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जिसमें जोखिम लेने की क्षमता होती है, सफलता भी उसे ही मिलती है। मुजफ्फरनगर जिले के प्रतिशील किसान योगेश कुमार के जोखिम वहन करने की क्षमता ने ही उन्हें इनोवेटिव किसान बना दिया। गन्ने की पारंपरिक खेती से हटकर उन्होंने न सिर्फ़ प्राकृतिक तरीके से इसकी खेती की, बल्कि इसकी प्रोसेसिंग से नए-नए उत्पाद बनाकर अच्छी कमाई भी कर रहे हैं और वो इस बात पर ज़ोर देते हैं कि किसानों को अच्छी आमदनी के लिए अपने उत्पाद की प्रोसेसिंग खुद ही करनी होगी। कैसे करते हैं वो गन्ने की प्राकृतिक खेती और क्या है उनके उत्पाद? आइए, जानते हैं।
बचपन से थी खेती में दिलचस्पी (Interested in farming since childhood)
उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के रहने वाले किसान योगेश कुमार का पुश्तैनी काम ही खेती है, तो उनका कहना है कि बचपन से ही उन्हें खेती में दिलचस्पी थी। वो बताते हैं कि साल1996 में उन्होंने एग्रीकल्चर में इंटर किया और फिर 2000 में BSc एग्रीकल्चर किया। उसके बाद नौकरी करने की बजाय उन्होंने खेती का ही विकल्प चुना, मगर पारंपरिक खेती से हटकर कुछ करने की सोची।
वो बताते हैं कि कि उनके घर में गुड़ बनाने की यूनिट थी तो उन्होंने गुड़ बनने की प्रक्रिया उसे बाज़ार में कैसे बेचा जाता है, सब देखा है, इसलिए बचपन से ही उनका इस ओर रुझान था। हालांकि, उनके पिता नहीं चाहते थे कि योगेश खेती को ही पेशा चुनें, क्योंकि इसमें आय अनिश्चित होती है और जोखिम भी बहुत होता है।
मां की बीमारी ने दिखाया प्राकृतिक खेती का रास्ता (Mother’s illness showed me the way to natural farming)
प्राकृतिक खेती शुरू करने के अपने सफर के बारे में योगेश का कहना है कि उनकी मां की बीमारी की वजह से ही वो इस दिशा में आने के लिए प्रेरिति हुए। वो बताते हैं कि 2008 में उनकी मां बीमार हो गई, वो मस्तिष्क की एक दुर्लभ बीमार से पीड़ित थी, जिसका लंबा इलाज चला मगर 2012 में वो चल बसी।
डॉक्टर ने जब उन्हें बताया कि इस तरह की बीमारियां खान-पान और अनाज में इस्तेमाल होने वाले कीटनाशकों से होती है, तो फिर अपने परिवार को शुद्ध भोजन देने के लिए उन्होंने एक एकड़ में प्राकृतिक खेती की शुरुआत की। जिसमें वो गन्ना, अनाज, सब्ज़ी, फल सबकुछ उगाने लगें। 2-3 साल खेती करने के बाद उन्होंने अपने उत्पाद के सैंपल लोगों में बांटें, ताकि लोगों को प्राकृतिक उत्पादों के बारे में पता चले, फिर धीरे-धीरे मांग बढ़ने लगी तो उन्होंने 10 एकड़ में गन्ने की प्राकृतिक खेती शुरू कर दी।
योगेश कहते हैं कि आज से 50 साल पहले तक तो किसान प्राकृतिक खेती ही करता था, लेकिन फिर जब बाज़ार में रासयनिक उर्वरक आए तो अधिक उत्पादन के चक्कर में किसान इनका इस्तेमाल करने लगें। 2015 में उन्होंने भी केमिकल वाली खेती से ही शुरुआत की थी, मगर भी प्राकृतिक की ओर आ गए।
