ओडिशा के कालाहांडी ज़िले ने सूखा, ग़रीबी और भूखमरी के लिए तो खूब सुर्खियाँ बटोरीं, लेकिन यहाँ के बिभू साहू ने अब कालाहांडी का नाम रोशन किया है। बिभू ने 2017 में बैंक से लोन लिया और अपनी राइस मिल शुरू की। बिजनेस चल निकला तो कुछ अरसे बाद धान की भूसी ने नयी मुश्किल पैदा कर दी। क्योंकि बिभू की राइस मिल से रोज़ाना 3 से 4 टन भूसी निकलती थी। इसे या तो जला देते थे या फिर फेेंक देते थे, जो हवा के उड़कर आसपास के लोगों की आँखों में जाने लगी तो आये दिन झगड़े की नौबत आने लगी।
इंटरनेट से मिली मदद
फिर एक दिन बिभू साहू को इंटरनेट से पता चला कि धान की भूसी की राख में सिलिका की ख़ासी मात्रा होती है। यदि इसका उपयोग हो जाए तो ‘आम के आम, गुठलियों के दाम’ वाली बात हो सकती है। यहीं से बिभू ने सिलिका के उत्पादन, उसके उपयोग और डिमांड के बारे में समझ बढ़ायी और पाया कि स्टील सेक्टर की कम्पनियाँ सिलिका का उपयोग इंसुलेटर के रूप में करती हैं। इसके बाद बिभू ने कई स्टील कम्पनियों से सम्पर्क किया और 2018 में मिस्र की एक कम्पनी से बिभू को सिलिका सप्लाई का ऑर्डर मिल गया।
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कुम्हारों ने काम किया आसान
बिभू को कंपनियों के ऑडर्स तो मिल गए, लेकिन उन्हें पूरा करने के लिए भूसी को छोटे-छोटे पैलेट्स में तैयार करना किसी चुनौती से कम नहीं था। भारत की कई कंपनियां व इंजीनियर भी ये काम करने में असफल रहे। तभी उनकी मिल के एक मजदूर रंजीत ने आइडिया दिया कि वो मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुछ कुम्हारों ले आएगा। वो ज़रूर कुछ आइडिया देंगे। उन कुम्हारों ने कुछ दिनों बाद बिभू की मिल में रखी मशीनों को बहलाव करके सिलिका की गोलियाँ (पैलेट) तैयार करने की मशीन बना डाली।
कैसे तैयार होते हैं पैलेट?
बिभू ने करीब 10 मशीनें तैयार करवायीं। इनका आकार कुम्हार के चाक जैसा है। पैलेट बनाने के लिए भूसी में कुछ केमिकल भी मिलाया जाता है। ताकि राख से बिलोई गयी सिलिका की गोलियाँ बन सकें। अब बिभू हर महीने तीन से चार टन सिलिका पैलेट्स का भी उत्पादन कर रहे हैं। उन्हें एक टन पैलेट से लगभग ढाई लाख रुपये की कमाई होती है।
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बिभू साहू का परिचय
बिभू साहू का बचपन ग़रीबी में गुजरा। पिता मजदूरी करते थे। पढ़ाई के अलावा बिभू, पिता का हाथ बंटाते और अपने भाई के साथ एक दुकान पर भी काम करते। ग्रेजुएशन करने के बाद बिभू को सरकारी टीचर की नौकरी मिल गयी। लेकिन उनका मन तो अपना बिज़नेस करने का था। सात साल नौकरी करने के बाद उन्होंने राइस मिल लगाने की राह चुनी क्योंकि ओडिशा में धान की खेती बड़े पैमाने पर होती है।