देश के कृषि वैज्ञानिक और सरकार किसानों की आय बढ़ाने की हर संभव कोशिश कर रही है। इसी क्रम में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) पूसा ने सरसों की एक नई किस्म पूसा मस्टर्ड-32 (Pusa Mustard- 32) विकसित की है।
इससे न सिर्फ प्रति हेक्टेयर जमीन में सरसों का औसत उत्पादन 10 क्विंटल बढ़ जाएगा। साथ ही इसे खाने से हृदय रोग का खतरा कम होगा। सरसों की इस नई किस्म को भारत सरकार ने हरी झंडी दे दी है। एक साल में यह बीज बाजार में आ जाएगा।
ये भी पढ़े: खाद और बीज की दुकान खोलना चाहते हैं तो जानिए कैसे मिलेगा लाइसेंस
ये भी पढ़े: पोल्ट्री फार्मिंग योजना के तहत महिलाओं को मिलेगी 100% सब्सिडी, जानें लाभ उठाने के तरीके
संस्थान के निदेशक डॉ. अशोक कुमार सिंह के मुताबिक सरसों के तेल में आमतौर पर 42 फीसदी फैटी एसिड होता है। इसे हम इरुसिक एसिड कहते हैं। यह हृदय संबंधी बीमारियों का कारण बनता है। इसकी जगह पूसा मस्टर्ड-32 सरसों के तेल में इरुसिक एसिड 2 फीसदी से भी कम होगा।
इसके अलावा अभी देश में सरसों की औसत पैदावार प्रति हेक्टेयर सिर्फ 15 क्विंटल है, लेकिन पूसा की नई किस्म की खेती करने से किसानों को 25 क्विंटल की पैदावार मिलेगी।
सरसों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) 4650 रुपए प्रति क्विंटल है। इस तरह पूसा मस्टर्ड-32 किस्म की खेती से किसान भाई प्रति हेक्टेयर करीब 1.16 लाख रुपये की कमाई कर सकेंगे। इस तरह सामान्य सरसों की अपेक्षा नई किस्म से किसानों को करीब 46 हजार रुपये ज्यादा मिलेंगे।
पूसा मस्टर्ड डबल जीरो-31 पशुओं के लिए लाभदायक
इससे पहले पूसा ने मस्टर्ड डबल जीरो 31 किस्म विकसित की थी। इसमें भी इरुसिक एसिड 2 फीसदी से कम है। सामान्य सरसों की प्रति ग्राम खली में ग्लूकोसिनोलेट की मात्रा 120 माइक्रोमोल होती है,जबकि मस्टर्ड डबल जीरो 31 (पूसा-31) में यह 30 माइक्रोमोल से कम है।
ग्लूकोसिनोलेट एक सल्फर कंपाउंड होता है। इसका इस्तेमाल उन पशुओं के भोजन के रूप में नहीं किया जाता जो जुगाली नहीं करते, क्योंकि इससे उनके अंदर घेंघा रोग हो जाता है।
पूसा-31 में झाग कम
इस किस्म की फसल 100 दिन में पक जाती है। दक्षिण भारत के लोग झाग की वजह से सरसों के तेल का इस्तेमाल कम करते हैं। पूसा-31 किस्म की सरसों में झाग न के बराबर होने से इसकी बुआई दक्षिण के किसान भी कर सकते हैं।रसों की नर्ई किस्म