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हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के इंदौरा ब्लॉक के गांव निवासी बीर सिंह पहले मानते थे कि खेती से बच्चों को दूर रखना चाहिए, क्योंकि रसायनों और कीटनाशकों का उनके शरीर और दिमाग़ पर बुरा असर पड़ता है। खेतों में इस्तेमाल होने वाले ये ज़हरीले पदार्थ न सिर्फ़ मिट्टी और पानी को खराब करते हैं, बल्कि इंसानों की सेहत पर भी गंभीर प्रभाव डालते हैं। इसी कारण वे अपने बच्चों को खेती से दूर रखते थे। लेकिन समय के साथ उनकी सोच पूरी तरह बदल गई। उन्होंने दिखा दिया कि अगर हम प्राकृतिक खेती को अपनाएं, तो न सिर्फ़ खेत सुरक्षित रहते हैं, बल्कि परिवार और समाज भी सेहतमंद बनते हैं।
2019 में बीर सिंह ने रासायनिक खेती को छोड़कर पूरी तरह से प्राकृतिक खेती की शुरुआत की। उन्होंने गाय आधारित खेती को अपनाया और जीवामृत, घनजीवामृत जैसे देसी तरीकों से खेती करना शुरू किया। आज उनका खेत एक उदाहरण बन गया है, जहां बिना ज़हर के अनाज, फल और सब्ज़ियाँ उगाई जाती हैं। आज बीर सिंह न सिर्फ़ खुद सफल किसान हैं, बल्कि अपने अनुभव से आसपास के किसानों को भी जागरूक कर रहे हैं। उनकी मेहनत और लगन ने उन्हें इलाके के किसानों के लिए एक प्रेरणा बना दिया है।
विदेश से लौटकर खेती की नई शुरुआत
बीर सिंह लंबे समय विदेश में काम करने के बाद अपने गांव लौटे। शुरुआत में उन्होंने संतरे की खेती की, लेकिन बाज़ार में खराब गुणवत्ता और कम दाम के कारण उन्हें नुकसान उठाना पड़ा। संतरे को 5–7 रुपये प्रति किलो बेचना पड़ता था। ऐसे हालात देखकर उन्होंने खेती बदलने का ठाना। इंटरनेट और कृषि प्रशिक्षण से मिली जानकारी के बाद उन्होंने प्राकृतिक खेती की ओर कदम बढ़ाया।
छोटी ज़मीन से बड़ा बदलाव
शुरुआत में बीर सिंह ने केवल 6 कनाल (3 बीघा) भूमि पर संतरे और सब्जियों के साथ प्राकृतिक खेती शुरू की। नतीजे उत्साहजनक रहे और धीरे-धीरे उन्होंने अपनी पूरी ज़मीन इस पद्धति में शामिल कर ली। वर्तमान में उनकी 42 कनाल (21 बीघा) भूमि पर प्राकृतिक खेती हो रही है। आज उनके खेतों में गेहूं, चना, सरसों, बैंगन, मटर, नींबू, संतरा, किन्नू और मौसमी जैसी विविध फ़सलें उगाई जा रही हैं।
पशुपालन से जुड़ा प्रयोग
प्राकृतिक खेती के साथ-साथ बीर सिंह ने पशुपालन को भी जोड़ा। वह बताते हैं कि गोबर और गौमूत्र से बने घन जीवामृत और जीवामृत खेतों के लिए बेहद फ़ायदेमंद साबित हुए हैं। इनसे मिट्टी की उर्वरता भी बढ़ती है और लागत भी काफी कम होती है। ख़ास बात यह है कि अब उनके खेतों में बेमौसम बारिश या बीमारी का असर भी कम देखने को मिलता है।
ख़र्च घटा और मुनाफ़ा बढ़ा
रसायन वाली खेती में जहां हजारों रुपये ख़र्च करने के बाद भी मुनाफ़ा कम था, वहीं अब प्राकृतिक खेती से ख़र्च आधा और मुनाफ़ा दोगुना हो गया है। पहले रसायन आधारित खेती में ख़र्च लगभग 40,000 रुपये था। जबकि अब प्राकृतिक खेती में ख़र्च मात्र 10,000 रुपये और आमदनी भी बढ़ गयी है।
सोशल मीडिया से किसानों को जोड़ना
बीर सिंह केवल अपनी खेती तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि अन्य किसानों को भी प्रेरित कर रहे हैं। वे फेसबुक और यूट्यूब का सहारा लेकर प्राकृतिक खेती की जानकारी साझा करते हैं। उनकी पोस्ट और वीडियो देखकर कई किसान उनसे जुड़ते हैं और सवाल पूछते हैं। इस तरह वे नए किसानों को भी प्राकृतिक खेती के लिए प्रेरित कर रहे हैं।
भविष्य की योजना
बीर सिंह का सपना है कि वे अपने खेतों को जीवंत मॉडल फ़ार्म के रूप में विकसित करें। यहां वे फल, सब्जियां और अनाज सभी प्राकृतिक खेती पद्धति से उगाना चाहते हैं। उनकी कोशिश है कि खेतों में शुद्ध खान–पान की उपलब्धता हो और आने वाली पीढ़ी को रसायन मुक्त भोजन मिल सके।
निष्कर्ष
बीर सिंह की कहानी हमें यह सिखाती है कि बदलाव की शुरुआत छोटी ज़मीन से भी की जा सकती है। मेहनत और सही तकनीक अपनाने से प्राकृतिक खेती न केवल किसान की आय बढ़ाती है बल्कि सेहत और पर्यावरण दोनों को सुरक्षित रखती है।
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