शुरू किया। रासायनिक खेती से जुड़ी समस्याएं, लागत में बढ़ोतरी और मिट्टी की सेहत बिगड़ने जैसी दिक्कतों ने किसानों को सोचने पर मजबूर कर दिया।
इन्हीं चुनौतियों को समझते हुए परागपुर के कई किसान अब प्राकृतिक खेती की ओर बढ़ रहे हैं। प्राकृतिक खेती न सिर्फ़ मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को बनाए रखती है, बल्कि कम ख़र्च में बेहतर उत्पादन भी देती है। इसी बदलाव की मिसाल हैं बलवंत सिंह। देश सेवा करने के बाद जब उन्होंने खेती को अपनाया, तो उन्होंने प्राकृतिक खेती को चुना। उनका मानना है कि खेती सिर्फ़ आमदनी का साधन नहीं, बल्कि प्रकृति से जुड़ने का एक रास्ता है। बिना रासायनिक खाद और कीटनाशकों के, वे आज सफलतापूर्वक प्राकृतिक तरीके से खेती कर रहे हैं और दूसरे किसानों के लिए भी प्रेरणा बन चुके हैं।
सीख से मिली नई दिशा (New direction from learning)
बलवंत सिंह ने प्राकृतिक खेती का 6 दिन का विशेष प्रशिक्षण लिया। इस प्रशिक्षण में उन्होंने सीखा कि कैसे बिना रासायनिक खाद और कीटनाशकों के भी अच्छी खेती की जा सकती है। जब बलवंत सिंह गांव लौटे, तो उनके पास अपनी खुद की गाय नहीं थी, जो कि प्राकृतिक खेती की मूल जरूरत मानी जाती है। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। उन्होंने आसपास के गांवों से गाय का गोबर और गोमूत्र इकट्ठा किया और अपनी खेती में उसका उपयोग शुरू किया। शुरुआत में उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।
धीरे-धीरे उन्होंने प्राकृतिक खेती के अलग-अलग तरीकों को अपनाया, जैसे जीरो बजट खेती, जीवामृत और बीजामृत का प्रयोग। इसके साथ ही वे गांव के अन्य किसानों को भी समझाने लगे कि यह तरीका कैसे फ़ायदेमंद है। शुरुआत में लोग उन्हें ‘पागल फौजी’ कहकर मजाक उड़ाते थे, लेकिन जब उनकी फ़सलें लहलहाने लगीं और नतीजे सामने आए, तो गांववालों की सोच बदल गई। अब वही लोग उनकी राह पर चल रहे हैं।
प्राकृतिक खेती का मॉडल फार्म (Model farm of natural farming)
आज बलवंत सिंह अपने 10 कनाल (5 बीघा) खेत पर जंगल मॉडल प्राकृतिक खेती कर रहे हैं। यहां नींबू के 60, गूलर के 50, बेल के 100, आंवला के 60 और पपीते के 10 पेड़ लगे हुए हैं। इसके साथ ही उन्होंने गेहूं, अदरक, मकई, सरसों, लहसुन, गोभी, मटर और चने जैसी फ़सलें भी ली हैं। उन्होंने अपने खेत में साहिवाल नस्ल की गाय भी खरीदी है, जिससे गोबर और गोमूत्र आसानी से उपलब्ध हो जाता है। इससे उनकी खेती का ख़र्च बहुत कम हो गया है और मुनाफ़ा लगातार बढ़ रहा है।
मेहनत से मिला सम्मान (Respect for hard work)
बलवंत सिंह के प्राकृतिक खेती मॉडल को देखकर आज आसपास के किसान भी प्रेरित हो रहे हैं। उनकी सफलता को देखते हुए उन्हें राज्य स्तरीय सम्मान भी मिल चुका है। कृषि विभाग और महिला किसान समूह भी उनकी इस पहल की सराहना कर रहे हैं।
गांव वालों की सोच में बदलाव (Change in the thinking of villagers)
बलवंत सिंह कहते हैं –
“इस खेती को अपनाने के बाद गांव वाले पहले मजाक उड़ाते थे, लेकिन अब वही लोग मेरा साथ दे रहे हैं और प्राकृतिक खेती को अपना रहे हैं।”
यह बदलाव बताता है कि अगर एक किसान ठान ले तो पूरे गांव की सोच बदली जा सकती है।
खेती और बागवानी का संगम (A blend of agriculture and gardening)
बलवंत सिंह न केवल खेती कर रहे हैं बल्कि साथ में बागवानी पर भी ध्यान दे रहे हैं। इससे उनकी आमदनी के नए स्रोत बने हैं और किसानों के बीच वे प्रेरणा का स्रोत बन चुके हैं। उनके अनुसार –
“मैं किसानों को खेती के साथ बागवानी के लिए भी प्रेरित कर रहा हूँ। किसान मेरे मॉडल को देखकर इसे अपना रहे हैं।”
प्राकृतिक खेती में कम ख़र्च, ज़्यादा लाभ (Less cost, more profit in natural farming)
बलवंत सिंह के 10 कनाल खेत में की जा रही प्राकृतिक खेती यह साबित करती है कि कम ख़र्च में भी खेती सफल हो सकती है। रासायनिक खाद और कीटनाशकों पर होने वाला भारी ख़र्च इस पद्धति में नहीं होता। बलवंत सिंह की वार्षिक खेती का ख़र्च केवल लगभग ₹40,000 के आसपास होता है, क्योंकि वे अपने खेत में जीवामृत, बीजामृत और देसी गाय से मिलने वाले उत्पादों का उपयोग करते हैं।
इसके साथ ही वे खेत में मौसमी फल और सब्जियां भी उगाते हैं, जिससे अतिरिक्त फ़ायदा होता है। यानी प्राकृतिक खेती का सबसे बड़ा लाभ यही है — कम लागत में सुरक्षित और लाभदायक उत्पादन। यही वजह है कि अब कई किसान उनकी इस राह को अपना रहे हैं।
प्राकृतिक खेती का असली फ़ायदा (The real benefits of natural farming)
बलवंत सिंह की कहानी बताती है कि प्राकृतिक खेती न केवल किसानों का ख़र्च घटाती है बल्कि मिट्टी की सेहत भी सुधारती है। फ़सलें रोग-प्रतिरोधी बनती हैं और उपज की गुणवत्ता बेहतर होती है। यही कारण है कि आज उनके गांव और आसपास के इलाके के कई किसान इस राह पर चल पड़े हैं।
निष्कर्ष (conclusion)
बलवंत सिंह का यह सफर हर किसान के लिए प्रेरणा है। उन्होंने साबित कर दिया कि अगर हिम्मत और धैर्य से काम किया जाए तो खेती में बदलाव लाना संभव है। प्राकृतिक खेती केवल खेती की तकनीक नहीं, बल्कि जीवन जीने का तरीका है जो मिट्टी, पर्यावरण और किसान – सभी के लिए फ़ायदेमंद है।
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