Chickpea Farming: करोड़ों किसान क्यों पाते हैं चने की क्षमता से आधी उपज? जानिए, कैसे करें चने की उन्नत खेती और बढ़ाएँ कमाई?

भारत में मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और कर्नाटक, प्रमुख चना-उत्पादक राज्य हैं। लेकिन पैदावार में 14.56 क्विंटल/ हेक्टेयर के साथ तेलंगाना सबसे ऊपर है तो 6 क्विंटल/हेक्टेयर के साथ कर्नाटक सबसे नीचे। जबकि राष्ट्रीय औसत 10.55 क्विंटल/ हेक्टेयर है। हालाँकि, देश में 20 से 30 क्विंटल/ हेक्टेयर पैदावार देने वाली चने की अनेक उन्नत और रोग प्रतिरोधी नस्लें मौजूद हैं। लिहाज़ा, किसानों को जल्द से जल्द चने की उन्नत खेती के नुस्खे अपनाने चाहिए।

चने की उन्नत खेती chickpea farming

भारत दुनिया का सबसे बड़ा दाल-उत्पादक, दाल-उपभोक्ता और दाल-आयातक, तीनों है। दालों के वैश्विक उत्पादन में हमारी हिस्सेदारी जहाँ 25% है, वहीं दुनिया में उत्पादित 27% दालें भारतीय ही खाते हैं। यहाँ पैदावार और खपत का अन्तर भले ही 2% का हो लेकिन ये हमें दालों के विश्व व्यापार में 14% का आयातक बनाता है। ये आलम तब है जबकि देश में अनाज की खेती वाली कुल ज़मीन में से 20% पर दालों की खेती होती है। लेकिन देश के कुल खाद्यान्न उत्पादन में दालों का हिस्सा 7 से 10% के बीच ही है। हालाँकि, भारत में दलहनी फसलें रबी, खरीफ तथा बसन्त या ग्रीष्म तीनों ही मौसम में उगायी जाती हैं। खरीफ में मुख्य रूप से अरहर, उड़द और मूँग की खेती होती है तो रबी में चना, मटर, मसूर और राजमा की पैदावार होती है।

उपज से ज़्यादा है दलहन की खपत

दलहन की कुल पैदावार में से 60% रबी मौसम की उपज होती है। दालों का उत्पादन साल दर साल बढ़ रहा है, लेकिन खपत ज़्यादा तेज़ी से बढ़ी है इसीलिए आयात भी बढ़ता रहा है। देश में दालों का आयात मुख्य रूप से म्याँमार, मोज़ाम्बिक़, ज़िम्बाब्वे और कनाडा से होता है। अनाज के लिहाज़ से दलहन और तिलहन ऐसी आवश्यक वस्तुएँ हैं जिनके मामले में हम आज भी आत्मनिर्भर नहीं हैं, जबकि धान और गेहूँ को हमारे किसान इतना ज़्यादा पैदा कर रहे हैं कि वो न सिर्फ़ राष्ट्रीय बफ़र स्टॉक से भी कई गुणा ज़्यादा है, बल्कि भंडारण की चुनौतियों की वजह से हर साल भारी मात्रा में बर्बाद भी होता है। इसीलिए सरकारें किसानों को धान और गेहूँ के बदले दलहन और तिलहन की पैदावार बढ़ाने के लिए ख़ूब प्रोत्साहित भी करती हैं।

चने का सबसे बड़ा उत्पादक है भारत

दलहन में चने का प्रमुख स्थान है। चने का भारत सबसे बड़ा उत्पादक है। विश्व का 70% चना भारत में पैदा होता है। साल 2019-20 में देश में करीब 220 लाख टन से ज़्यादा दलहन की पैदावार हुई। इसमें से 118 लाख टन चना था। इसके बावजूद हमें 3.71 लाख टन चना आयात करना पड़ा। वैसे, भारत में चने की खेती (Chickpea Farming) सिंचित और असिंचित या बारानी इलाकों में भी की जाती है। चने में 21% प्रोटीन, 61% कार्बोहाइड्रेट्स तथा 4.5% वसा (fat) पाया जाता है।

