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सरसों, रबी सीज़न की तिलहनी फ़सल है। क्षेत्रफल तथा उत्पादन, दोनों ही दृष्टि से, भारत की प्रमुख तिलहनी फ़सलों में सरसों का प्रमुख स्थान है। इसकी खेती मुख्य रूप से राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और मध्य प्रदेश में की जाती है। कम सिंचाई और न्यूनतम लागत की वजह से सरसों की खेती से किसानों को अन्य फ़सलों की अपेक्षा ज़्यादा मुनाफ़ा होता है।
आमतौर पर रासायनिक खाद के इस्तेमाल से पैदा की जाने वाली सरसों की उत्पादकता के मुक़ाबले जैविक खेती की उत्पादकता को कम माना जाता है। लेकिन भोपाल स्थित ICAR-भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान ने सरसों की फ़सल को लेकर क़रीब दस साल तक व्यापक शोध करके पाया कि जैविक खेती से न सिर्फ़़ सरसों की भरपूर उपज पायी जा सकती है, बल्कि इसे साल दर साल बढ़ाया भी जा सकता है।
जैविक खेती की विशेषता
जैविक खेती, पर्यावरण के अनुकूल है। इससे संसाधनों के सीमित उपयोग और पुनः उपयोग को प्रोत्साहन मिलता है। जैविक खाद और कीट-रोग की दवाईयों का उत्पादन भी किसान घरेलू स्तर पर ही कर लेते हैं। इससे उत्पादन लागत घटती है। जैविक कचरे के उचित प्रबन्धन से प्राकृतिक सन्तुलन को मदद मिलती है। मिट्टी में कार्बनिक कार्बन और पोषक तत्वों के बढ़ने से नमी सोखने की क्षमता और उपजाऊपन में सुधार होता है। खेत में झड़कर मिलने वाली सरसों की पत्तियाँ मिट्टी में मौजूद लाभदायक जीवों की क्रियाशीलता और उर्वरा को बढ़ाती हैं। इस तरह, मिट्टी के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों में सुधार होता है।
जैविक उपज का बढ़िया दाम
सरसों की जैविक खेती (Bio mustard farming) को भी दो फ़सलीय और मिश्रित खेती रूप में आसानी से अपनाया जा सकता है। जैविक और प्राकृतिक खेती से उपजाये गये खाद्य पदार्थों की माँग सालाना 20 से 25 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। बाज़ार में इसका बढ़िया दाम मिलता है। प्राकृतिक रूप से भारत के बड़े भूभाग पर जैविक खेती ही होती है।
इसलिए वैश्विक जैविक खाद्य उत्पादों के लिहाज़ से भारत में एक प्रमुख और स्वाभाविक आपूर्तिकर्ता बनने की पर्याप्त क्षमता मौजूद है। शोध में जैविक खेती वाले सरसों की पैदावार शुरुआत में जहाँ 1,003 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर पायी गयी, वहीं साल दर साल बढ़ते हुए ये 1,170 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक जा पहुँची। शोध में पोषण प्रबन्धन, उन्नत कृषि तकनीक और कीट-रोग रोकथाम का विशेष ध्यान रखा गया।
सूखे के प्रति सहिष्णु सरसों
