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मखाना उत्पादन के मामले में बिहार अग्रणी है, यहां का मिथिलांचल इलाका खासतौर पर मखाने की खेती के लिए जाना जाता है और मिथिला का मखाना देश ही नहीं विदेशों में भी लोकप्रिय है, यही नहीं मिथिला मखाना को जीआई टैग भी मिला हुआ है। मखाने का उत्पादन (Production of Makhana) तो बिहार में बड़े पैमाने पर होता है, मगर किसानों के लिए इसकी मार्केटिंग का काम आसान नहीं था, इसलिए सरकार की ओर से उन्हें FPO बनाने के लिए प्रेरित किया गया, जिससे उन्हें बहुत फ़ायदा हुआ है।
ऐसा ही एक FPO बनाया बिहार के आशुतोष ठाकुर ने, उनकी कंपनी का नाम है मिथलाराज कृषक प्रोड्यूसर। FPO बनाकर आशुतोष ठाकुर अपने साथ 700 से ज़्यादा किसानों को जोड़ चुके हैं, जिससे बड़े पैमाने पर मखाने की मांग पूरी करना तो संभव हुआ ही है, साथ ही किसानों की बाज़ार की टेंशन भी खत्म हो गई। FPO और बिहार में मखाने की खेती से जुड़ी अहम बातों पर उन्होंने चर्चा की किसान ऑफ इंडिया के संवाददाता सर्वेश बुंदली से।
3 साल पहले शुरू किया काम (Started work 3 years ago)
मिथलाराज कृषक प्रोड्यूसर कंपनी के अध्यक्ष आशुतोष ठाकुर FPO की शुरुआत के बारे में बताते हैं कि 3 साल पहले जब किसान आंदोलन शुरू हुआ तब बहुत से लोगों ने कहा कि किसानों के साथ अन्याय हो रहा है, मगर बिहार के किसानों की विडंबना ये रही कि उनके पास बेचने के लिए पर्याप्त मखाना ही नहीं था। जब ई हमसे कहता था कि थोक में मखाना दीजिए तो हमारे पास होता नहीं होता था।
क्योंकि यहां किसी के पास ज़्यादा ज़मीन ही नहीं बची थी। फिर PMO ने 10 हज़ार FPO बनाने की स्कीम बनाई। पहले हर जिला में 1-2 FPO बनना शुरु हुआ, जिला प्रशासन की ओर से उन्हें भी कहा गया कि आप FPO बनाए आपको सरकार की तरफ से मदद मिलेगी। इस तरह आशुतोष ठाकुर ने FPO बनाया और उनके साथ अब 700 से भी अधिक किसान जुड़ चुके हैं।
मार्केटिंग हुई आसान (Marketing made easy)
आशुतोष कहते हैं कि FPO बनाने के बाद मार्केटिंग में सुविधा हो गई। पहले सिर्फ 2 टन ही मखाने का उत्पादन (Production of Makhana) कर पाते थे, तो ज़्यादा जगह सप्लाई संभव नहीं थी, लेकिन अब 700 किसान जुड़ चुके हैं, तो उत्पादन कई गुणा बढ़ गया है। पहले लोग उनसे पूछते थे कि कितना देंगे, अब आशुतोष पूछते हैं कि कितना चाहिए।
यानी अब उत्पादन इतना होता है कि वो आसानी से थोक मांग को पूरा कर सकते हैं। सालाना करीब 150 टन मखाने का उत्पादन (Production of Makhana) उनका FPO कर रहा है। उनका कहना है कि ये सब FPO बनने के बाद ही संभव हो पाया है, इससे बहुत सुविधा हो गई, क्योंगि अब बड़े-बड़े प्लेटफॉर्म मिलने लगे। बिहार सरकार ने हाल ही में मखाना महोत्सव का आयोजन किया और आशुतोष की कंपनी को स्टॉल लगाने और अपने उत्पाद का प्रर्दशन करने के लिए कहा गया।
खेती के साथ ही मूल्य संवर्धन उत्पाद भी (Apart from farming, value addition products are also being produced)