भारत में दालों का उत्पादन और आयात
दाल दालों की पैदावार (लाख टन) दालों का आयात (लाख टन)
2018-19 2019-20 2020-21^ 2018-19 2019-20 2020-21*
अरहर 33.2 38.9 38.8 5.31 4.5 4.4
उड़द 30.6 20.8 24.5 4.9 3.12 3.21
मसूर 12.3 11 13.5 2.49 8.54 11.01
मूँग 24.6 25.1 26.2 0.84 0.69 0.52
चना 99.4 118 116.2 1.86 3.71 2.91
कुल 200.1 213.8 219.2 15.3 20.56 22.05
स्रोत: पत्र सूचना कार्यालय, भारत सरकार।   ^अनुमानित, *7.3.2021 तक

 चना जैसा विविध रंगी अनाज और कोई नहीं

भारतीय भोजन परम्परा में दालों का ख़ास स्थान है। देश में शाकाहारी लोगों के लिए प्रोटीन का अहम स्रोत दालें ही हैं। चना जैसा विविध रंगी अनाज और कोई नहीं। इसे उबालकर, भूनकर, भींगाकर और पीसकर यानी हरेक तरह से खाते हैं। चने की दाल को पीसकर जहाँ बेसन बनता है, वहीं भूने हुए चने को पीसने से सत्तू बनता है। बेसन हर घर में होता है तो इससे असंख्य स्नैक्स (snacks) भी बनते हैं। चना ऐसी दाल है जिससे सब्जी जैसे व्यंजन भी बनते हैं। कुलमिलाकर, भारतीय भोजन परम्परा का सबसे विविध रंगी अनाज चना ही है। इसीलिए इसकी माँग और खपत सदाबहार है और किसान इसका बढ़िया दाम पाते हैं।

चने की उन्नत खेती chickpea farming
तस्वीर साभार: theland

क्षमता से आधी है चने की पैदावार

भारत में मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और कर्नाटक प्रमुख चना उत्पादक राज्य हैं। ये चारों राज्य मिलकर देश का 78 फ़ीसदी चना पैदा करते हैं। मध्य प्रदेश की तो राष्ट्रीय हिस्सेदारी 41% की है, लेकिन पैदावार राष्ट्रीय औसत 10.55 क्विंटल प्रति हेक्टेयर से कम है।  ये आलम तब है जबकि देश में 20 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर चना की पैदावार देने वाली उन्नत नस्लें मौजूद हैं। चने की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता के लिहाज़ से 14.56 क्विंटल के साथ तेलंगाना सबसे ऊपर है तो 6 क्विंटल उपज के साथ कर्नाटक सबसे नीचे।

आन्ध्र प्रदेश, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, पंजाब, तेलंगाना, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में चना की खेती की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता जहाँ राष्ट्रीय औसत से बेहतर है वहीं असम, छत्तीसगढ़, हरियाणा, कर्नाटक, महाराष्ट्र ओडीशा, तमिलनाडु और उत्तराखंड में चने की पैदावार राष्ट्रीय औसत से कम है। इन्हीं चुनौतियों को देखते हुए वाराणसी स्थित बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (BHU) के कृषि विज्ञान संस्थान ने चने की उन्नत खेती का ऐसा वैज्ञानिक तरीका बताया है, जिससे किसानों को ज़्यादा उपज और मुनाफ़ा मिल सके। 

चने की खेती के लिए मिट्टी और जलवायु

मिट्टी में हवा के आवागमन के प्रति चने की फसल बेहद संवेदनशील होती है। मिट्टी के सख्त होने पर चने का अंकुरण प्रभावित होता है और पौधे कम विकसित रह जाते हैं। इसलिए चने की बुआई से पहले खेत को गहरी जुताई से भुरभुरा बनाना ज़रूरी है। चने के खेत में जल निकासी का भी सही इन्तज़ाम होना चाहिए। क्योंकि ये शुष्क और ठंडी जलवायु की फसल है। इसके लिए सालाना 60-90 सेमी वाली औसत बारिश वाले ऐसे इलाके सबसे मुफ़ीद हैं, जहाँ तापमान 28-30 डिग्री सेल्सियस वाला रहता हो।

