खेती पर जलवायु परिवर्तन (Climate change) का दुष्प्रभाव दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। इसके लिए जहाँ एक ओर प्रदूषण से पैदा होने वाली ग्रीन हाउस गैसें ज़िम्मेदार हैं वहीं दूसरी ओर, ज़्यादा कृषि उत्पादन हासिल करने के लिए इस्तेमाल हो रहे रासायनिक उर्वरकों और ज़हरीले कीटनाशकों की बहुत बड़ी भूमिका रही है।
इनकी वजह से मौसम और मॉनसून का चक्र बेतरतीब हुआ है वहीं जैविक और अजैविक तत्वों के बीच प्राकृतिक आदान-प्रदान से जुड़ा ‘इकोलॉजिकल सिस्टम’ भी प्रभावित हुआ है। इससे मिट्टी के उपजाऊपन में ख़ासी कमी आयी है। इसीलिए किसान ऑफ़ इंडिया आपको बता रहा है कि भारत समेत दुनिया भर में पर्यावरण अनुकूल खेती को बढ़ावा देने के लिए कौन-कौन की विधियाँ अपनायी जा रही हैं।
जैविक खेती
खेतों में रासायनिक खाद और कीटनाशक के इस्तेमाल से जहाँ एक ओर मिट्टी की उत्पादकता घट रही है, वहीं दूसरी ओर अनेक ज़हरीले तत्वों के अंश भी भोजन के ज़रिये मानव शरीर में पहुँच रहे हैं, जो अनेक बीमारियों का सबब बनते हैं। इस संकट से निपटने के लिए जैविक खेती के मॉडल दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में अपनाये जा रहे हैं, क्योंकि जैविक खेती ही पर्यावरण के सबसे अनुकूल है और ग्लोबल वार्मिंग की रोकथाम में अहम भूमिका निभाती है।
रासायनिक खाद पर निर्भरता नहीं होने की वजह से जैविक खेती की लागत भी कम होती है। इससे फसलों की उत्पादकता और मिट्टी के उपजाऊपन में सुधार आता है। मिट्टी की नमी सोखने की क्षमता बढ़ती है और सिंचाई के पानी का वाष्पीकरण धीमा होता है। वर्षा आधारित या बारानी खेती के लिए जैविक खेती बेहद लाभदायक है। इससे कम लागत में किसान की ज़्यादा कमाई होती है। अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार की स्पर्धा में भी जैविक उत्पाद ही टिक पाते हैं।
जलवायु स्मार्ट कृषि
जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से खेती-किसानी को बचाने के लिए कृषि विशेषज्ञों ने जलवायु स्मार्ट कृषि प्रणाली को विकसित किया गया है। जलवायु स्मार्ट कृषि प्रणाली को बुनियादी रूप से फसली भूमि, पशुधन, वन और मत्स्य पालन के एकीकृत प्रबन्धन के रूप में ही देखा गया है। भारत में भी इसके लिए राष्ट्रीय स्तर की परियोजनाएँ शुरू की गयी हैं। इन्हें खाद्य सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का एक साथ सामना करने के लिए बनाया गया है।
जलवायु स्मार्ट कृषि में अनुकूलन (Customization), शमन (mitigation) और अन्य प्रथाओं का समावेश किया जाता है। इससे खेती के जोख़िम में कमी आती है और किसान की कमाई बढ़ती है।
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खेतों में जल प्रबन्धन
जलवायु परिवर्तन की वजह से हुई तापमान वृद्धि का मुक़ाबला करने के लिए फसलों को ज़्यादा सिंचाई की ज़रूरत पड़ती है। इसके लिए दोतरफ़ा रणनीति अपनायी जाती है। पहला, मिट्टी में नमी का संरक्षण करना और दूसरा, बारिश के पानी को ज़्यादा से ज़्यादा जमा करके भूजल भंडार को बेहतर बनाना। जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम में हो रहे बदलाव और लगातार कम होती जा रही बारिश की मात्रा को देखते हुए दुनिया भर में वाटरशेड प्रबन्धन को बहुत अहमियत दी जा रही है।
इससे सिंचाई की लागत में कमी आती है और खेती की कमाई बढ़ती है। इसीलिए केन्द्र और राज्य सरकारों के सहयोग से स्थानीय स्तर पर जल संरक्षण को बढ़ावा देने की अनेक योजनाएँ चलायी जा रही हैं। क्योंकि जल संरक्षण व्यवस्था पर्याप्त नहीं होने की वजह से बड़े पैमाने पर बारिश का शुद्ध और मीठा पानी नदियों के ज़रिये समुद्र के खारे पानी में पहुँच जाता है।
समग्र कृषि
कृषि संकट से बचने के लिए विश्व के अलग-अलग हिस्सों में किसान एकल कृषि की बजाय कम जोख़िम वाली समग्र कृषि पर ज़ोर दे रहे हैं। इस प्रणाली में अनेक फसलों का उत्पादन किया जाता है। इस प्रणाली की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि यदि एक फसल किसी भी वजह से ख़राब हो जाए तो दूसरी फसल से किसान की रोज़ी-रोटी चल सके। समग्र कृषि प्रणाली से छोटे काश्तकारों को अपने घर और बाज़ार के लिए पर्याप्त पैदावार प्राप्त हो जाती है। उन्हें परिवार के लिए सन्तुलित पौष्टिक आहार जुटाने, पूरे साल रोज़गार और आमदनी पाने और मौसम तथा बाज़ार सम्बन्धी जोख़िम कम करने में मदद मिलती है।
रिजेनेरेटिव खेती
जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से खेती को बचाने के लिए आजकल रिजेनेरेटिव एग्रीकल्चर या पुनर्योजी कृषि को भी अपनाया जा रहा है। ये प्रणाली जैव विविधता को बढ़ाती है। मिट्टी को समृद्ध करती है। वाटरशेड में सुधार करती है और पारिस्थितिकी (ecology) को मज़बूत बनाती है। रिजेनेरेटिव एग्रीकल्चर का उद्देश्य मिट्टी और उसमें मौजूद बायोमास तथा कार्बन तत्व का समुचित उपयोग करना है। इससे खेती और पशुपालक समुदायों को बहुत राहत मिलती है।
रिजेनेरेटिव एग्रीकल्चर भी दशकों पुरानी और वैज्ञानिक खेती पद्धति ही है। इसे दुनिया भर के किसान अपना रहे हैं। इस प्रणाली में खेती के प्राकृतिक संसाधनों के न्यायसंगत इस्तेमाल पर ज़ोर होता है। इस खेती में ऐसे पर्यावरण हितैषी तरीकों को अहमियत दी जाती है, जिससे मिट्टी की उत्पादकता को बरकरार रखा जा सके।
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