प्राकृतिक खेती से गांव में नई पहचान बना रहे हैं हिमाचल के रहने वाले रोहित सापड़िया

प्राकृतिक खेती अपनाकर रोहित सापड़िया ने कैसे अपनी ज़िंदगी बदली, ख़र्च कम किया और दूसरों को भी खेती की ओर प्रेरित किया, जानिए।

प्राकृतिक खेती Natural Farming

आज के समय में ज़्यादातर युवा पढ़ाई पूरी करने के बाद शहरों की ओर रुख करते हैं। वे अच्छी नौकरी की तलाश में गांव-घर छोड़कर बड़ी-बड़ी कंपनियों में करियर बनाने का सपना देखते हैं। ऐसे में खेती-बाड़ी से उनका लगाव धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। उन्हें लगता है कि खेती में मेहनत तो बहुत है, लेकिन मुनाफ़ा कम।

लेकिन हिमाचल प्रदेश के नगरोटा बगवां के लिली गांव के रहने वाले रोहित सापड़िया ने इस आम सोच को गलत साबित कर दिया है। उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी शहरों में नौकरी की बजाय अपने गांव लौटने का फ़ैसला किया। रोहित ने पारंपरिक खेती छोड़कर प्राकृतिक खेती को अपनाया। उनकी यह सोच न सिर्फ़ उनके लिए फ़ायदेमंद साबित हुई, बल्कि उन्होंने इससे अच्छी कमाई भी की। आज रोहित न सिर्फ़ खुद सफल किसान हैं, बल्कि वे औरों के लिए एक प्रेरणा स्रोत भी बन चुके हैं। खासकर युवाओं के लिए, जो गांव में रहकर कुछ नया करना चाहते हैं।

परिवार की उम्मीदों के बीच लिया बड़ा फ़ैसला

जब रोहित ने खेती करने का फ़ैसला किया, तब यह कदम हर किसी को समझ नहीं आया। परिवार के कई सदस्य चाहते थे कि रोहित पढ़ाई पूरी करने के बाद किसी अच्छी नौकरी में लग जाए। सबकी उम्मीद थी कि वह शहर जाकर कोई बड़ा अफसर या कर्मचारी बनेगा। लेकिन रोहित का मन कभी भी शहरों की भीड़भाड़, तेज़ रफ्तार जिंदगी और तनाव भरे माहौल में नहीं लगा।

उन्होंने साफ कहा – “जब घर पर रहकर, अपने खेतों में मेहनत करके ही अच्छी आमदनी हो सकती है, तो फिर बाहर जाने की क्या जरूरत है?” यही सोच उनके फैसले की सबसे बड़ी ताकत बनी। रोहित ने ये दिखा दिया कि अगर इरादे मजबूत हों और सोच साफ हो, तो गांव में रहकर भी एक सम्मानजनक और सफल जीवन जिया जा सकता है।

प्रशिक्षण से मिली नई दिशा

साल 2020 रोहित की जिंदगी में एक नया मोड़ लेकर आया। उसी साल उन्होंने प्राकृतिक खेती पर आधारित एक प्रशिक्षण शिविर में हिस्सा लिया। इस शिविर का आयोजन आत्मा परियोजना के तहत किया गया था, जिसमें कई कृषि विशेषज्ञों ने हिस्सा लिया। यहाँ रोहित को खेती की उन तकनीकों के बारे में जानने और समझने का मौका मिला, जिनका इस्तेमाल रसायनों के बिना किया जा सकता है।

उन्हें यह सिखाया गया कि गाय के गोबर, गौमूत्र और खेत में ही मिलने वाली जैविक चीज़ों से बढ़िया खाद और प्राकृतिक कीटनाशक तैयार किए जा सकते हैं। साथ ही यह भी बताया गया कि इनसे न सिर्फ़ मिट्टी की सेहत बनी रहती है, बल्कि लागत भी बहुत कम आती है। इस प्रशिक्षण ने रोहित की सोच को पूरी तरह बदल दिया। उन्होंने ठान लिया कि अब वे केवल और केवल प्राकृतिक खेती ही करेंगे — न कोई रासायनिक खाद, न कोई जहरीले कीटनाशक।

धीरे-धीरे बनी पहचान

प्राकृतिक खेती का रास्ता आसान नहीं था, लेकिन रोहित ने कभी हार नहीं मानी। उन्होंने आत्मा परियोजना की टीम से लगातार मार्गदर्शन लिया और धीरे-धीरे अपनी खेती की पद्धति में बदलाव लाना शुरू किया। शुरूआत में कई परेशानियां आईं — खेत की उपज पहले जैसी नहीं रही, गांव के कुछ लोगों ने सवाल भी उठाए, और कई बार खुद को भी संदेह हुआ कि क्या यह फ़ैसला सही था।