सरसों के पौधे सूखे के प्रति सहिष्णु होते हैं। इसीलिए सरसों की जैविक खेती (Bio mustard farming), नमी भरी और शुष्क, दोनों तरह जलवायु में हो सकती है। हालाँकि, ज़्यादा तेल उत्पादन के लिए सरसों को ठंडा तापमान, साफ़ और खुला आसमान तथा मिट्टी में पर्याप्त नमी की ज़रूरत होती है। उचित जल निकास वाली बलुई और दोमट मिट्टी में सरसों की फ़सल अच्छी उपज देती है। अत्यधिक अम्लीय और क्षारीय मिट्टी, सरसों की खेती के लिए उपयुक्त नहीं है। हालाँकि, क्षारीय मिट्टी में हर तीन साल में 5 टन प्रति हेक्टेयर की दर से जिप्सम डालने के बाद उपयुक्त किस्म के बीजों के साथ सरसों की लाभदायक खेती की जा सकती है।
सरसों की सही किस्म का चयन
जैविक खेती में सरसों की विभिन्न किस्मों को अलग-अलग परिस्थितियों के लिए बेहद अनुकूल पाया गया है। मसलन, बारानी क्षेत्र में समय पर बुआई के लिए अरावली, RH 819, गीता और RB 50 किस्म उपयुक्त है तो सिंचित क्षेत्र में समय पर बुआई के लिए पूसा-जय किसान, रोहिणी, RH 30. बसन्ती और पूसा बोल्ड किस्म की सिफ़ारिश की गयी है। इसी तरह, अगेती बुआई वाली किस्में हैं – पूसा अग्रणी, क्रान्ति, पूसा महक और नरेन्द्र अगेती राई-4, तो देर से बुआई के लिए नव गोल्ड, शताब्दी और स्वर्ण जयन्ती किस्म को उपयुक्त पाया गया है। लवणीय मिट्टी के लिए CS 54, CS 52 और नरेन्द्र राई-1 को इस्तेमाल करना चाहिए।
खेत की तैयारी और बुआई
सरसों की जैविक खेती (Bio mustard farming) में शानदार उपज पाने के लिए चयनित खेत में पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें। फिर अगली एक से दो जुताई कल्टीवेटर से करके और पाटा लगाकर खेत की मिट्टी को भुरभुरा बनाना चाहिए। सरसों की बुआई के लिए सितम्बर के अन्तिम सप्ताह से लेकर अक्टूबर के अन्तिम सप्ताह तक की अवधि सबसे बढ़िया होती है। बुआई के वक़्त तापमान 26 से 30 डिग्री सेल्सियस के बीच होना चाहिए। यदि तापमान इससे ज़्यादा हो तो बुआई में देरी करके उपयुक्त दिनों का इन्तज़ार करना चाहिए।
जैविक खाद का प्रबन्धन
सरसों की जैविक खेती (Bio mustard farming) के लिए डेढ़ से दो महीने तक सड़ी हुई देसी गोबर या कुक्कुट खाद के अलावा केंचुआ खाद में से कोई एक, दो या सभी खाद का स्थानीय उपलब्धता के आधार पर सम्मिलित रूप से उपयोग करें। इनकी मात्रा इतनी होनी चाहिए जिससे खेत को कम से कम 60 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की आपूर्ति हो सके। इतनी नाइट्रोजन के लिए प्रति टन क़रीब 10 टन गोबर की खाद या क़रीब 4 टन कुक्कुट खाद या क़रीब 5 टन केंचुआ खाद की ज़रूरत पड़ेगी। खाद को बुआई से 10-15 दिन पहले ही खेत में समान रूप से बिखेरकर क़रीब 15 सेंटीमीटर गहरायी तक मिट्टी में अच्छी तरह मिला देना चाहिए।
बीजोपचार और बुआई
वातावरण में मौजूद नाइट्रोजन के प्रभावी स्थिरीकरण के लिए सरसों की जैविक खेती (Bio mustard farming) के बीजों को एजोस्पाइरिस्लम और फॉस्फोरस के विलयकारी जीवाणु कल्चर से बीजोपचार करना बहुत ज़रूरी है। इसके लिए प्रति किलोग्राम बीज के लिए 5-5 ग्राम की दर से जीवाणु कल्चर का उपयोग करना चाहिए। सरसों की फ़सल को स्कलेरोशिया गलन रोग के प्रकोप से बचाने के लिए लहसुन का 2 प्रतिशत अर्क भी बीजोपचार के लिए बेहद उपयुक्त पाया गया है।
