Integrated Pest Management: चने की खेती में आईपीएम तकनीक कैसे फसल के लिए फ़ायदेमंद है?

चने की खेती में समेकित नाशीजीव प्रबंधन यानि आईपीएम तकनीक से पौध संरक्षण, मिट्टी की उत्पादकता बढ़ाने या बनाए रखने के साथ-साथ कीटों और रोगों के संक्रमण से फसलों को बचाया जा सकता है।

चने की खेती

चना रबी सीज़न की एक मुख्य फसल है। चने की खेती सिंचित और असिंचित इलाकों में कर सकते हैं। फसल में कई तरह के रोग लगते हैं। इसके साथ ही कई तरह के कीट-पतंगे फसल को नुकसान पहुंचा देते हैं। इन सभी से किसान को नुकसान होने की आशंका बनी रहती है। किसान चने की खेती में पेस्ट कंट्रोल करने के लिए कई तरह के उपाय करते हैं।

किसान साथियों आज जानते हैं समेकित नाशीजीव प्रबंधन (आई.पी.एम) के बारे में। इस विधि से पौध संरक्षण, मिट्टी की उत्पादकता बढ़ाने या बनाए रखने के साथ-साथ कीटों और रोगों के संक्रमण से फसलों को बचाया जा सकता है। इससे किसानों को उत्पादन में कम नुकसान होने की आशंका होती है।

चने की खेती

आई.पी.एम. विधि में पारंपरिक, यांत्रिक, जैविक और रासायनिक कीटनाशक का इस्तेमाल इस तरह किया जाता है कि कीटनाशकों का असर फसल पर कम से कम हो और किसान को आर्थिक रुप से समस्या का सामना न करना पड़े। समेकित नाशीजीव प्रबंध में सभी चरणों को सही क्रम से किया जाए तो फसलों को कीटों से बचाया जा सकता है।

चने की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग

चने की फसल में उकठा रोग, शुष्क-मूलविगलन, स्तंभ मूलसंधि विगलन, एस्कोकाइट ब्लाईट, धूसर फफूंद, स्तंभन रोग, रस्ट, स्तंभ गलन, काला जड़ गलन, फाईलोडी और अल्टरनेरिया ब्लाईट जैसे कई तरह के रोग लग जाते हैं।

 

चने की फसल में लगने वाले कीट

चने की फसल में लगने वाले प्रमुख कीटों में चना फली भेदक, दीमक, एफिड, गांठ-जड़ सूत्रकृमि, सेमीलूपर, दाल भृंग जैसे कीट आते हैं।

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चने की खेती में पंरपरागत विधि से रोगों का उपचार

समेकित नाशीजीव प्रबंधन में पहला चरण परंपरागत विधि है। इस चरण में कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए। आइए नज़र डालते हैं नीचे दी गई मुख्य बातों पर।

1. बुआई के पहले पिछली फसल के अवशेषों को खेत से हटा देना चाहिए।

2. गर्मी के मौसम में किसान को खेतों की गहरी जुताई करनी चाहिए। इससे पौधों में बीज और मिट्टी से लगने वाले रोगों की आशंका कम रहती है। इस गतिविधि में कीटों के लार्वा, प्यूपा और निम्फ नष्ट हो जाते हैं।

3. किसानों को रोग जनित खेत में लगभग तीन साल तक चने की खेती नहीं करनी चाहिए।

4. गोबर की खाद एक हेक्टेयर में 5 टन की दर से इस्तेमाल करने से उकठा, स्तम्भ मूल और शुष्क मूल विगलन जैसे रोगों में कमी आती है।

5. चने की खेती की बुआई अक्टूबर से पहले या नवम्बर के पहले सप्ताह में करनी चाहिए। इससे बहुत सारे रोगों और फली छेदक कीटों का खतरा कम हो जाता है। अगर किसान के इलाके में स्तंभन रोग और अल्टरनेरिया ब्लाईट का असर हो वहां पर चने की बुवाई देर से करनी चाहिए।

