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धीरे-धीरे ही सही किसान प्राकृतिक खेती (Natural Farming) की ओर आ रहे हैं, हालांकि ऐसे किसानों की संख्या अभी चुनिंदा ही है, मगर लखनऊ के रहने वाले मनोज कुमार सिंह के खेती के स्मार्ट तरीके देखकर यकीनन युवा किसान भी उनका मॉडल अपनाना चाहेंगे। दरअसल, प्रगतिशील किसान मनोज कुमार सिर्फ़ किसी एक फ़सल को उगाने की बजाय एक साथ ही कई फ़सलों की खेती करते हैं और वो भी पूरी प्राकृतिक तरीके से। अपने खेती के अनोखे तरीके और प्राकृतिक खेती (Natural Farming) के बारे में उन्होंने विस्तार से चर्चा की किसान ऑफ इंडिया के संवाददाता सर्वेश बुंदेली से।
कब की शुरुआत? (When did it start?)
मनोज कुमार खेती तो 1994 से ही कर रहे हैं, मगर रासायनिक तरीके से। वो कहते हैं कि रासायनिक खेती में उत्पादन अच्छा हो रहा था, मगर 2019 में उनके एक रिश्तेदार जो खुद भी प्राकृतिक खेती (Natural Farming) करते हैं, उन्होंने मनोज कुमार को इस खेती के लिए प्रेरित किया और उनके कहने पर ही उन्होंने जैविक खेती की शुरुआत की। उनके दिए बीज से ही मनोज कुमार ने जैविक खेती की शुरुआत की और अब तो वो खुद ही बीज भी बना रहे हैं।
2019 में जब उन्होंने प्राकृतिक खेती (Natural Farming) शुरू की तो सबसे पहले खेत के किनारे पर इन्होंने महोगनी के पेड़ लगाए और फिर साइड में नाली खुदवाई ताकी दूसरों के खेत से यूरीया और अन्य रसायन बहकर उनके खेतों में न आए। फिर आम, अमरूद, आंवला और बीच-बीच में नींबू के पेड़ लगाए हैं ताकि कीट आदि का प्रकोप कम रहे।
गन्ने के साथ सह फ़सलें (co-cropping with sugarcane)
मनोज कुमार खेती के पारपंरिक तरीके से हटकर सह फ़सली खेती में विश्वास रखते हैं, तभी तो उन्होंने अपने हर खेत में एक से अधिक फ़सलें लगाई हुई है। वो 3 एकड़ में प्राकृतिक खेती (Natural Farming) कर रहे हैं। जिसमें गन्ने का खेत भी शामिल है। मनोज बताते हैं कि गन्ने को पंक्ति से पंक्ति 9 फीट की दूरी पर लगाया है और बीच की जगह में धान लगाया हुआ है।
उन्होंने उड़ीसा का धान लगाया है जो वहां तो 60 दिन में तैयार हो जाता है, मगर बारंबाकी में 90 दिनों में तैयार होता है। धान के बाद वो इसमें मसूर, उड़द आदि भी लगाते हैं। इस तरह गन्ने की फ़सल तैयार होते-होते तीन फ़सलें और मिल जाती है।
सरसों के साथ सब्ज़ियां (Vegetables with mustard)
गन्ने के असावा उन्होंने सरसों के खेत में भी सरसों के साथ कई तरह की सब्ज़ियां लगाई हुई है। वो बताते हैं कि सरसों के खेत के किनारे-किनारे एक सब्ज़ी लगाई है जिसे बकल कहते हैं, इससे छीमियां आती है मटर की तरह, तो पहले इसकी हरी सब्ज़ी बनती है और फिर इसकी फलियों से दाल बनती है। और इसका बेसन बनाकर जीवामृत में इस्तेमाल किया जाता है।
इसके अलावा राजमा, हरी धनिया और मीठी मटर भी सरसों के खेत में लगी हुई है और खेतों की मेड़ पर मूली की फ़सल लगाई है। एक साथ कई फ़सलों को लगाने की प्रक्रिया को सहफ़सली खेती कहते हैं। इस बारे में मनोज कुमार का कहना है कि एक सभी फ़सल एक दूसरे की पूरक हैं। कोई फ़सल नाइट्रोजन फिक्सिंग का काम करती है, तो किसी को नाइट्रोजन की ज़्यादा ज़रूरत होती है।
केले के साथ सब्ज़ियां (Vegetables with bananas)
मनोज कुमार ने खेत के किनारे-किनारे केला भी लगाया हुआ है और बीच की जगह में पिछले साल तो मिर्ची, बैंगन टमाटर लगाया था, इस बार सोया, मेथी, पालक लगाया हुआ है। वो कहते हैं कि एक बार केला लगा दिया, तो फल काटने के बाद पेड़ खत्म हो जाता है। ऐसे में पेड़ को छोटे टुकड़ों में काटकर गड्ढे में डाल दिया जाता है, इससे खाद तैयार करने में इस्तेमाल किया जाता है।
केले की को आमतौर पर नवंबर और बारिश के मौसम में भी लगाया जाता है। वो केले के पेड़ को 6-8 फीट की दूरी पर लगाते हैं ताकि बीच में दूसरी फ़सल लगा सके। उन्होंने केले की तीन वैरायटी जी 9, चीनिया केला और गोंडा का सब्ज़ी वाला लगाया है।
