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उत्तर प्रदेश के कौशाम्बी जिले के तेंगई गांव के निवासी रवींद्र कुमार पांडे ने नई कृषि तकनीकों के इस्तेमाल से प्रदेश में एक महत्वपूर्ण पहचान बनाई है। 11 अक्टूबर 1989 को जन्मे रवींद्र ने अपने 11-15 एकड़ के खेतों में कई आधुनिक विधियों का सफलतापूर्वक उपयोग किया है, जिससे न केवल उनकी आय में वृद्धि हुई है बल्कि अन्य किसानों को भी नई राह दिखाई है। उनका मानना है कि नई कृषि तकनीकों का उपयोग कर न केवल कृषि उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है, बल्कि यह किसानों की आर्थिक स्थिति को भी सुदृढ़ कर सकता है।
जैविक खेती और ड्रैगन फ्रूट का प्रयोग
रवींद्र कुमार पांडे ने उत्तर प्रदेश में नई कृषि तकनीकों में जैविक खेती के माध्यम से ड्रैगन फ्रूट की खेती की शुरुआत करके न केवल राज्य में बल्कि अन्य राज्यों में भी अपनी एक विशेष पहचान बनाई है। 2016 में जब उन्होंने जैविक तरीके से ड्रैगन फ्रूट की खेती की पहल की, तब उत्तर प्रदेश के किसान इस फल से लगभग अपरिचित थे। उन्होंने देखा कि ड्रैगन फ्रूट न केवल स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है, बल्कि इसकी मांग भी तेजी से बढ़ रही है, खासकर बड़े शहरों में। इसे ध्यान में रखते हुए उन्होंने जैविक तरीकों का उपयोग कर इसकी खेती शुरू की, जिससे पर्यावरण पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ा और मिट्टी की गुणवत्ता बनी रही।
ड्रैगन फ्रूट की खेती का प्रसार
रवींद्र का मानना है कि नई कृषि तकनीकों के ज़रीये ड्रैगन फ्रूट की खेती कम पानी में की जा सकती है, जो सूखाग्रस्त क्षेत्रों के लिए एक आदर्श विकल्प है। इस फल के पौधे को अधिक देखभाल की आवश्यकता नहीं होती, और एक बार फलने के बाद यह कई वर्षों तक अच्छी पैदावार देता है। रवींद्र ने अन्य किसानों को भी इस फसल की जानकारी दी और उन्हें इसके पौधे उपलब्ध कराए, ताकि वे भी इस लाभकारी फसल की खेती कर सकें। उन्होंने न केवल उत्तर प्रदेश में बल्कि उड़ीसा, मध्य प्रदेश जैसे अन्य राज्यों में भी ड्रैगन फ्रूट की खेती का प्रसार किया, जिससे कई किसान इस नई फसल की ओर आकर्षित हुए।
जैविक खेती में नवाचारों को अपनाया
रवींद्र ने जैविक खेती (Organic Farming) में कई नवाचारों को अपनाया है, जिससे ड्रैगन फ्रूट की गुणवत्ता और उत्पादन में वृद्धि हुई। उनका मानना है कि जैविक खेती (Organic Farming) के माध्यम से किसानों को अपनी आय को बढ़ाने का एक सशक्त साधन मिल सकता है, जबकि साथ ही उपभोक्ताओं को भी सुरक्षित और पौष्टिक उत्पाद प्राप्त होते हैं। जैविक खेती से उत्पादों में कीटनाशकों और रसायनों का उपयोग नहीं होता, जिससे फसल की गुणवत्ता उच्च होती है और इसे बाजार में अच्छा मूल्य मिलता है। रवींद्र ने इस फसल के लिए ड्रिप इरीगेशन और मल्चिंग जैसी तकनीकों का भी उपयोग किया, जिससे पानी की बचत और उत्पादन में सुधार हुआ। उनके प्रयासों ने न केवल उनकी आय में वृद्धि की है, बल्कि उन्हें विभिन्न पुरस्कारों से भी नवाजा गया है, जिससे उनकी पहचान एक अग्रणी जैविक किसान के रूप में हुई है।
ड्रिप इरीगेशन और मल्चिंग तकनीक का इस्तेमाल
रवींद्र कुमार पांडे ने अपनी जैविक खेती (Organic Farming) में ड्रिप इरीगेशन और मल्चिंग तकनीक का उपयोग कर एक नई मिसाल पेश की है। उन्होंने जल संरक्षण की दृष्टि से ड्रिप इरीगेशन प्रणाली को अपनाया, जिससे पानी की खपत में कमी आई और फसलों को समय पर आवश्यक नमी प्राप्त हुई। इस तकनीक के माध्यम से उन्होंने केले और आलू जैसी प्रमुख फसलों में उच्च उत्पादकता हासिल की है। ड्रिप इरीगेशन से जल की बचत होने के साथ-साथ मिट्टी में आवश्यक पोषक तत्वों का संतुलन भी बना रहता है, जिससे पौधों का स्वास्थ्य बेहतर होता है और फसल की गुणवत्ता में सुधार होता है।