बीज की मात्रा प्रति हेक्टेयर 4 से 5 किलोग्राम रखना चाहिए। बुआई के वक़्त पंक्ति से पंक्ति के बीच की 30 से 45 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 10 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। बीजों को 2-2.5 सेंटीमीटर से ज़्यादा गहराई पर नहीं बोना चाहिए। सूखे के प्रति सहिष्णुता के गुण को देखते हुए सरसों के पौधों की सिंचाई खेत की नमी, बीज और मिट्टी की किस्म को ध्यान में रखते हुए करनी चाहिए। पहली सिंचाई 30 से 40 दिनों के बीच तब करें जब फूल बनने के समय आये और दूसरी सिंचाई 60 से 70 दिनों के बीच तब करें जब फली बनने का वक़्त हो।
कीट प्रबन्धन
सरसों की फ़सल में लगने वाले प्रमुख कीट आरा मक्खी, चितकबरा कीट, चेंपा, लीफ माइनर और बिहार हेयरी केटरपिलर हैं। इनसे बचाव के लिए सबसे पहले तो उन पत्तियों को तोड़कर जला देना चाहिए जिस पर प्रारम्भिक अवस्था में इनका झुंड दिखायी दे। इन कीटों के प्राकृतिक शत्रु जैसे लेडी वर्ड बीटल (कॉक्सीनेला स्पीसीज), सिरफिड (सिरफिड स्पीसीज), माहूँ आदि यदि खेत पर पर्याप्त मात्रा में होंगे तो यह परजीवी ख़ुद ही कीट नियंत्रण कर देंगे।
अन्यथा इन परजीवी कीटों के 3-4 इन्सेक्ट कार्ड का प्रति एकड़ इस्तेमाल करके कीटों पर काबू पाया जा सकता है। ऐसे जैविक कीट नियंत्रण के अलावा नीम का तेल या एजाडाइरेक्टीन के 0.03 प्रतिशत घोल का छिड़काव 45 और 60 दिनों पर करने से भी कीटों का प्रकोप नष्ट हो जाता है।
रोग प्रबन्धन
सरसों के प्रमुख रोग हैं – पर्ण चित्ती, सफ़ेद रतुआ, आसिता और तना गलना। इनसे बचाव के लिए बुआई के समय ही 5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से ट्राइकोडर्मा विरिडी को जैविक खाद के साथ उपयोग करना चाहिए। इसके अलावा बीजोपचार के समय और बुआई के 50 से लेकर 70 दिन बाद भी लहसुन के 2 प्रतिशत अर्क का प्रति लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए। रोगों से रोकथाम का सबसे अच्छा तरीका है 15 से 25 अक्टूबर के बीच यानी समय पर स्वस्थ, स्वच्छ और प्रमाणित बीजों का बुआई में उपयोग करना है।
उपज और गुणवत्ता
कृषि विज्ञानियों के एक दशक से भी लम्बे शोध और अनुसन्धान ने पाया है कि रासायनिक खेती की तुलना में सरसों की जैविक खेती (Bio mustard farming) में समान प्रक्रिया अपनाने से भी सालों-साल उपज में बढ़ोतरी होती रही है। ये वृद्धि सरसों की पोषण गुणवत्ता मानकों जैसे प्रोटीन, फिनोल और ग्लूकोसिनोलेट में भी होती जाती है।
इतना ही सरसों की कटाई के बाद मिट्टी की जाँच से पता चला कि जैविक खाद के उपयोग से मिट्टी में कार्बनिक कार्बन, फॉस्फोरस और पोटाश की मात्रा भी बढ़ी है। इसीलिए सरसों की जैविक खेती (Bio mustard farming) से उत्पादन के अलावा मिट्टी की सेहत भी बेहतर होती है। इसीलिए किसानों के लिए ये ‘आम के आम, गुठलियों के दाम’ जैसा सौदा है।
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