उनका कहना है कि जानकारी के अभाव में किसान कई बार कीटनाशक और उर्वरकों की निर्देशित मात्रा से 4 से 8 गुणा अधिक मात्रा फ़सलों में डाल देते हैं। कीटनाशकों के अधिक इस्तेमाल की वजह से ही लोगों में कैंसर जैसी घातक बीमारी बढ़ रही है। लोगों को स्वस्थ उत्पाद देने के मकसद से ही उन्होंने प्राकृतिक खेती की शुरुआत की और फिर उसकी प्रोसेसिंग का काम भी प्राकृतिक तरीके से करने लगें।
गन्ने की प्राकृतिक खेती की विधि (Natural method of sugarcane farming)
योगेश कुमार कहते हैं कि वो गन्ने की बुवाई ट्रेंच विधि से करते हैं जिसमें लाइन से लाइन की दूरी 5 फीट रखी जाती है। क्योंकि प्राकृतिक खेती में हर 15 दिन या महीने में अलग-अलग चीज़ों का छिड़काव करना पड़ता है ऐसे में इतनी दूरी होने से स्प्रे करने में आसानी होती है। इसका दूसरा फ़ायदा ये है कि इस विधि में पानी कम लगता है। वो कहते हैं कि आने वाले समय में पानी की समस्या होने वाली है ऐसे में ये विधि उपयुक्त है।
महाराष्ट्र में भी जहां पानी की कमी है वहां सबसे ज़्यादा चलन ट्रेंच विधि का ही है और इस विधि में उत्पादन भी अधिक होता है। इतना ही नहीं इससे बीज की भी बचत होती है। पारंपरित विधि में जहां एक हेक्टेयर में 50-60 क्विंटल बीज लगते हैं, वही इस विधि में 15-20 क्विंटल बीज ही लगता है। इस विधि से काम आधा हो जाता है और उत्पादन बराबर होता है।
गन्ना लगाने का समय (sugarcane planting time)
योगेश कुमार का कहना है कि साल में तीन बार गन्ना लगाया जाता है। मार्च, मई और अगस्त महीने में। गन्ना 12 महीने की फ़सल होती है और वो गन्ने की खेती पूरी से प्राकृतिक करते हैं और केमिकल युक्त कीटनाशकों और उर्वरकों की बजाय प्राकृतिक खेती के जो 3-4 अवयवों का इस्तेमाल करते हैं। उनका कहना है कि प्राकृतिक खेती की शुरूआत में ज़मीन को तैयार करने के लिए किसान गोबर की खाद या वर्मीकंपोस्ट डाल सकते हैं, जब ज़मीन अच्छी हो जाए तो उसे बंद कर दें।
यदि किसान पहली बार खेती कर रहा है तो पहले गोबर की खाद डाले, फिर दशपर्णी अर्क में 10 तरह के पत्तों का इस्तेमाल किया जाता है। दशपर्णी अर्क- इसे बनाने के लिए 200 लीटर के ड्रम में पानी डालें फिर उसमें एक किलो तंबाकू, एक किलो हरी मिर्च, एक किलो अदरक, एक किलो हल्दी और एक किलो लहसुन को कूटकर डालें। फिर 10 तरह के पेड़ के पत्ते 2-2 किलो पीसकर और 20 लीटर गोमूत्र मिलाएं। इसके लिए किसी भी पेड़ के पत्ते का इस्तेमाल किया जा सकता है। इस मिश्रण से सभी तरह के कीटों को नियंत्रित किया जा सकता है। इसे हर महीने सभी फ़सलों में एक बार स्प्रे किया जाता है।
प्राकृतिक खेती में जीवामृत भी बहुत ज़रूरी है- इसे बनाने के लिए 200 लीटर का ड्रम लेकर उसमें 180 लीटर पानी डालते हैं, 10 लीटर देसी गाय का गौमूत्र, 10 किलो गोबर, 1-2 किलो गुड़ और 1-2 किलो चना या किसी भी दाल का आटा और एक मुट्ठी मिट्टी (बिना केमिकल वाली) को मिलाएं। योगेश कुमार कहते हैं कि ज़मीन को पूरी तरह से केमिकल फ्री होने में 3 साल का समय लग जाता है, क्योंकि रसायन का असर मिट्टी से तुरंत नहीं जाता है। प्राकृतिक खेती में कीट लगने से पहले ही 15 दिन या महीने में गोमूत्र, नीमास्त्र आदि का स्प्रे करना होता है, क्योंकि एक बार कीट लग जाने पर फ़सल बर्बाद हो जाती है।
