Potato Seed Production: आलू बीज उत्पादन की नई तकनीकें कौन सी हैं?

कृषि वैज्ञानिकों ने आलू बीज उत्पादन (Potato Seed Production) की कई नई तकनीकें विकसित की हैं, जिससे आलू बीज की गुणवत्ता में और सुधार किया जा सके।

Potato Seed Production आलू बीज उत्पादन

आलू एक ऐसी फसल है जिसकी मांग सिर्फ़ भारत ही नहीं पूरी दुनिया में हैं और इसकी खपत बाकी सब सब्ज़ियों से ज़्यादा है। ऐसे में आलू की खेती (Aalu Ki Kheti) करके किसान मुनाफ़ा कमा सकते हैं, बशर्ते वो अच्छी गुणवत्ता वाले आलुओं का उत्पादन करें और इसके लिए उन्हें बेहतरीन बीजों की ज़रूरत होगी।

किसानों को आलू की फसल उगाने के साथ ही, आलू के उन्नत बीज उत्पादन पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है, क्योंकि जब बीज अच्छी गुणवत्ता के होंगे तभी तो फसल भी अच्छी होगी। ऐसे में कृषि वैज्ञानिकों ने आलू बीज उत्पादन की कई नई तकनीकें विकसित की हैं, जिससे आलू बीज की गुणवत्ता में और सुधार किया जा सके और किसानों को और बेहतर फसल मिल सके।

आलू बीज की गुणवत्ता में सुधार (Improving The Quality Of potato Seeds)

आलू के बीज (Potato Seed) की गुणवत्ता में सुधार के लिए ज़रूरी है कि शुरुआती बीज कंद का गुणन (multiplication), बिना खेत में ले जाए कम समय में ज़्यादा से ज़्यादा किया जाए। अगर बीज कंद का सीधे खेत में गुणन किया जाता है तो उसकी गुणवत्ता बहुत से कारकों से प्रभावित होती है। इसलिए आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल से बीज गुणन किया जाता है।

इसमें शुरुआती चरण का गुणन प्रयोगशाला में किया जाता है। इसके बाद का गुणन नेट हाउस में पूरा किया जाता है, जिससे फसल सुरक्षित रहती है। नेट हाउस में बीमारी फैलाने वाले वेक्टर का प्रभाव नहीं पड़ता है, जिससे फसल बीमारी से सुरक्षित रहती है। नई तकनीक से बीज तीन विधियों के ज़रिए बनाया जाता है-

सूक्ष्म पौध आधारित बीज उत्पादन (Micro Plant Based Seed Production)

इस विधि में वायरस फ़्री पौधों का उचित संख्या में पात्रे तकनीक विधि से टेस्ट ट्यूब में बैक्टीरिया फ़्री कंडिशन में गुणन किया जाता है और जब पौधे बड़े हो जाते हैं तब उनका और गुणन किया जाता है।

छोटे पौधों को सख्त बनाना

  • आमतौर पर 3-4 हफ़्ते पुराने छोटे पौधों को प्रो-ट्रे में शिफ्ट करते हैं, जिसमें पहले से ही बैक्टीरिया फ्री पीट-मॉस भरा रहता है।
  • रोपाई के बाद प्रो-ट्रे के पौधे के मीडिया को 0.2 प्रतिशत मैक्नोजेब के घोल से नम किया जाता है।
  • इसके बाद प्रो-ट्रे को अंधेरे में 48 घंटे के लिए रखा जाता है। उसके बाद 2-3 दिन तक 16 घंटे के लिए रोशनी में रखते हैं।
  • फिर प्रो-ट्रे को सख्तीकरण यानि सख्त बनाने के लिए उस कमरे में लाया जाता है जहां का तापमान 27 डिग्री सेल्सियस होता है। यहां पौधों को 10-15 दिन के लिए रखा जाता है।