मखाने का उत्पादन (Production of Makhana) करने के साथ ही मिथलाराज कृषक प्रोड्यूसर कंपनी इसके मूल्य संवर्धन उत्पाद भी बना रही है, जिससे इसके उपयोग में विविधता आए। कंपनी मखाना पाउडर भी बनाती है जिसका खीर में इस्तेमाल किया जा सकता है या दूध में मिलाकर पी सकते हैं, मखाने का हलवा और बर्फी भी बनाती है। आशुतोष बताते हैं कि हलवा बनाने मुख्य सामग्री तो मखाना ही है, लेकिन स्वाद बढ़ाने के लिए थोड़ी सी मूंगफली और सूजी भी डाला जाता है।
कितने साल से कर रहे हैं खेती (For how many years have you been doing farming)
आशुतोष के FPO ने बहुत जल्दी बड़ी संख्या में सैंकड़ों किसान जुड़ चुके हैं, मगर मखाने की खेती का उनका अनुभव नया ही है, वो कहते हैं कि उन्हें अभी हाल ही में मखाने की खेती शुरु किए है। हालांकि उनके खेत में 55 साल से इसकी खेती देखते आ रहे हैं। दरअसल, पहले मल्लाह उनके खेतों में पोखर बनाकर मखाने की खेती करते थे और उसमें से वो जितनी भी मांग करते थे 5,10 किलो, वो उन्हें मिल जाता था। मगर पिछले कुछ सालों में जिस तरह से मखाने के स्वास्थ्य लाभ का प्रचार-प्रसार हुआ है उससे लोगों में जागरुकता बढ़ी और इसकी बढ़ती मांग के मद्देनज़र आशुतोष ने भी इसकी खेती शुरू कर दी।
मखाने का सबसे बड़ा उत्पादक मिथिलांचल (Mithilanchal is the largest producer of Makhana)
आपको जानकर शायद हैरानी होगी कि पूरी दुनिया के 85 प्रतिशत मखाने का उत्पादन (Production of Makhana) अकेले मिथिलांचल में ही होता है। आशुतोष ठाकुर बताते हैं कि मखाने की खेती की शुरुआत मधुबनी-दरभंगा से ही हुई, लेकिन अब बिहार के सहरसा और पूर्णिया जिले में भी इसका बड़े पैमाने पर उत्पादन हो रहा है और यह मधुबनी-दरभंगा से भी आगे निकल गया है।
वो बताते हैं कि उनके यहां पोखर में मखाने का उत्पादन होता है, जबकि कई जगहों पर अब आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करके खेत में पानी डालकर ही इसकी खेती की जा रही है। दोनों तरीकों में अंतर के बारे में बात करके हुए वो कहते हैं कि पोखर वाला मखाना ज़्यादा सफेद होता है, जबकि खेत वाला थोड़ा पीला होता है, हालांकि इन दोनों की पौष्टिकता एक जैसी ही होती है।
मखाना बनाने की प्रक्रिया है जटिल (The process of making makhana is complicated)
सफेद गोल-गोल मखाना दिखने में तो बहुत सुंदर लगता है, मगर क्या आपको पता है कि इसे कच्चे रूप से बेचने लायक रूप में लगाने के लिए किसानों को बहुत मेहनत करनी पड़ती है। आशुतोष बताते हैं कि मखाने को पानी से निकालने की प्रक्रिया भी जटिल है, पोखरा में ज़्यादा पानी होता है, तो वहां गोता लगाकर इसे निकाला जाता है, जबकि खेत में पानी कम होता है तो वहां इसे निकालना आसान होता है। पानी से निकालने के बाद मखाने को फोड़ा जाता है, फोड़ने में अलग-अलग तरहप का लावा निकलता है जैसे ठुरी, 4 सूता, 5 सूता 6 सूता आदि। अलग-अलग मखाने के स्वाद और कोमलता में भिन्नता होती है।
सबसे अच्छी गुणवत्ता का पता कैसा चलेगा (How to find the best quality)
