यदि आप भारत के उत्तर-पश्चिमी मैदानी इलाके में गेहूँ की खेती करने वाले किसान हैं तो आपके लिए दिल्ली के भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान (IARI) ने एक बेहद उन्नत किस्म विकसित की है। इसका नाम है – पूसा यशस्वी या HD-3226. इसमें 79.6 क्विंटल/हेक्टेयर तक पैदावार देने की क्षमता है जो गेहूँ की अन्य उन्नत किस्मों जैसे HD-2967, WH-1105, DBW-88 और DPW-621-50 से भी बेहतर है।
पूसा यशस्वी में गेहूँ की मुख्य बीमारियों जैसे रतुआ, करनाल बंट, पाउडरी मिल्ड्यू, फुट रॉट वग़ैरह के प्रति भी ज़बरदस्त प्रतिरोधकता है। इसीलिए इसे किसी रासायनिक नियंत्रण की ज़रूरत नहीं पड़ती। लेकिन सही पैदावार पाने के लिए खेतों का सिंचाई युक्त होना चाहिए और बुआई सही समय पर ही होनी चाहिए। ज़ाहिर है, किसानों के लिए पूसा यशस्वी को अपनाने का मतलब है, लागत में कमी और कमाई में इज़ाफ़ा।
किसानों के अलावा पूसा यशस्वी का इस्तेमाल गेहूँ आधारित आटा उद्योग के लिए भी बहुत फ़ायदे का सौदा है, क्योंकि इसमें प्रोटीन और ज़िंक की मात्रा बाक़ी किस्मों से कहीं ज़्यादा पायी जाती है। इसे उत्तर-पश्चिमी भारत के मैदानी इलाकों पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, पश्चिम उत्तर प्रदेश, राजस्थान (कोटा और उदयपुर क्षेत्र को छोड़कर), उत्तराखंड का तराई क्षेत्र, जम्मू-कश्मीर के कठुआ, हिमाचल प्रदेश के ऊना तथा पोंटा घाटी में पैदा होने वाले गेहूँ के इलाकों के लिए बेहद उपयोगी पाया गया है।
पूसा यशस्वी की विशेषताएँ
पूसा यशस्वी की औसत लम्बाई 106 सेंटीमीटर है। ये बुआई के 142 दिनों बाद परिपक्व हो जाती है। इसकी कटाई और मड़ाई भी आसान है। इसका कल्ला शंकु के आकार का, मध्यम घनत्व वाला तथा मध्यम लम्बाई वाला होता है। फसल पकने के बाद कल्लों का रंग सफ़ेद और इसके दानों का रंग सुनहरा या एम्बर कलर का, आयताकार, चमकदार और मध्यम चौड़ाई का होता है। यह किस्म उपज क्षमता और गुणवत्ता मानकों में जैसे प्रोटीन (10.65 प्रतिशत), गीला ग्लूटेन (12.37 प्रतिशत) और सूखा ग्लूटेन (19.10 प्रतिशत) में सर्वोपरि है।
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वर्ष 2014 से 2017 के दौरान 56 स्थानों पर सिंचित और सामान्य बुआई की दशाओं में पूसा यशस्वी का परीक्षण किया गया, जिसमें गेहूँ की अन्य उन्नत किस्मों HD-2967, WH-1105, DBW-88, HD-3086 और DPW-621-50 के मुकाबले इसने क्रमशः 9.0, 4.3, 4.7, 0.1 और 3.1 प्रतिशत ज़्यादा पैदावार दी। पूसा यशस्वी के 1000 दानों का औसत वजन 40.3 ग्राम पाया गया।
मिट्टी और पानी की जाँच ज़रूरी है
बुआई से पहले खेत की मिट्टी और पानी की जाँच अवश्य कराएँ। ताकि उर्वरक और सिंचाई की सही मात्रा का ही इस्तेमाल हो और नाहक लागत नहीं बढ़े। कभी-कभार खेत में सूक्ष्म तत्वों जैसे ज़िंक तथा बोरॉन की कमी, पानी का खारापन, मिट्टी में लवणता जैसी दशाएँ ज़्यादा पैदावार लेने में बाधक बनती हैं।
पूसा यशस्वी की खेती की विधि | |
उत्पादन प्रक्रिया | सिंचित दशा में समय पर बुआई |
बीज दर | 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर |
बुआई का समय | 5 से 25 नवम्बर |
उर्वरक की मात्रा प्रति हेक्टेयर | नाइट्रोजन: 150 (यूरिया 255 किग्रा), फॉस्फोरस: 80 (DAP 175 किग्रा) पोटाश: 60 (MOP 100 किग्रा) |
उर्वरक देने का समय | बुआई के समय फॉस्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा के साथ एक-तिहाई नाइट्रोजन। बाक़ी नाइट्रोजन समान रूप से पहली और दूसरी सिंचाई के बाद। |
सिंचाई | बुआई के 21 दिनों बाद पहली सिंचाई और फिर आवश्यकता अनुसार |
खरपतवार नियंत्रण | 400 ग्राम/हेक्टेयर बुआई के 27-35 दिनों के बाद। |
अधिकतम उत्पादन के लिए सिफ़ारिशें | अक्टूबर के आख़िरी पखवाड़े में बुआई, नाइट्रोजन की उपयुक्त मात्रा और अवधि पर इस्तेमाल तथा अधिक बढ़वार रोकने के लिए लिहोसिन 0.2 प्रतिशत टेबुकोनाजोल (फोलिकर) 0.1 प्रतिशत का 50 दिनों के बाद तथा फ्लैग लीफ अवस्था पर इस्तेमाल करें। |
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