छोटे कंद का उत्पादन

  • सख्त किए गए पौधों को पहले तैयार नर्सरी क्यारियों में लगाया जाता है। इन्हें लगाते समय कतार से कतार 30 सेंमी. और पौधे से पौधे की दूरी 10-15 सेंमी. रखी जाती है। नर्सरी की क्यारियों में मिट्टी, रेत और गोबर की खाद 2:1:1 के अनुपात में डाली जाती है।
  • रोपाई के बाद पौधों की तुरंत सिंचाई की जाती है और इसके बाद दिन में दो बार ज़रूरत के हिसाब से सिंचाई करनी चाहिए।
  • बीज फसल के लिए जितनी उर्वरक डालने की सलाह दी जाती है, उसकी आधी मात्रा ही डालें।
  • पूरा फॉस्फोरस, पोटाश और आधा नाइट्रोजन पौधों की रोपाई से पहले क्यारियां तैयार करते समय ही डालनी चाहिए। बचे हुए नाइट्रोजन को 45 दिन बाद मिट्टी भराई के समय डालना चाहिए।
  • सभी बीमार, वायरस से प्रभावित और अलग दिखने वाले पौधों को निकाल देना चाहिए।
  • पौधों के परिपक्व होने के बाद ही खुदाई करनी चाहिए। बीज फसल की लता काटने के 10-15 दिनों बाद ही कंद की खुदाई करनी चाहिए ताकि कंद का छिलका सख्त हो जाए। क्यूरिंग के लिए छोटे कंदों को छाया और हवादार जगह पर ढेर लगाकर 10-15 दिनों तक रखना चाहिए।
  • कंदों को दो श्रेणियों में बांट लेना चाहिए। पहला 3 ग्राम से ज़्यादा और दूसरा 3 ग्राम से कम। इसके बाद इसे बोरिक एसिड के 3 प्रतिशत घोल में 30 मिनट तक उपचारित करें, इससे आलू के बीज में रोग नहीं होंगे।
  • इसके बाद कंद बीजों को सुखाकर कोल्ड स्टोरेज में रख दें।

सूक्ष्म कंद आधारित बीज उत्पादन (Micro Tuber Based Seed Production)

नियंत्रित वातावरण वाले कमरे में ही सूक्ष्म कंद उगाए जाते हैं, फिर इन्हें नेट हाउस में लगाकर इनका बहुगुणन किया जाता है।

छोटे कंदों का उत्पादन

  • वायरस फ़्री स्टॉक के नोडल कटिंग को एम.एस. मीडिया पर कल्चर ट्यूब के अंदर बैक्टीरिया फ्री दशा में गुणन किया जाता है। इसके बाद 3-4 हफ्ते के छोटे पौधों की 3-4 नोड वाली कटिंग बनाते हैं जिसे 200 मिली. वाले फ्लास्क में 25-35 मिली. तरल मीडिया में डाल देते हैं और इन्हें 25 डिग्री सेल्सियस पर 16 घंटे के लिए रोशनी में रखते हैं।
  • आमतौर पर 3-4 हफ़्ते बाद जब पौधे की लंबाई बढ़ जाती है और बाकी बचे तरल मीडिया को निकाल देते हैं, तब नया मीडिया इसमें डालते हैं।
  • छोटे कंद बनने में सहायक मीडिया को 40 मिली. प्रति फ्लास्क की दर से डालते हैं। इसके बाद फ्लास्क को पूरे अंधेरे कमरे में 15 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान पर 60-90 दिनों तक के लिए रखते हैं। फिर इस पर छोटे-छोटे कंद बन जाते हैं जिनकी संख्या 15-20 प्रति फ्लास्क होती है और इसका वज़न प्रति कंद 50-300 मिग्रा. तक होता है।
  • कंद तोड़ने के पहले इन फ्लास्क को बढ़ने वाले कक्ष में 22-24 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान पर 16 घंटे की रोशनी में 10-15 दिन तक रखते हैं ताकि कंद हरे रंग के हो जाएं। इससे इनकी भंडारण क्षमता बढ़ जाती है यानी इन्हें ज़्यादा दिनों तक के लिए स्टोर किया जा सकता है।
  • फिर सावधानीपूर्वक पौधों को फ्लास्क से निकालकर सूक्ष्म कंदों को तोड़कर अलग कर देते हैं और ध्यान रखते हैं कि कंदों के ऊपरी सतह पर किसी तरह का नुकसान न हो पाए। इसके बाद कंदों को धोकर 0.1 प्रतिशत कार्बेन्डाजिम के घोल में 10 मिनट तक के लिए उपाचारित कर लेते हैं और फिर अंधेरे कमरे में 20 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान पर सूखने के लिए छोड़ देते हैं। बाद में इन्हें छेद वाली पॉलीथीन में भरकर कोल्ड स्टोरेज में 5-6 महीने के लिए रखा जा सकता है।