6. किसान फली छेदक के नियंत्रण में वीसिया सटाइवा जैसे खरपतवार को ट्रैप फसल की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं। इसके साथ ही मेलिलोटास अल्वा खरपतवार को फली नुकसान को कम करने में किया जाता है। फसल का घनत्व कम होगा तो फली छेदक और ग्रे मोल्ड का प्रकोप कम रहेगा।

7. चने की खेती में फली भेदक का असर कम करने के लिए अलसी और धनिया के साथ अंत: फसलीकरण से असर कम हो सकता है।

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चने की खेती में कीटों का यांत्रिक तकनीकों से नियंत्रण

फली भेदक कीट की निगरानी के लिए 5 फेरोमोन ट्रैप प्रति हेक्टेयर का इस्तेमाल करना चाहिए। किसान साथियों को फसल की निगरानी लगातार करनी चाहिए, जिससे उकठा और सड़न रोग से ग्रसित पौधों का समय रहते पता लग सके। पौधे पर लगने वाली बीमारियों का अगर सही समय पर पता लग जाए तो इलाज करना आसान हो जाता है, जिससे किसानों को फसल का नुकसान नहीं उठाना पड़ता है।

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चने की फसल को बचाने के लिए कीट भक्षी पक्षियों को आकर्षित करने का तरीका भी कारगर साबित होता है। पक्षियों को आकर्षित करने के लिए किसान को T आकार के 3 से 5 फ़ीट लंबे 20 खुंटी प्रति हेक्टेयर लगाने चाहिए। बूबूलक्स इबीस, एक्रीडोथेरस ट्रीस्टीस, पेशन डोमेश्टिकस, सिटेकुला क्रामेरी जैसे कई कीट भक्षी पक्षियों में आते हैं।

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चने की फसल में जैविक कीट प्रबंधन

चने की फसल में रोगों के रोकथाम के लिए सूक्ष्मजीवीय जीवनाशक जैसे ट्राइकोडर्मा और सूडोमोनास का बीजों के उपचार के लिए इस्तेमाल करना चाहिए। इसके साथ ही खेतों में एनपीवी और बीटी का इस्तेमाल करना चाहिए। बीटी फार्मुलाशन का 1-1.5 किलो ग्राम के हिसाब से छिड़काव करना चाहिए।

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चने की खेती में रासायनिक नियंत्रण

खेती में वर्तमान समय में रासायनिक दवाओं का इस्तेमाल नाशीजीव कीट और रोगों से ग्रसित पौधों को बचाने के लिए किया जा रहा है। अगर फसल में दवा की ज़रूरत पड़ रही है तो हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि एक रासायनिक दवा के बार-बार इस्तेमाल के बजाय दवाओं को बदल-बदल कर कई तरह के गुणों वाली दवाओं का उपयोग करना चाहिए।

इमामेक्टिन का उपयोग 0.02 प्रतिशत के हिसाब से पहली बार फूल खिलने की शुरुआती स्थिति में और दूसरी बार 15 दिनों के बाद छिड़काव से, फली छेदक का असर कम हो जाता है। इसके अलावा साइपरमेथ्रीन, क्लोरपाइरिफॉस और फेनवेलरेट का भी इस्तेमाल कर सकते हैं।

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चने की मुख्य किस्में 

अगर आंध्रप्रदेश के किसान चने की खेती करना चाहें तो इन उन्नत किस्मों का इस्तेमाल कर सकते हैं। भारती ( आईसीसीवी 10), जेजी 11, फुलेजी 95311(के), एमएमके 1 का उपयोग कर सकते हैं। असम के किसान जेजी 73, उदय(केपीजी 59), के डब्लू आर 108, पूसा 372 का उपयोग कर सकते हैं। अन्य किस्मों की बता की जाए तो जेजी 315, विजय, जवाहर ग्राम काबुली 1, उदय, करनाल चना 1।

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