प्राकृतिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण (Weed control in a natural way)
योगेश कुमार बताते हैं कि गन्ने की खेती में शुरुआत में खरपतवार नियंत्रण बहुत ज़रूरी है। प्राकृतिक खेती में बिना केमिकल के सिर्फ़ निराई-गुड़ाई करके ही खरपतावरों को नियंत्रित किया जाता है। दरअसल, रासायनिक खेती में खरपतवारों के लिए ग्लाइसोफेट जैसी कई दवाओं का इस्तेमाल होता है जो सेहत के लिए बहुत हानिकारक है और कैंसर जैसी घातक बीमारी को बढ़ावा देता है।
गन्ने में वैल्यू एडिशन (value addition in sugarcane)
योगेश कुमार न सिर्फ़ गन्ना उगाते हैं, बल्कि उसकी प्रोसेसिंग से तरह-तरह के उत्पाद बनाकर भी बेच रहे हैं। वो गन्ने से कुल्फी, कोल्ड कॉफी, नेचुरल जूस बनाकर बेच रहे हैं। इसके अलावा गन्ना- अनानास का शेक, गन्ना-चीकू शेक और पपीता और गन्ने का भी शेक तैयार करते हैं। उनके उत्पाद लोगों को बहुत पसंद आ रहे हैं। इस अनोखी पहल की शुरुआत के बारे में योगेश कुमार बताते हैं कि अक्टूबर से लेकर मार्च तक वो गन्ने का गुड़ बनाते है।
मार्च के बाद गुड़ नहीं बनता क्योंकि गन्ने का सीजन खत्म हो जाता है, तो उन्होंने सोचा कि अगले 6 महीने क्या किया जाए, फिर उन्होंने गर्मियों में गन्ने का ठंडा जूस बनाया, जिसमें बर्फ नहीं मिलाते हैं, बल्कि गन्ने को डीप फ्रीजर में रखकर ठंडा जूस बनाया जाता है। इसके बाद उन्होंने कुल्फी और कोल्ड कॉफी भी बनाना शुरू किया, जिसका स्वाद लोगों को पसंद आने लगा।
केमिकल फ्री गुड़ और खांड (Chemical free jaggery and sugar)
योगेश कहते हैं कि वो गन्ने से गुड़, शक्कर, खांड आदि बिना केमिकल के बनाते हैं। अधिकांश लोग गुड़, खांड का रंग बनाए रखने के लिए केमिकल का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन जो ग्राहक प्राकृतिक चीज़ खाता है उसे पता है कि नेचुरल चीज़ है तो समय के साथ इसका रंग थोड़ा फीका पड़ेगा ही। दरअसल, गुड़ का रंग समय के साथ काला पड़ता जाता है। वो इन सबको लंबे समय तक बनाए रखने के लिए प्रिज़र्वेटिव भी नहीं डालते हैं।
उनका कहना है कि बस इन्हें अच्छी तरह से सुखाकर ठंडे स्थान पर रखना होता है। एक बार धूप में सुखाकर नमी को खत्म कर दें, क्योंकि नमी जितनी कम होगी, उत्पाद उतने ज़्यादा दिनों तक रह सकता हैं। इसे डीप फ्रीज या कोल्ड स्टोरेज में भी रखा जा सकता है। योगेश कहत हैं कि उनका गुड़ कनाडा भी जाता है।
प्रोसेसिंग में ही है पैसा (The money is in the processing)
योगश कुमार का मानना है कि आमदनी बढ़ाने के लिए किसानों को उत्पादने के साथ ही अपने उत्पाद की प्रोसेसिंग भी करनी होगी, क्योंकि तभी अच्छी कीमत मिलती है। उनका कहना है कि किसान आलू 2 रूपए किलो बेचता है, मगर उसी आलू का चिप्स बनाकर कंपनियां 200 रुपए किलो बेच रही है। इसी तरह 10 रुपए किलो बिकने वाले टमाटर का केचअप बनाकर इसे 10 गुणा अधिक कीमत पर बेचा जाता है।