चने की खेती में फॉस्फेट घोलक जीवाणुओं का इस्तेमाल

तमाम फसलों की तरह चने की बुआई से पहले मिट्टी में मौजूद फॉस्फोरस की प्राकृतिक तरीके से फसल को ज़्यादा से ज़्यादा सप्लाई देने के लिए फॉस्फेट घोलक जीवाणुओं यानी PSB (Phosphate solubilising bacteria) कल्चर का इस्तेमाल भी अवश्य करना चाहिए। ये भी मिट्टी में जैविक खाद डालने का ही तरीका है। इसमें PSB को मिट्टी में मिलाकर ज़मीन को उपजाऊ बनाया जाता है। एक एकड़ में PSB का इस्तेमाल करने के लिए खेत की 50 से 100 किलोग्राम तक मिट्टी लेकर इसमें PSB की करीब 200 से 250 मिलीलीटर मात्रा को अच्छी तरह से मिलाना चाहिए। फिर कुछ देर छाया में सुखाने के बाद इस मिट्टी को पूरे खेत में बराबर से छिड़क देना चाहिए। PSB का इस्तेमाल सिंचाई के पानी के ज़रिये भी किया जा सकता है।

चने की खेती के लिए बीज की मात्रा और उसका उपचार

छोटे दाने वाली किस्मों के लिए जहाँ प्रति एकड़ 30-32 किग्रा बीज पर्याप्त हैं, वहीं बड़े दाने वाली किस्मों के लिए ये मात्रा 36-40 किग्रा होती है। बीज की किस्म को चुनते वक़्त भी अपने इलाके की आबोहवा का ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि अनेक उन्नत किस्में जहाँ सिंचित और असिंचित ज़मीन के लिए उपयुक्त हैं तो अनेक ऐसी भी हैं जो पछेती बुआई में बी बढ़िया पैदावार देती हैं।

चने की उन्नत खेती chickpea farming
तस्वीर साभार: bakhabarkissan

राइजोबियम कल्चर से चने के बीज का उपचार

सभी दलहनी फसलों का अलग-अलग राइजोबियम (Rhizobium) कल्चर होता है। ये ऐसी जैविक खाद है जिससे पता चलता है कि किस दलहन के लिए मिट्टी में नाइट्रोजन की सप्लाई बढ़ाने का काम कौन से लाभदायक जीवाणु करेंगे? मसलन, चने के लिए ‘मीजोराइजोबियम साइसेरी’ कल्चर का प्रयोग होता है। इसकी 200 मिली मात्रा 10 किग्रा बीजों के उपचार के लिए पर्याप्त है। इसका दाम करीब 200 रुपये प्रति लीटर है। बुआई से पहले इस कल्चर पदार्थ को बीजों के साथ अच्छी तरह मिलाना चाहिए और कुछ देर छाया में सुखाने के बाद ही इस्तेमाल करना चाहिए।

PSB और राइजोबियम में रखें ख़ास सावधानी

PSB और राइजोबियम कल्चर से जो जीवाणु खेत की मिट्टी में पहुँचते हैं वो वहाँ तेज़ी से अपनी वंशवृद्धि करके फसल को भरपूर पोषण देने के काम में जुट जाते हैं। जीवाणु उपचार का विकल्प चुनते वक़्त किसानों को ये ख़ास ख़्याल रखना ज़रूरी है कि इसके बाद वो खेत में किसी भी तरह की रासायनिक खाद या कीटनाशक का इस्तेमाल नहीं करेंगे। क्योंकि ऐसा करने से फॉस्फेट और नाइट्रोजन से पोषण पैदा करने वाले जीवाणुओं को गम्भीर नुकसान पहुँचता है। वैसे बीजों को कल्चर वाले पदार्थ से उपचारित करने से पहले उनका बीजजनित रोगों से बचाव का उपाय ज़रूर कर लेना चाहिए। बीजशोधन के लिए प्रति किलोग्राम 2.5 ग्राम थीरम या 4 ग्राम ट्राइकोडर्मा अथवा 2.5 ग्राम थीरम और 2 ग्राम काबेंडाजिम का मिश्रण इस्तेमाल में लेना चाहिए।