मल्चिंग तकनीक का सफलतापूर्वक उपयोग
रवींद्र ने तरबूज, खरबूज और स्ट्रॉबेरी जैसी फसलों के लिए मल्चिंग तकनीक का भी सफलतापूर्वक उपयोग किया है। मल्चिंग एक ऐसी विधि है जिसमें फसल के आसपास मिट्टी को ढकने के लिए कार्बनिक या अकार्बनिक सामग्री का उपयोग किया जाता है। इस विधि से न केवल मिट्टी में नमी बरकरार रहती है, बल्कि फसलों को खरपतवार से भी सुरक्षा मिलती है। इसके अतिरिक्त, मल्चिंग से मिट्टी का तापमान संतुलित रहता है, जो विशेषकर ग्रीष्मकाल में पौधों के लिए फायदेमंद साबित होता है। यह विधि फसलों के लिए उर्वरक का भी काम करती है और जैविक खेती के लिए एक आदर्श तकनीक मानी जाती है।
ड्रिप और मल्चिंग तकनीक का प्रभाव
रवींद्र का मानना है कि इन तकनीकों के इस्तेमाल से फसल उत्पादन में स्थिरता आती है और पर्यावरण के लिए भी ये तकनीकें अनुकूल हैं। ड्रिप इरीगेशन के कारण जहां पानी की बचत होती है, वहीं मल्चिंग के कारण मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार होता है। उनके खेतों में यह देखने को मिला है कि ड्रिप और मल्चिंग तकनीक का प्रभाव केवल उत्पादकता तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इससे फसल की गुणवत्ता भी बेहतर होती है। उनके इन नवाचारों के कारण उनकी आय में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, और अब वह अन्य किसानों को भी इन तकनीकों के उपयोग के लिए प्रेरित कर रहे हैं। इन उन्नत विधियों के प्रति उनका दृष्टिकोण और उनकी मेहनत ने उन्हें कृषि के क्षेत्र में एक सफल उद्यमी बना दिया है।
बायोगैस का निर्माण और उसका उपयोग
रवींद्र कुमार पांडे ने अपनी खेती में बायोगैस निर्माण का एक महत्वपूर्ण प्रकल्प तैयार किया है, जिसमें कृषि अपशिष्ट और गोबर का उपयोग कर पर्यावरण-संवर्धन और ऊर्जा-संरक्षण की दिशा में एक अनोखा कदम उठाया है। इस प्रणाली में बायोगैस संयंत्र द्वारा उत्पन्न गैस को वह घरेलू उपयोग में लाते हैं, जिसमें खाना पकाने के अलावा बिजली जलाने और सिंचाई कार्यों में भी बायोगैस का उपयोग होता है।
पर्यावरण प्रदूषण में कमी
रवींद्र के इस प्रकल्प से न केवल उन्हें ऊर्जा की बचत होती है, बल्कि पर्यावरण प्रदूषण में भी कमी आती है। गोबर और जैविक अपशिष्ट से गैस उत्पादन के कारण खाद के रूप में स्लरी का निर्माण भी होता है, जो जैविक खाद के रूप में खेतों में उपयोग किया जाता है, जिससे मिट्टी की उर्वरता में सुधार होता है। उनके इस कदम को कई मंचों पर सराहा गया है और इसे अन्य किसानों के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण के रूप में देखा जा रहा है। इस नवाचार के कारण रवींद्र ने स्थानीय समुदाय में एक प्रेरणादायक भूमिका निभाई है, जहां अन्य किसान भी इस पहल को अपनाकर खेती में आत्मनिर्भर बनने का प्रयास कर रहे हैं।
सरकारी योजनाओं और पुरस्कारों का लाभ
रवींद्र ने अपनी खेती में ड्रिप इरीगेशन प्रणाली के लिए सरकारी योजनाओं का लाभ उठाया है। उनकी इस मेहनत और नवाचारों के चलते उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार, ICAR, ATARI जोन, कृषि विज्ञान केंद्र (KVK) और कई विश्वविद्यालयों द्वारा विभिन्न सम्मान प्राप्त हुए हैं। यह पुरस्कार और सम्मान उनके नवाचारी प्रयासों और किसानों को प्रेरित करने की उनकी भावना का प्रतिफल हैं।
नई तकनीकों से भविष्य की ओर
रवींद्र का लक्ष्य है कि वे अपनी कृषि गतिविधियों में और अधिक तकनीकी नवाचार करें और अन्य किसानों को भी इनका लाभ पहुंचाएं। वे अपने अनुभवों को साझा करते हुए स्थानीय किसानों को जैविक खेती, ड्रिप इरीगेशन और मल्चिंग तकनीक के बारे में जागरूक करते हैं। उनका मानना है कि आधुनिक कृषि तकनीकों का प्रयोग कर न केवल किसानों की आमदनी बढ़ाई जा सकती है, बल्कि खेती को भी अधिक टिकाऊ और पर्यावरण के अनुकूल बनाया जा सकता है।