वो कहते हैं कि कच्चे माल की कीमत कम ही मिलेगी ये बात किसानों को समझनी होगी और मूल्य संवर्धन के लिए आगे आना होगा। वो कहते हैं कि एक एकड़ में गन्ने की खेती की खेती से किसान 50,000 से ज़्याद नहीं कमा सकता, लेकिन उसी गन्ने का जूस बेचकर 3-5 लाख की कमाई कर सकते हैं। उनका कहना है कि अगर कोई छोटा किसान प्रोसेसिंग का काम शुरू करना चाहता है, तो वो मुफ्त में उसे सहायता प्रदान करते हैं।
शुरुआत में मुफ्त सैंपल बांटे (Distribute free samples initially)
योगेश मानते हैं कि प्राकृतिक खेती के उत्पादों को बेचना किसानों के लिए थोड़ा मुश्किल होता है, क्योंकि ये उत्पाद थोड़े महंगे होते हैं। उन्हें भी शुरुआत में बाज़ार की समस्या आई थी। पहले उन्होंने उत्पाद के सैंपल मुफ्त बांटे। वो बताते हैं कि पहले साल में 150 सैंपल बांटे थे और एक ऑर्डर मिला, लेकिन धीरे-धीरे जब लोगों ने उत्पाद इस्तेमाल किया किया और उन्हें अच्छा लगा तो बाज़ार अपने आप तैयार होने लगा।
3 साल की मेहनत के बाद उन्होंने अपने उत्पादों के लिए अच्छा खासा बाज़ार तैयार कर लिया। उनका कहना है कि इस सफर में कई लोगों ने उनकी मदद कि और ICAR से मिले अवॉर्ड से भी फ़ायदा हुआ, इससे उत्पादों की विश्वसनीयता बढ़ गई।
प्राकृतिक खेती में किसानों को किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? (What things should farmers keep in mind in natural farming?)
योगश किसानों को सलाह देते हैं कि प्राकृतिक तरीसे के खेती कर रहे हैं, तो गन्ने के लिए ट्रेंच विधि सबसे अच्छी है। साथ ही प्राकृतिक खेती में हर महीने या 15 दिन में स्प्रे करना ज़रूरी होता है तो उसके लिए भी ट्रेंच विधि सबसे उपयुक्त है। अगर कोई जूस के लिए गन्ना लगा रहा है गेहूं की कटाई के बाद मई में लगाएं, इससे ताकि मिठास देर तक बनी रहती है।
गुड़, खांड और शक्कर बनाने के लिए गन्ने को फरवरी-मार्च और अगस्त-सितंबर में लगाना चाहिए। जहां तक गन्ने की किस्मों का सवाल है तो योगेश जो भी नई किस्म आती है उसे लगा लेते हैं। वो कहते हैं गन्ने की 0118, 13235, 98014 किस्में गुड़, शक्कर खांड के लिए अच्छी है।
शुगर केन रेड रोट डिजीज का प्रबंधन (Management of Sugarcane Red Rot Disease)
बरसात के मौसम में गन्ने में शुगरकेन रेड रॉट रोग तेज़ी से फैलता है। योगेश बताते हैं कि इसके प्रबंधन के लिए वो बीजामृत बनाते हैं। इसे बनाने के लिए 250 ग्राम चूना, 20 लीटर पानी, 2 लीटर गोमूत्र, 2 किलो गोबर को मिलाया जाता है। इस मिश्रण में 1-2 घंटे बीजों को भिगोकर रखते हैं, इससे बीमारियों से बचाव होता है। रेड रॉट डिसीज का कोई इलाज नहीं है एक बार होने के बाद इसे रोका नहीं जा सकता है, लेकिन पहले ही नियंत्रित किया जा सकता है।
प्राकृतिक खेती में समस्याएं (Problems in Natural Farming)
बहुत से लोगों को लगता है कि प्राकृतिक खेती में उत्पादन कम होता है, मगर योगेश इसे पूरी तरह से गलत बताते हैं उनका मानना है कि 3-4 सालों में जब मिट्टी का ऑर्गेनिक कार्बन ठीक हो जाता है तो उत्पादन अच्छा होता है। दरअसल, वो प्राकृतिक खेती में मुख्य समस्या मार्केटिंग को मानते हैं। उनका कहना है कि यदि मार्केटिंग के लिए किसानों को ऐसा प्लेटफॉर्म मिले जहां वो अपने उत्पाद आसानी से बेच सके, तो ज़्यादा किसान ऑर्गेनिक की तरफ जाएंगे। उनका मानना है कि मार्केटिंग की समस्या दूर करने के लिए खेती के शुरुआती 3 सालों में किसानों को अनुदान मिलना चाहिए।