चने की खेती में खाद का इस्तेमाल

चने की तरह सभी दलहनों की जड़ों में ऐसी ग्रन्थियाँ पायी जाती हैं, जिनमें नाइट्रोजन स्थिरीकरण का गुण होता है। ये ग्रन्थियाँ नाइट्रोजन का अपचयन यानी हवा से सीधे नाइट्रोजन खींचने और फिर उसे सोखने की क्षमता रखने वाले जीवाणुओं को बेहद अनुकूल माहौल देती हैं। इसीलिए दहलनों की खेती करने से न सिर्फ़ फसल की नाइट्रोजन की ज़रूरतें पूरी होती हैं, बल्कि पौधों की जड़ों से रिसकर नाइट्रोजन आसपास की मिट्टी में घुल जाती है। इसीलिए, दलहनों की खेती करने से मिट्टी का प्राकृतिक पोषण भी होता है।

मिट्टी की जान है दलहन

दलहनी फसलों को मिट्टी का टॉनिक कहा गया है। खरीफ की फसलों से पहले मूँग, उड़द, ढेंचा, लोबिया और रबी की फसलों से पहले मसूर, अरहर और चना की खेती करने पर इसलिए बहुत ज़ोर होता था क्योंकि इन फसलों की जड़ों में ऐसे बैक्टीरिया होते हैं जो वातावरण से नाइट्रोजन को खींचकर ज़मीन में मिलाते हैं। इसीलिए इन फसलों के अवशेष को भी 45-50 दिनों बाद खेतों में ही जोतकर सिंचाई कर दी जाती है ताकि वो जल्द सड़-गलकर खाद में तब्दील हो जाएँ। इस प्रक्रिया को ‘हरी खाद की खेती’ भी कहते हैं।

इन्हीं तथ्यों की वजह से चने की फसल को ऊपरी खाद के रूप में नाइट्रोजन की ज़रूरत तभी पड़ती है, जब मिट्टी की जाँच से पता चले कि उसमें नाइट्रोजन की कमी है। बहरहाल, चने की खेती में अच्छी पैदावार के लिए बुआई से पहले खेत को तैयार करते वक़्त एक टन प्रति एकड़ की दर से गोबर और कम्पोस्ट खाद तथा 8-8 किलो नाइट्रोजन, पोटाश और गन्धक (सल्फर) और 24 किलो फॉस्फोरस का इस्तेमाल करना चाहिए। अब यदि बात हरी खाद की हो तो ढेंचा एक घास है जिसकी खेती से कम लागत में अच्छी मात्रा में हरी खाद मिलती है। इससे प्रति एकड़ 22-30 किलोग्राम नाइट्रोजन खाद की भरपाई हो जाती है।

किफ़ायती और बेजोड़ है हरी खाद

हरी खाद की वजह से मिट्टी को भुरभुरा होने, उसमें हवा का आवागमन होने, जलधारण क्षमता में वृद्धि होने के अलावा उसके अम्लीय या क्षारीय तत्वों में भी सुधार होता है तथा वो और उपजाऊ बन जाती है। हरी खाद से मिट्टी को पोषण देने वाले जीवाणु बढ़ते हैं, जो उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाते हैं। लिहाज़ा, मुख्य फसल में खाद और कीटनाशकों की ज़रूरत काफी घट जाती है। हरी खाद का दूसरा पहलू ये है कि यदि बाज़ार से नाइट्रोजन खाद को खरीदकर खेत में डालें तो अन्य उर्वरक तत्वों की भरपाई नहीं हो पाती, जबकि प्राकृतिक हरी खाद में वो सारे पोषक तत्व बेहद सन्तुलित मात्रा में होते हैं जिनकी मिट्टी को ज़रूरत होती है। इसीलिए हरी खाद को बेजोड़ माना जाता है।