आशुतोष का मानना है कि मखाने में अच्छा और खराब कुछ नहीं होता है। उनका कहना है कि यदि किसी को फ्लेवर्ड मखाना बनाना है या भूजा के रूप में इसे खाना है तो छोटे साइज़ वाला ज़्यादा अच्छा होगा, जबकि पाउडर बनाने के लिए कोई भी चलेगा। जबकि ड्राई फ्रूट के रूप में खाने वालों के बीच इसके बड़े दाने ही लोकप्रिच हैं। दरअसल, बड़े दाना वाला मखाना अच्छा होता है और इसकी मांग सबसे अधिक है।
आशुतोष बताते हैं कि एक्सपोर्ट के हिसाब से 5 सूता मखाने की मांग सबसे ज़्यादा होती है। जबकि फ्लेवर्ड मखाना बनाने के लिए छोटा वाला मखाना और रोस्टिगं के लिए 4 सूता वाला मखाना अच्छा होता है। मखाने में सूता का मतलब एमएम है यानी एक सूता मतलब 2.5 ढाई एमएम और 6 सूता मतलब 15 एम.एम। मखाने के विभिन्न उपयोग का फ़ायदा ये होता है कि इसमें कुछ भी वेस्ट नहीं होता है। हर तरह का मखाना इस्तेमाल होता है। आशुतोष बताते हैं कि मखाने से निकलने वाले काले छिलके का कॉस्मेटिक इंडस्ट्री में इस्तेमाल करने की तैयारी चल रह है।
कौन-जुड़ सकता है FPO से (Who can join FPO)
आशुतोष का कहना है कि कोई भी किसान जो उनके ब्लॉक के तहत आता हो और उसका बैंक खाता है तो वो उनसे जुड़ सकता है। उनके हिसाब से इनपुट स्पालायर भी किसान है, यदि कोई बड़ा व्यापारी कंपनी का मखाना बेच देता है तो वो भी किसान है। कृषि से जुड़ा काम करने वाला हर व्यक्ति किसान है और वो FPO से जुड़ सकता है।
मार्केटिंग कैसे करते हैं (how to do marketing)
आशुतोष ठाकुर बताते हैं कि FPO बनाने का मकसद यही है कि उत्पाद की मार्केटिंग हो जाए। इससे किसानों को फ़सल उगाने के बाद बेचने की टेंशन से आज़ादी मिल जाती है और उन्हें फ़सल की उचित कीमत भी मिल जाती है।
बरसात और सर्दी के लिए खास पैकिंग (Special packing for rainy and winter season)
बारिश और ठंड के मौसम में अक्सर नमी की समस्या रहती है जिससे मखाने को बचाने के लिए पैकिंग के समय खास ध्यान रखा जाता है। आशुतोष बताते हैं कि जिस मखाने को दो साल तक रखना होता है इसकी पैकिंग लाइनिंग वाली प्लास्टिक में की जाती है। जिससे नमी अंदर नहीं जा पाती।
निष्कर्ष (Conclusion)
आशुतोष ठाकुर अपने FPO बिज़नेस से अच्छी कमाई कर रहे हैं और किसानों को भी मदद मिल रही है, इसलिए वो युवाओं को भी छोटी-मोटी नौकरी की बजाय खेती से जुड़ने की सलाह दे रहे हैं। जहां तक बिहार के मखाने की बात है तो ये बिहार खासतौर पर मिथिलांचल की पहचान बन चुका है। सिर्फ मधुबनी जिले में ही 25,000 से अधिक तालाब हैं, जहां मखाने की खेती होती है।
देश में लगभग 15 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मखाने की खेती होती है, जिसमें 80 से 90 फीसदी उत्पादन अकेले बिहार में होता है। इसके 10 जिलों सीतामढ़ी, मधुबनी, दरभंगा, सुपौल, सहरसा, मधेपुरा, अररिया, पूर्णिया, कटिहार और किशनगंज में बेहतरीन गुणवत्ता वाले मखाने का उत्पादन होता है। इसकी गुणवत्ता को देखते हुए ही मिथिलांचल के मखाने को GI Tag भी दिया गया है और यहां के मखाने को अब मिथिला मखाने के नाम से जाना जाता है।
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