लेकिन रोहित ने धैर्य नहीं खोया। उन्होंने हर चुनौती को सीखने का एक मौका समझा और निरंतर मेहनत करते रहे। उनके खेतों में जैविक खाद और प्राकृतिक कीटनाशकों का असर धीरे-धीरे दिखने लगा — मिट्टी की गुणवत्ता सुधरी, फ़सलों में चमक आई और उत्पादन भी बेहतर होने लगा। आज रोहित की पहचान एक सफल और समर्पित किसान के रूप में हो चुकी है, जो प्राकृतिक खेती को न सिर्फ़ अपनाए हुए हैं, बल्कि दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित कर रहे हैं। उनके गांव और आसपास के क्षेत्रों में उन्हें एक उदाहरण के रूप में देखा जाता है।

खेती में फ़सलें और आमदनी

रोहित के पास कुल 5 कनाल (करीब 2.5 बीघा) ज़मीन है। इस ज़मीन का सदुपयोग वे बहुत समझदारी से कर रहे हैं। इनमें से 2 कनाल (यानि लगभग 1 बीघा) पर उन्होंने पूरी तरह से प्राकृतिक खेती शुरू की है। बाकी ज़मीन पर भी वे धीरे-धीरे जैविक पद्धति अपनाने की दिशा में काम कर रहे हैं।

उनकी खेती में कई तरह की मौसमी और सब्जियों की फ़सलें होती हैं। मुख्य रूप से वे गेहूं, मक्का (मकई), मटर, गोभी, बैंगन, आलू और शिमला मिर्च उगाते हैं। इन फ़सलों को वे पूरी तरह देसी तरीकों से उगाते हैं, जिसमें किसी भी प्रकार के रासायनिक खाद या कीटनाशक का उपयोग नहीं किया जाता। इन सब्जियों और अनाजों को वे स्थानीय बाज़ार में बेचते हैं, जहां लोगों में जैविक उत्पादों की मांग तेजी से बढ़ रही है। इससे उन्हें अच्छी आमदनी भी होने लगी है और ग्राहकों का भरोसा भी मिला है।

प्राकृतिक खेती से गांव में नई पहचान बना रहे हैं हिमाचल के रहने वाले रोहित सापड़िया

आर्थिक विवरण:

  • रासायनिक खेती: ख़र्च ₹20,000
  • प्राकृतिक खेती: ख़र्च ₹15,000 

प्राकृतिक खेती न केवल ख़र्च घटाती है बल्कि आय को भी बढ़ाती है।

बाज़ार की चुनौतियां और समाधान

रोहित बताते हैं कि रासायनिक खेती में सबसे बड़ी समस्या है – उत्पाद जल्दी ख़राब हो जाते हैं। जबकि प्राकृतिक खेती से पैदा हुई फ़सलें लंबे समय तक सुरक्षित रहती हैं। यही कारण है कि उन्हें बाज़ार में अच्छे दाम भी मिलते हैं।

युवाओं को खेती की ओर प्रेरित करना

रोहित आज सिर्फ़ खुद ही नहीं बल्कि आसपास के 100 से ज़्यादा लोगों को  प्राकृतिक खेती के फ़ायदे बता चुके हैं। वे गांव-गांव जाकर युवाओं को समझाते हैं कि खेती ही हमारे देश की असली रीढ़ है। अगर युवा पीढ़ी खेती से जुड़ जाएगी तो स्वास्थ्य, पोषण और रोज़गार – तीनों समस्याओं का हल निकलेगा।

रोहित का संदेश

रोहित कहते हैं –
“जब घर पर रहकर ही अच्छी कमाई की जा सकती है तो शहरों की ओर क्यों जाना? घर में परिवार का साथ, शुद्ध हवा और ताजा भोजन मिलता है। यही असली सुख है।”

निष्कर्ष

रोहित सापड़िया की यह कहानी बताती है कि अगर सही सोच और मेहनत हो तो खेती को भी सुनहरे भविष्य का जरिया बनाया जा सकता है। प्राकृतिक खेती न केवल ख़र्च कम करती है बल्कि मिट्टी और पर्यावरण को भी सुरक्षित रखती है। रोहित आज क्षेत्र के युवाओं के लिए प्रेरणा हैं और उनकी यह यात्रा आने वाले समय में और भी किसानों को नई राह दिखाएगी।

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