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हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा ज़िले के बल्लाह गांव और इसके आसपास के इलाकों में आज भी अधिकतर किसान पारंपरिक तरीके से अनाज की खेती करते हैं। गेहूं, धान जैसी फ़सलें यहां के खेतों में आमतौर पर देखने को मिलती हैं। लेकिन इन्हीं खेतों के बीच एक महिला किसान, श्रेष्ठा देवी, ने कुछ अलग करने की ठानी और खेती को एक नई दिशा दी।
उन्होंने पारंपरिक फ़सलों की जगह सब्ज़ियों की खेती को अपनाया और ख़ास बात यह रही कि यह खेती उन्होंने प्राकृतिक तरीके से शुरू की। बिना रासायनिक खाद और कीटनाशकों के, उन्होंने अपने खेत में जैविक विधियों का इस्तेमाल किया, जिससे मिट्टी की उर्वरता भी बनी रही और स्वास्थ्यवर्धक फ़सलें तैयार हुईं।
सिर्फ़ 5 कनाल (करीब 2.5 बीघा) ज़मीन पर मेहनत और समझदारी के साथ काम कर के श्रेष्ठा देवी ने यह साबित कर दिया कि अगर सोच नई हो और इरादा मज़बूत, तो कम ज़मीन में भी खेती को लाभदायक और टिकाऊ बनाया जा सकता है। आज वे अपने क्षेत्र में प्राकृतिक खेती की एक मिसाल बन चुकी हैं। दूसरे किसान भी उनकी सफलता से प्रेरणा ले रहे हैं और प्राकृतिक खेती की ओर कदम बढ़ा रहे हैं।
रासायनिक खेती के नुक़सान (Disadvantages of chemical farming)
श्रेष्ठा देवी बताती हैं कि जब उन्होंने खेती की शुरुआत की थी, तब वे भी अन्य किसानों की तरह रासायनिक खाद और कीटनाशकों का ही इस्तेमाल करती थीं। शुरुआत में लगा कि इससे फ़सलें जल्दी तैयार हो जाएंगी और पैदावार भी ज़्यादा होगी। लेकिन कुछ समय बाद उन्हें इसके नुक़सान समझ में आने लगे।
रासायनिक दवाइयों और खादों के लगातार उपयोग से मिट्टी की उर्वरता कम होने लगी, और फ़सलें भी पहले जैसी स्वस्थ नहीं रहीं। हर साल उन्हें दवाइयों पर लगभग 45,000 रुपये ख़र्च करने पड़ते थे, फिर भी उनकी सब्ज़ियां तरह-तरह की बीमारियों की चपेट में आ जाती थीं। इससे उत्पादन भी प्रभावित हुआ और आमदनी भी घटने लगी।
इन्हीं परेशानियों के कारण श्रेष्ठा देवी ने 2018 में प्राकृतिक खेती का प्रशिक्षण लिया। प्रशिक्षण के दौरान उन्होंने सीखा कि बिना रसायन के भी अच्छी खेती की जा सकती है, और वो भी कम ख़र्च में। इसके बाद उन्होंने अपने खेत में प्राकृतिक खेती को अपनाने का साहसिक फ़ैसला किया – और यही निर्णय उनके जीवन में एक नया मोड़ लेकर आया।
प्राकृतिक खेती की शुरुआत (Starting of Natural farming)
जब श्रेष्ठा देवी ने प्राकृतिक खेती को अपनाने का मन बनाया, तो उन्होंने सबसे पहले आधा कनाल ज़मीन पर एक छोटा-सा प्रयोग किया। वे देखना चाहती थीं कि बिना रासायनिक खाद और दवाइयों के फ़सलें कितनी अच्छी होती हैं। इस छोटे से प्रयास के नतीजे उम्मीद से कहीं बेहतर निकले। फ़सलें न सिर्फ़ स्वस्थ थीं, बल्कि स्वाद और गुणवत्ता में भी शानदार थीं। इस सकारात्मक अनुभव के बाद उन्होंने हिम्मत बढ़ाई और अपने पूरे 5 कनाल खेत में पूरी तरह से प्राकृतिक खेती शुरू कर दी। अब उनके खेतों की तस्वीर बदल चुकी है।
