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असम के नागांव ज़िले के हटीओनी भेठा गांव में एक ऐसी महिला रहती हैं, जिन्होंने खेती को ज़रिया बना कर हज़ारों महिलाओं की ज़िंदगी बदल दी। इनका नाम है सूमि बरदलोई। वो संस्कृत में एम.ए. पास हैं और पहले एक स्कूल में अध्यापिका थीं। लेकिन उनका सपना कुछ और था, गांव की महिलाओं को मज़बूत और आत्मनिर्भर बनाना।
शिक्षिका से कृषि उद्यमी बनने तक का सफ़र
जहां ज़्यादातर लोग सरकारी नौकरी को ही सफलता मानते हैं, सूमि ने उसे छोड़कर एक ऐसे रास्ते पर कदम रखा, जहां संघर्ष तो था, लेकिन बदलाव की अपार संभावनाएन भी थीं। उनका मानना है कि असली शिक्षा वही है जो किसी को खुद पर विश्वास करना सिखाए। उन्होंने न केवल अपना जीवन बदला, बल्कि गांव की अनेक महिलाओं को भी आत्मनिर्भर बनाया। ये कहानी नारी शक्ति की है, जो मिट्टी से जुड़ी है लेकिन सोच में ऊंचाइयों को छूती है।
महिलाओं को सिखाई कमाई की असली शिक्षा
सूमि ने टीचिंग का काम छोड़ा ताकि वो असली जीवन में महिलाओं को सिखा सकें कि कमाई कैसे की जाती है। उन्होंने 2004 में अपनी स्कूल की नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया। इसके बाद उन्होंने अपने घर की खेती को ध्यान से देखा और सोचा कि अगर इन फसलों को बाज़ार से पहले प्रोसेस (प्रसंस्करण) किया जाए, तो ज़्यादा कमाई हो सकती है।
उनका विचार ये था कि महिलाएं केवल मेहनत करें और मुनाफ़ा बिचौलिए ले जाएं, ये व्यवस्था बदलनी चाहिए। उन्होंने खुद खेतों में जाकर ये समझना शुरू किया कि किस फसल में कितनी क्षमता है। इस सोच ने उन्हें सिर्फ़ उद्यमी नहीं, एक “सोशल इनोवेटर” बना दिया। उन्होंने देखा कि महिला अगर अपने घर में रहकर भी उत्पाद बना सके तो परिवार और समाज दोनों बदल सकते हैं।
‘चारू फ़ूड प्रोसेसिंग यूनिट’ की शुरुआत
उन्होंने सबसे पहले सरसों का अचार जिसे ‘खारोली’ कहा जाता है, बनाना शुरू किया। इसके बाद आम के पेड़ों से जूस और जैम बनाने का प्रयोग किया। उन्होंने सरकारी ट्रेनिंग लेकर तरह-तरह की चीज़ें जैसे आम का स्क्वैश, अचार, चटनी, चावल के उत्पाद बनाने सीखे। इसी से जन्म हुआ उनके बिज़नेस ‘चारू फ़ूड प्रोसेसिंग यूनिट’ का।
सूमि ने महसूस किया कि बाज़ार की मांग को समझना और उसके अनुसार उत्पाद बनाना ज़रूरी है। इसलिए उन्होंने सिर्फ़ पारंपरिक चीज़ें ही नहीं बनाईं, बल्कि नई वैरायटी भी जोड़ी। उनकी यूनिट में बनने वाले उत्पादों में अब स्थानीय स्वाद के साथ-साथ गुणवत्ता भी है। चारू यूनिट केवल एक व्यावसायिक केंद्र नहीं, बल्कि प्रशिक्षण और सशक्तिकरण का केंद्र भी बन चुका है।
संघर्षों से मिला अनुभव, सफ़लता की बुनियाद बनी
शुरू में बाज़ार में उनकी चीज़ें नहीं बिकती थीं क्योंकि तब असम में कोई लोकल प्रोसेसिंग यूनिट नहीं थी। हर चीज़ बाहर से आती थी। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। जहां आम का स्क्वैश नहीं बिका, वहीं चावल के उत्पादों से घाटा पूरा कर लिया। उन्होंने समझा कि “हर चीज़ का सही इस्तेमाल हो सकता है, बस सोच होनी चाहिए।”
कई बार उन्हें नुकसान भी हुआ, लेकिन उन्होंने उसे अनुभव के रूप में लिया। उन्होंने सीखा कि एक किसान या उद्यमी को हर वक्त प्लान बी तैयार रखना चाहिए। उन्होंने अपने उत्पादों के प्रमोशन के लिए स्थानीय मेले, प्रदर्शनियों और स्वयं सहायता समूहों की सहायता ली। धीरे-धीरे लोगों को उनके उत्पाद पसंद आने लगे और ग्राहक बढ़ने लगे। उनका संघर्ष आज कई महिला उद्यमियों के लिए मिसाल बन चुका है।
5000 से ज़्यादा महिलाएं बन चुकी हैं स्वरोज़गार की मिसाल