चने की उन्नत किस्में और उनकी विशेषताएँ
किस्म का नाम उपज (क्लिंटल प्रति हेक्टेयर) फसल पकने की अवधि (दिन) अन्य ख़ूबियाँ
गुजरात चना-4 20-25 120-130 उकठा अवरोधी, सिंचित और असिंचित ज़मीन के लिए उपयुक्त
अवरोधी 25-30 145-150 उकठा अवरोधी और भूरे रंग के दाने
पूसा-256 25-30 135-140 ज़्यादा नमी से होने वाले एस्कोकाइटा ब्लाइट रोग का अवरोधी, पत्ती चौड़ी, भूरे रंग के दाने
चने की पछेती बुआई की उम्दा किस्में और उनकी विशेषताएँ
पूसा-372 25-30 130-140 उकठा, ब्लाइट और जड़गलन जैसे रोगों का प्रतिरोधी
उदय 20-25 130-140 उकठा अवरोधी और भूरे रंग के दाने
पन्त जी.-186 20-25 120-130 उकठा अवरोधी
स्रोत: कृषि विज्ञान संस्थान, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय

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दलहनों के लिए हरी खाद वाली फसलें

दलहनी फसलों में हरी खाद के लिए सनैइ (सनहेम्प), ढैंचा, लोबिया, उड़द, मूँग, ग्वार आदि की खेती करते हैं। क्योंकि इनकी जड़ों में वातावरण से नाइट्रोजन खींचने वाले जीवाणु पाये जाते हैं। ज़्यादा पत्तियों वाली ये फसलें कम वक़्त में तेज़ी से बढ़ती हैं। इन्हें बहुत कम उर्वरक तथा पानी की ज़रूरत पड़ती है। इस तरह हरी खाद की फसलों से खेतों को कम लागत में ज़्यादा कार्बनिक तत्व मिल जाते हैं। अधिक वर्षा वाले खेतों में सनई का उपयोग करते हैं तो सूखे वाले इलाकों के लिए ढैंचा को उम्दा पाया गया है। कम वर्षा वाली, रेतीली और कम उपजाऊ खेतों को लिए ग्वार को उपयुक्त माना जाता है। लोबिया को अच्छी जल निकास वाली क्षारीय मिट्टी के लिए मुफ़ीद मानते हैं तो मूँग और उड़द को खरीफ से पहले गर्मियों में ऐसी ज़मीन पर बोना चाहिए जहाँ जल भराव नहीं होता हो। इनकी फलियों से अच्छी कमाई भी होती है और बाक़ी पौधा हरी खाद का काम करता है।

चने की खेती में बुआई का समय

असिंचित खेतों में चने की बुआई अक्टूबर के दूसरे से तीसरे हफ़्ते में सिंचित खेतों नवम्बर के दूसरे हफ़्ते में करनी चाहिए। चने की पछेती किस्मों की बुआई दिसम्बर के पहले हफ़्ते तक कर लेनी चाहिए। चने के बीजों की बुआई ज़मीन की सतह से ढाई-तीन इंच नीचे होनी चाहिए। असिंचित खेतों और पछेती किस्म के मामले में बुआई के वक़्त कतारों के बीच करीब एक फीट का फ़ासला होना चाहिए जबकि सिंचित खेतों में इसे करीब डेढ़ फीट रखना चाहिए।

चने की खेती में सिंचाई

आमतौर पर असिंचित खेतों में किसान चने की खेती करना पसन्द करते हैं। लेकिन यदि सिंचाई की सुविधा हो तो चने की फलियाँ बनते वक़्त बौधारी विधि यानी स्प्रिंक्लर से हल्की सिंचाई करना फ़ायदेमन्द रहता है। सिंचित खेतों में बुआई के 45-60 दिन बाद पहली सिंचाई उस वक़्त करनी चाहिए जब चने के पौधों कीशाखाएँ बन रही हों। दूसरी सिंचाई, फलियाँ बनते वक़्त करनी चाहिए। ये सिंचाई हल्की ही होनी चाहिए। चने में पौधों में फूल खिलने के दौर में सिंचाई नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इससे फूल झड़ सकते हैं। ज़्यादा सिंचाई से पौधों का तो अधिक विकास हो जाता है लेकिन दाने हल्के बनते हैं और कुल उपज घट जाती है।

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चने की फसल की मुख्य बीमारियाँ और उपचार