जीवामृत के लिए टैंक (Tank for Jeevamrut)
खेत में ही उन्होंने जीवामृत बनाने के लिए टैंक बनाय हुआ है जिसमें अतिरिक्त गोबर, खेत के अपशिष्ट, केले के सड़ा हुआ पेड़, जीवामृत के नीचे बचा हिस्सा जब डाल देते हैं। जीवामृत स्प्रे के लिए उन्होंने पोर्टेबल स्प्रे पंप लगाया हुआ है।
आलू की खेती (Potato cultivation)
मनोज कुमार सेम, लौकी, कद्दू, करेला, नेनुआ, तुरई, परवल जैसी सब्ज़ियां की खेती तो कर ही रहे हैं। साथ ही उन्होंने अपने खेत में आलू भी लगाया हुआ है और इसकी खास बात ये है कि आलू के साथ नाइट्रोजन फिक्सिंग के लिए चने की बुवाई की है। वो बताते हैं कि चना और आलू लगाने के बाद फ़सल को पराली से ढंक दिया जिससे नमी कम न हो और बार-बार सिंचाई की ज़रूरत न पड़े। इससे खरपतवार भी कम निकलते हैं या निकलते ही नहीं हैं। खेत से पानी निकलने के लिए एक पतली नाली बनाई है। उन्होंने आलू की ख्याती किस्म लगाई है जो कि देसी किस्म है और 90 दिन बाद तैयार हो जाती है।
रासायनिक और प्राकृतिक में अंतर (Difference between chemical and natural)
मनोज कुमार का कहना है कि रासायनिक और प्राकृतिक खेती (Natural Farming) में जमीन आसमान का अंतर है। एक कहावत है न कि जो जैसा खाएगा अन्न वैसा ही होगा उसका मन। रासायनिक फ़सलों का खाकर इंसान बीमार पड़ता है जबकि प्राकृतिक फ़सलें सेहत को दुरुस्त रखती है। हां, प्राकृतिक खेती (Natural Farming) में पैदावार थोड़ी कम होती है, मगर ये खाने से बीमारी नहीं होगी।
उनका कहना है कि उनका पूरा परिवार सिर्फ़ प्राकृतिक तरीके से उगाई सब्ज़ियां और अनाज ही खाता है। वो बताते हैं कि जब वो रासायनिक खेती करते थे तो एक बीघा में 20 क्विंटल धान काटते थे, लेकिन प्राकृतिक खेती (Natural Farming) के पहले साल में सिर्फ़ 2 क्विंटल धान का ही उत्पादन हुआ था। मगर धीरे-धीरे उत्पादन बढ़ने लगता है।
कुछ खास किस्में (Some special varieties)
मनोज कुमार ने अपने खेत में फ़सलों की कुछ खास किस्में लगा रखी है जिसमें एक है काला चावल। उनका कहना है कि जो लोग एक बार उनके यहां से ये ले जाते हैं, वो बार-बार वही चावल मांगते हैं। इसके अलावा उनके पास कठिया गेहूं, चावल काठा, पैगंबरी या सोना मोती गेहूं की वैरायटी भी है। वो कहते हैं कि वो गेहूं के बीज और आटा भी उपलब्ध कराते हैं। यही नहीं डॉक्टर की सलाह पर गेहूं में जौ और चना मिक्स करवा आटा तैयार करते हैं, जो बहुत ही पौष्टिक होता है।
कितना होता है मुनाफा? (How much is the profit?)
मनोज कुमार कहते हैं कि यदि कोई ठीक तरह से जैविक खेती करे तो 4-5 लाख रुपए प्रति एकड़ के हिसाब से कमाई कर सकता है। जहां तक उनकी बात है तो वो अलग-अलग फ़सलों को अलग कीमत पर बेचत हैं। जैसे वो सरसों से तेल निकालेत हैं और उसे 300 रुपए प्रति लीटर की दर से बेचते हैं, हरी सब्ज़ियां वो 60 रुपए किलो बेचते हैं चाहे बाज़ार भाव कुछ भी हो।
चावल के किस्म के हिसाब से उनकी कीमत अलग-अलग है जैसे काला नमक चावल 250 रुपए प्रति किलो, नन चुनिया बासा 200 रुपए प्रति किलो, कल्पना 70 रुपए, जयश्रीराम 100 रुपए प्रति किलो के हिसाब से बेचते हैं। उनका कहना है कि उनकी फ़सल पूरी तरह से कुदरती है और उसे जैविक प्रमाण पत्र भी मिला हुआ है।
प्राकृतिक खेती (Natural Farming) के लिए करीब 10 अवॉर्ड जीतने वाले मनोज कुमार का कहना है कि रसायनिक खेती करने से आगे समस्याए और बढ़ेगी और ये जानते हुए भी लोग इसे कर रहे हैं, क्योंकि इसमें जैविक की तुलना में मेहनत कम लगती है। साथ ही प्राकृतिक खेती (Natural Farming) के लिए बाज़ार भी एक समस्या है। जैविक फ़सलें थोड़ी महंगी होती है। इसके लिए सरकार को किसानों की मदद करने के साथ ही लोगों में भी जागरुकता फैलाने की ज़रूरत है।
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