आज उनके खेत में एक ही सीजन में करीब 12 तरह की सब्ज़ियां उगाई जाती हैं। इनमें शामिल हैं – टमाटर, प्याज, मटर, लहसुन, गोभी, मूली, शलजम, पालक, भिंडी, बैंगन और कई अन्य हरी सब्ज़ियां। हर फ़सल में प्राकृतिक स्वाद और पोषण का भरपूर मेल देखने को मिलता है। श्रेष्ठा देवी का खेत अब सिर्फ़ खेती का नहीं, बल्कि सीखने और प्रेरणा का भी केंद्र बन गया है।
आय और मेहनत का संतुलन (Balance of income and work)
श्रेष्ठा देवी कहती हैं कि प्राकृतिक खेती से उनकी आमदनी पहले से ज़्यादा हो गई है।
- रासायनिक खेती – ख़र्च 45,000 रुपये
- प्राकृतिक खेती – ख़र्च सिर्फ़ 20,500 रुपये
यानी ख़र्च लगभग आधा हो गया लेकिन उत्पादन और दाम लगभग वही रहे। यही वजह है कि उनकी बचत कई गुना बढ़ गई।
बाजार में प्राकृतिक सब्ज़ियों की पहचान (Identifying natural vegetables in the market)
प्राकृतिक खेती से उगाई गई सब्ज़ियों की सबसे बड़ी ख़ासियत है कि वे ताज़ी, स्वादिष्ट और सुरक्षित होती हैं। यही कारण है कि श्रेष्ठा देवी की सब्ज़ियों की बाज़ार में अच्छी मांग रहती है। जो भी ग्राहक उनकी उपज लेता है, वह बार-बार खरीदने आता है।
किसानों के लिए प्रेरणा (Inspiration for farmers)
श्रेष्ठा देवी की मेहनत और सोच ने उन्हें इलाके में अलग पहचान दी है। अब उनके आसपास के 100 से ज़्यादा किसान भी उनसे प्रेरित होकर प्राकृतिक खेती अपनाने लगे हैं। युवाओं के लिए भी उन्होंने एक मिसाल कायम की है। कांगड़ा ज़िले का युवा किसान मंच हाल ही में 6 महीने का प्रशिक्षण कार्यक्रम चला रहा है, जहां श्रेष्ठा देवी ने भी प्राकृतिक खेती के गुर साझा किए।
महिलाओं को कर रही हैं जागरूक (Women are being made aware)
श्रेष्ठा देवी का कहना है –
“मैं प्राकृतिक खेती से ख़ासकर महिलाओं को जागरूक करने की कोशिश कर रही हूं। मेरी देखादेखी अब कई महिलाएं भी प्राकृतिक खेती की राह पर चल रही हैं।”
उनकी कोशिशों का असर साफ दिखाई देता है। आज दर्जनों महिलाएं उनके साथ जुड़कर इस विधि को अपना रही हैं और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो रही हैं।
प्राकृतिक खेती से भविष्य सुरक्षित (Natural farming is a safe future)
श्रेष्ठा देवी का मानना है कि प्राकृतिक खेती न सिर्फ़ ख़र्च कम करती है बल्कि मिट्टी की उर्वरकता और ज़मीन की सेहत को भी सुरक्षित रखती है। यह आने वाली पीढ़ियों के लिए एक स्वस्थ विकल्प है।
निष्कर्ष (Conclusion)
श्रेष्ठा देवी की कहानी हमें यह सिखाती है कि अगर संकल्प मज़बूत हो तो खेती में भी बदलाव लाया जा सकता है। प्राकृतिक खेती से न सिर्फ़ ज़मीन और फ़सल सुरक्षित रहती है, बल्कि किसान की आमदनी भी बढ़ती है। आज श्रेष्ठा देवी का अनुभव कांगड़ा ज़िले ही नहीं बल्कि पूरे प्रदेश के किसानों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन चुका है।
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