क्योंकि प्राकृतिक खेती में किसान यूरिया और उर्वरकों का इस्तेमाल नहीं करते हैं, तो इस पर मिलने वाला अनुदान उन्हें मिलतना चाहिए। दूसरा तरीका है कि FPO का आकार थोड़ा छोटा कर दिया जाए, 300 की बजाय 10-20 किसान भी मिलकर FPO बनाएं ताकि वो ज़्यादा तरीके की फ़सल उगा सकें, इससे मार्केटिंग प्लेटफॉर्म पर उनके पास बेचने के लिए ज़्यादा उत्पाद होंगे। प्राकृतिक खेती में शुरुआत के 1-2 साल नुकसान होता ही है, क्योंकि ज़मीन को केमिकल की आदत बन चुकी है और अचानक से उसे बंद कर देंने पर उत्पादन पर असर तो पड़ता है, लेकिन धीरे-धीरे ये समस्या दूर हो जाती है।
जैविक खेती के लिए सर्टिफिकेशन (certification for organic farming)
आपकी खेती पूरी तरह से प्राकृतिक है या नहीं इसे बताने के लिए आपके पास सर्टिफिकेट ज़रूरी होना चाहिए। योगश बताते हैं कि ऑर्गनिक के सर्टिफिकेशन एक तो PGS (participatory guarantee system) होता है, जो मुफ्त है और इसे पूरे भारत में किसान कर सकते हैं, इसमें किसानों का एक समूह बनाकर उनसे गारंटी ली जाती है कि वो किसान फ़सल में केमिकल नहीं डालता है। दूसरा तरीका है NPOP (National organic production program), जिसके तहत जैविक खेती का सर्टिफिकेशन मिलता है। इसमें एक साल में एक किसान की फीस होती है 3500 रुपए। इसके तहत मिट्टी की जांच होती है और 3 साल बाद सर्टिफिकेशन मिलता है, उसके बाद हर साल मिट्टी की जांच की जाती है।
मिल चुके हैं ढेरों अवॉर्ड्स (Many awards have been received)
योगेश को प्राकृतिक खेती में उनके शानदार योगदान के लिए कई अवॉर्ड मिल चुके हैं। वो कहते हैं कि अवॉर्ड मिलने पर खुशी होती है और मोटिवेशन भी मिलता है। उन्हें 25-30 अवॉर्ड मिल चुके हैं। जिसमें राज्य स्तरीय, जिला स्तरीय और यूनिवर्सिटी स्तर पर कई अवॉर्ड मिल चुके हैं। उन्हें पहला अवॉर्ड 2016 में मिला था जिला स्तर पर और सबसे बड़ा अवॉर्ड जो उन्हें मिल चुका है, वो है फेलो फार्मर अवॉर्ड, जो देश में 7 किसानों को मिलता है।
कितना है टर्नओवर? (How much is the turnover?)
10 एकड़ में प्राकृतिक खेती और गन्ने के मूल्य संर्वधन उत्पाद बनाकर योगेश का सलाना टर्नओवर 25 से 30 लाख होता है। साथ ही उन्होंने 6-7 लोगों को रोज़गार भी दिया है। वो इस बात पर ज़ोर देते हैं कि किसानों को प्रोसेसिंग में आना चाहिए। उनका मानना है कि बाज़ार में जब तक किसान नहीं जाएगा उसका भला नहीं होगा।
क्योंकि बाज़ार में जो लोग बैठे हैं वो भी तो किसानों से ही सामान लेकर बेचते हैं, तो किसान क्यों नहीं बेच सकता। किसी भी फ़सल की प्रोसेसिंग में ही पैसा है, सिर्फ़ उत्पादन से कुछ नहीं मिलता है। फ़सल के उत्पादन में ही सबसे अधिक मेहनत है और किसान यही मेहनत वाला काम करके छोड़ देता है और पैसे दूसरे कमा रहे हैं।
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