सूमि ने 2001 में एक NGO भी शुरू की, जो महिलाओं को खेती, मछली पालन, अचार बनाना, मुर्गी पालन, बकरी पालन जैसे कामों की ट्रेनिंग देती है। अब तक 5000 से ज़्यादा महिलाएं उनके साथ प्रशिक्षण ले चुकी हैं और खुद का काम शुरू कर चुकी हैं।
सूमि “इंटीग्रेटेड एग्रो-फार्मिंग डेवेलपमेंट सोसाइटी (करबी लालुंग कृषिपुम, रोदाली फार्मर प्रोड्यूसर कंपनी)” की सेक्रेटरी भी हैं। वो कहती हैं-
“जो काम महिलाएं कर सकती हैं, वो पुरुष नहीं कर सकते। अगर महिलाओं को सही दिशा दी जाए, तो वो खुद अपना कारोबार खड़ा कर सकती हैं। मैं कोई बड़ी कारोबारी नहीं हूं। मैं तो बस एक ज़रिया हूं, जिसके माध्यम से औरों को रास्ता मिल रहा है।”
इंटीग्रेटेड फार्मिंग मॉडल: उत्पादन से प्रशिक्षण तक
उनके पास नागांव ज़िले के बरहामपुर में 32 बीघा और मोरीगांव ज़िले के कपाहेरा में 165 बीघा ज़मीन है। यहां उन्होंने इंटीग्रेटेड फ़ार्मिंग सिस्टम (Integrated Farming System) बनाया है, जिसमें धान और मछली एक साथ, बत्तख और मछली साथ-साथ, बकरी पालन, सुअर पालन, नर्सरी और मधुमक्खी पालन शामिल हैं।
इस फ़ार्म का कुल क्षेत्रफल 90 हेक्टेयर है, और हर साल लगभग 5000 किलो उत्पादन होता है। टर्नओवर लगभग ₹20 लाख है। सबसे खास बात ये है कि वो 100% जैविक खाद का इस्तेमाल करती हैं।
उनका फ़ार्म न केवल उत्पादन करता है, बल्कि एक ट्रेनिंग सेंटर की तरह भी काम करता है, जहां महिलाएं आकर सीखती हैं।
कृषि में योगदान के लिए मिले सम्मान
उनके काम को देश भर में सराहा गया है। उन्हें कई पुरस्कार मिले हैं:
- असम की सर्वश्रेष्ठ फूड प्रोसेसिंग उद्यमी – 2019
- भारत की सर्वश्रेष्ठ सशक्तिकरण महिला – 2019
- असम की सर्वश्रेष्ठ महिला मछली किसान – 2018
- भारत की सर्वश्रेष्ठ महिला किसान – 2015
अगला कदम: एक्वा फिश टूरिज्म रिसॉर्ट
आज जब सूमि का इंटीग्रेटेड फ़ार्मिंग मॉडल पूरी तरह स्थापित हो चुका है, तो उनकी नज़र अब एक नये सपने पर है, ‘एक्वा फ़िश टूरिज़्म रिसॉर्ट’। वे चाहती हैं कि लोग केवल मछली खाएं नहीं, बल्कि देखें कि वो कैसे पाली जाती हैं, कैसे छोटी-छोटी प्रक्रियाएं मिलकर एक बड़ा उत्पादन बनाती हैं।
सूमि की ये योजना पर्यटन से कहीं आगे है। इसका उद्देश्य है ग्रामीण शिक्षा, महिला रोज़गार और सतत खेती के मॉडल को मिलाकर एक नया अनुभव देना। वो चाहती हैं कि उनके फ़ार्म को एक ‘लाइव डेमो सेंटर’ बनाया जाए जहां स्कूलों, कॉलेजों, शोध संस्थानों और परिवारों को जैविक खेती और मछली पालन की व्यवहारिक जानकारी दी जा सके।
सूमि मानती हैं कि अगर महिलाओं द्वारा संचालित ये मॉडल सफ़ल होता है, तो ये देशभर में महिलाओं के लिए प्रेरणा बनेगा। वो कहती हैं-
“अभी भी बहुत सी महिलाएं सोचती हैं कि खेती या फ़िशरी उनका काम नहीं है। लेकिन जब वो ये देखती हैं कि एक औरत ने इसे किया है और उससे रोज़गार बना है, तो उनके मन की झिझक दूर होती है।”
वो फ़िलहाल इस योजना के लिए राज्य सरकार, कृषि और मत्स्य पालन विभागों से तकनीकी और आर्थिक सहयोग की तलाश में हैं। उन्हें उम्मीद है कि सरकार, CSR संस्थाएं और शिक्षा संस्थान मिलकर इस प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाएंगे।
सूमि कहती हैं कि ये एक प्रॉफ़िट कमाने वाली योजना तो है ही, लेकिन उससे कहीं ज़्यादा ये गांव की महिलाओं को एक नई पहचान दिलाने वाली योजना है।
मिसाल बनी गांव की बेटी
सूमि बरदलोई की कहानी सिर्फ़ एक महिला की नहीं है, ये एक सोच है। एक सोच जो बताती है कि बदलाव लाना हो तो ज़मीन से जुड़ना होगा। सरसों के बीज से शुरू हुआ सफ़र आज हज़ारों महिलाओं को आत्मसम्मान से भर रहा है। वो आखिर में कहती हैं कि “मुझे लगता है कि मैं इस धरती पर कुछ करने के लिए आई थी। और असम में जन्म लेकर मुझे वह मौका मिला है।”
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