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ऐरोपॉनिक आधारित बीज उत्पादन (Aeroponic Based Seed Production)

आपने ऐरोपिक खेती के बारे में तो सुना ही होगा, जहां बंद कमरों में बिना मिट्टी के फसल उगाई जाती है। ऐरोपॉनिक तकनीक से आलू बीज का उत्पादन किया जाता है। इस विधि में पौधे का ऊपरी भाग हवा और रोशनी में बढ़ता है, जबकि जड़ और कंद एक बंद बक्से में बढ़ते हैं।

छोटे कंद का उत्पादन

  • आमतौर पर 3-4 हफ़्ते पुराने छोटे पौधों की कटिंग को प्रो-ट्रे में लगाते हैं। कटिंग लगाने के तुरंत बाद डाइथेन एम. जेड-78 और वाबिस्टिन के घोल से पौधों की सिंचाई की जाती है।
  • पहले 48 घंटे तक इसे अंधेरे में रखा जाता है और फिर 3-4 दिनों तक 16 घंटे रोशनी में रखते हैं। इसके बाद 27 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान पर 15 दिनों के लिए रखते हैं ताकि पौधे सख्त हो जाएं। सभी ज़रूरी पोषक तत्वों का घोल बनाकर ‘पोषक चैम्बर’ में डाल देते हैं और इसका पी.एच. मान स्थिर कर लेते हैं। पहले दो सप्ताह तक जड़ बनने में मदद करने वाले तत्वों को घोल में मिलाकर देते रहते हैं।
  • सख्त हो चुके पौधों को प्रो-ट्रे से निकालकर उनके जड़ वाले भाग को काटकर बॉक्स के छत पर 20 मिलीमीटर व्यास के छेद में लगा देते हैं। पौधों से पौधों की दूरी दोनों तरफ से 15 सेंमी. रखी जाती है।
  • आलू की शाखाएं वृद्धि कक्ष के ऊपर हवा और रोशनी में बढ़ती है, जबकि जड़ और कंद कक्ष के अंदर अंधेरे में बढ़ती है। इसके बाद इस कमरे में पोषक तत्व के घोल को मशीन की मदद से धुंध के रूप छि़ड़काव किया जाता है। इससे नमी बनी रहती है और पौधे सूखते नहीं है। इस विधि में एक माह में जड़ विकसित हो जाती हैं और इसके बाद कंद बनने में मदद करने वाले पोषक तत्वों के घोल का इस्तेमाल किया जाता है।
  • कंद की पहली तुड़ाई 45 दिनों पर कर सकते हैं। इसके लिए साइड पैनल या ऊपरी पैनल को हटाकर हाथ से कंद को तोड़कर अलग कर लेते हैं। स्टोर करने से पहले 24-48 घंटों तक इन्हें सूखाते हैं फिर उपचारित करके कोल्ड स्टोरेज में स्टोर कर देते हैं। 3 ग्राम से बड़े कंदों को बुवाई में इस्तेमाल किया जाता है, जबकि इससे छोटे कंदों को नेट हाउस में लगाकर एक बार फिर से इनका गुणन किया जाता है।

आलू की खेती से मुनाफा कमाने के लिए ज़रूरी है कि किसान रोगमुक्त बीजों का चुनाव करें। आलू की बुवाई से पहले खेत की मिट्टी को जैविक तीरके से तैयार कर लेना चाहिए, जिससे आलू की अच्छी पैदावार मिलती है। सात ही बुवाई से पहले बीजों को उपचारित कर लेने से फसल में रोग की संभावना भी कम हो जाती है।

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सम्पर्क सूत्र: किसान साथी यदि खेती-किसानी से जुड़ी जानकारी या अनुभव हमारे साथ साझा करना चाहें तो हमें फ़ोन नम्बर 9599273766 पर कॉल करके या [email protected] पर ईमेल लिखकर या फिर अपनी बात को रिकॉर्ड करके हमें भेज सकते हैं। किसान ऑफ़ इंडिया के ज़रिये हम आपकी बात लोगों तक पहुंचाएंगे, क्योंकि हम मानते हैं कि किसान उन्नत तो देश ख़ुशहाल।

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