Zero Budget Natural Farming: इस शख्स ने ईज़ाद किया ज़ीरो बजट प्राकृतिक खेती का कांसेप्ट, सरकार क्यों दे रही इस पर ज़ोर?

मौजूदा सरकार किसानों को ज़ीरो बजट फार्मिंग या खेती के लिए प्रोत्साहित करने के लिए कई प्रकार की मदद दे रही है। जानिए किसने की ज़ीरो बजट प्राकृतिक खेती की शुरुआत।

सुभाष पालेकर - ज़ीरो बजट प्राकृतिक खेती

पिछले कुछ समय से ज़ीरो बजट प्राकृतिक खेती की खूब चर्चा हो रही है। विशेषज्ञों के मुताबिक, खेती की यह तकनीक किसानों के लिए फायदेमंद है। इसमें किसी तरह के अतिरिक्त खर्च के बिना किसान अच्छी फसल तैयार कर सकते हैं। ये फ़सल पौष्टिक तत्वों से भरपूर होगी और मिट्टी की सेहत भी अच्छी रहेगी, क्योंकि इसमें कीटनाशक या रसायनों का उपयोग नहीं होगा। साथ ही इसमें पानी की भी कम ज़रूरत होगी क्योंकि यह पूरी तरह से प्राकृतिक होगा। लेकिन ज़ीरो बजट खेती, जिसकी इतनी चर्चा हो रही है, आखिर है क्या और यह कैसे की जाती है? आइए, जानते हैं।

क्या है ज़ीरो बजट प्राकृतिक खेती?

जैसा कि नाम से ही पता चलता है, इसमें किसी तरह की अतिरिक्त लागत यानी खर्च नहीं होगा। चूँकि यह खेती पूरी तरह से नेचुरल तरीके से की जाती है,  इसमें रासायनिक खाद और कीटनाशकों की जगह गाय के गोबर की खाद और प्राकृतिक कीटनाशक जैसे नीम आदि का इस्तेमाल किया जाता है। ज़ीरो बजट प्राकृतिक खेती मूल रूप से खेती देसी गाय के गोबर और मूत्र पर आधारित है। खेती की इस तकनीक में देसी प्रजाति के गौवंश के गोबर और मूत्र से जीवामृत, घनजीवामृत और जामन बीजामृत बनाया जाता है। खेती में इनके इस्तेमाल से मिट्टी और उपजाऊ हो जाती है।

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किसने की ज़ीरो बजट प्राकृतिक खेती की शुरुआत?

ज़ीरो बजट फार्मिंग या ज़ीरो बजट नेचुरल फार्मिंग (ZBNF) शब्द महाराष्ट्र के किसान सुभाष पालेकर ने दिया है। यही वजह है कि इसे सुभाष पालेकर नेचुरल फार्मिंग यानी SPNF कहा जाता है। पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित सुभाष पालेकर महाराष्ट्र में बिना केमिकल वाली खाद और कीटनाशक के, कई सालों से खेती कर रहे हैं और अच्छा मुनाफा भी कमा रहे हैं। एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि जब विदर्भ में भीषण सूखे के कारण संतरे के बाग सूख गए थे, तब ज़ीरो बजट फार्मिंग के तरीके से की गई संतरे की खेती नहीं सूखी थी, और इससे साबित होता है कि यह किसानों के लिए बहुत फायदेमंद है।

जीरो बजट नेचुरल फार्मिंग (ZBNF) शब्द महाराष्ट्र के किसान सुभाष पालेकर ने दिया है।
तस्वीर साभार: The Indian Express

Zero Budget Natural Farming: इस शख्स ने ईज़ाद किया ज़ीरो बजट प्राकृतिक खेती का कांसेप्ट, सरकार क्यों दे रही इस पर ज़ोर?

कौन हैं सुभाष पालेकर?

पेशे से किसान सुभाष पालेकर का जन्म महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके के बेलोरा गांव में 1949 में हुआ था। नागपुर से कृषि विज्ञान में स्नातक करने वाले सुभाष ने पिता के साथ ही खेती की शुरुआत की थी। 1972 से 1985 तक पिता के साथ रासायनिक खेती करने के बाद उन्होंने नोटिस किया कि उन खेतों की उत्पादन क्षमता घट गई। फिर उन्होंने खेती के वैकल्पिक तरीको पर रिसर्च की और नतीजा ज़ीरो बजट फार्मिंग के रूप में निकला। ज़ीरो बजट प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए सुभाष कई राज्यों में किसानों को प्रशिक्षण भी दे चुके हैं।

कैसे की जाती है खेती?

खेती की इस तकनीक में सबसे अहम चीज़ है देसी गाय का गोबर और गौमूत्र। जीवामृत, जिसे गायब के गोबर, मूत्र और पत्तियों से तैयार किया जाता है, एक कीटनाशक का मिश्रण है जिसका छिड़काव खेत में एक या दो बार किया जाता है। बीजामृत का इस्तेमाल बीजों को उपचारित करने के लिए किया जाता है। इस तरह की खेती में हाइब्रिड बीज की जगह देसी बीज का इस्तेमाल होता है। खेती की इस तकनीक में किसानों को बाज़ार से किसी प्रकार की कोई खाद और कीटनाशक खरीदने की ज़रूरत नहीं पड़ती है। इसमें रसायनिक कीटनाशकों की जगह नीम और गौमूत्र का इस्तेमाल किया जाता है। इस खेती में देसी गाय की बहुत अहम भूमिका है। एक गाय से लगभग 30 एकड़ जमीन पर खेती की जा सकती है।

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सरकार दे रही बढ़ावा

मौजूदा सरकार किसानों को ज़ीरो बजट फार्मिंग या खेती के लिए प्रोत्साहित करने के लिए कई प्रकार की मदद दे रही है। ज़ीरो बजट फार्मिंग में किसानों को महंगे बीज, खाद और कीटनाशक खरीदने के लिए किसी तरह का कर्ज लेने की ज़रूरत नहीं पड़ती है। इस तरह से, यदि अधिक से अधिक किसान खेती की इस तकनीक को अपनाते हैं तो वह क़र्ज़ के जंजाल से मुक्त हो सकते हैं। यानी नेचुरल फ़ार्मिंग किसानों को आत्मनिर्भरता की ओर ले जाएगी।

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लाखों किसान उठा रहे इसका फ़ायदा

आन्ध्र प्रदेश ऐसा पहला राज्य है जहां ज़ीरो बजट प्राकृतिक खेती को पूरी तरह से अपनाया गया है। राज्य सरकार का लक्ष्य 2024 तक सभी गावों में जीरो बजट फार्मिंग करवाने का है। इसके अलावा महाराष्ट्र और कर्नाटक में बड़े पैमाने पर यह खेती की जा रही है। हिमाचल प्रदेश में भी इसे बढ़ावा दिया जा रहा है। धीरे-धीरे अन्य राज्यों में भी किसान इसे अपना रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक, 50 लाख से अधिक किसान खेती की इस तकनीक से जुड़ चुके हैं।

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