चने की फसल में आमतौर पर उकठा, पत्ती धब्बा रोग और जड़सड़न नामक बीमारियाँ होती हैं। इसके अलावा यदि खेत में कटुआ और सेमीलूपर फलीबेधक कीटों के प्रकोप की भी आशंका हो तो मई-जून की गर्मियों में खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए। इसी वक़्त खेत में जगह-जगह सूखी घास के छोटे-छोटे ढेर बना देने से दिन में कटुआ कीट की सुंडियाँ इनमें छिप जाएँगी। इस ढेर को अगली सुबह जला देना चाहिए। इसी उपाय से मिट्टी का उपचार करने पर उकठा रोग की रोकथाम में भी काफ़ी फ़ायदा होता है। उकठा से बचाव का सबसे अच्छा उपाय है – बुआई के वक़्त उकठा रोधी नस्लों के बीजों का ही इस्तेमाल। वैसे जिस खेत में उकठा रोग का प्रकोप रहता हो वहाँ 3-4 साल तक चने की फसल नहीं लेनी चाहिए।

सहफसली खेती से कीट नियंत्रण

चने के साथ अलसी, सरसों अथवा धनिया की सहफसली खेती करने से भी फलीबेधक कीटों की रोकथाम में मदद मिलती है। इसके अलावा खेत के चारों ओर गेंदे के फूलों को ट्रैप क्रॉप (Trap Crop) के रूप में लगाने से भी फ़ायदा होता है। खेत में बर्ड पर्चर (Bird percher) यानी चिड़ियों के बैठने का मचान बनाना भी उपयोगी होता है क्योंकि चिड़ियाँ इन पर बैठकर सुंडियों को चाव से खाती हैं।

चने की उन्नत खेती chickpea farming
तस्वीर साभार: ICAR

Chickpea Farming: करोड़ों किसान क्यों पाते हैं चने की क्षमता से आधी उपज? जानिए, कैसे करें चने की उन्नत खेती और बढ़ाएँ कमाई?चने की खेती में खरपतवार नियंत्रण

यदि रसायनों से खरपतवार नियंत्रण करना हो तो चने की बुआई के पहले मिट्टी में प्रति एकड़ के हिसाब से एक लीटर फ्लूक्लोरलीन 45% EC को करीब 400 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। बुआई के 2-3 दिन बाद पेंडीमेथलीन और 20 से 30 दिन बाद क्यूजालोफोप-इथाइल का भी इस्तेमाल करके संकरी पत्तियों वाले खरपतवार से छुटकारा पाया जा सकता है। यदि रसायन का प्रयोग नहीं करना हो तो परम्परागत खुरपी से निराई कर खरपतवारों को साफ़ करना चाहिए।

चने की कटाई, मड़ाई और भंडारण

चने की फसल पकने के वक़्त इसकी पत्तियाँ हल्की पीली या भूरी होकर झड़ने लगती हैं। इस वक़्त यदि फली से चने का दाना निकालकर उसे दाँत से काटा जाए और कट्ट की आवाज़ आए, तब समझना चाहिए कि उपज कटाई के लिए तैयार है। कटाई के बाद फलियों से चना हासिल करने के लिए थ्रेशर से या फिर बैलों या ट्रैक्टर से मड़ाई करें। टूटे-फूटे या सिकुड़े या रोगग्रस्त दानों को पंखों या प्राकृतिक हवा की बदौलत भूसे से अलग कर लें।  भंडारण से पहले चने के दानों को अच्छी तरह सूखा लेना चाहिए। दानों में यदि 10-12 प्रतिशत भी नमी रहती है तो उन पर घुन लगने का ख़तरा बहुत ज़्यादा होता है।

सूखे चने को साफ़-सुथरे और नमी रहित भंडारण गृह में जूट की बोरियों या लोहे के ड्रमों में चने को भरकर रखना चाहिए। जूट की बोरियों को भी उपचारित करके इस्तेमाल करना भी बहुत फ़ायदेमन्द साबित होता है। इसके लिए भंडारण से पहले 10 किलो नीम की पत्तियों को 100 लीटर पानी में उबलकर बनाये गये अर्क में जूट की बोरियों को भिगोने और सुखाने के बाद इस्तेमाल करना चाहिए। चने के साबुत दानों की तुलना में उससे दाल बनाकर भंडारण करने पर घुन से होने वाले नुकसान की रोकथाम हो जाती है।

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