दलहनी फसलें न सिर्फ़ इंसान और पशुओं के पोषण के लिए बेहद ज़रूरी हैं, बल्कि जिस ज़मीन पर इन्हें उगाया जाता है उसे भी ये आगामी फसलों के लिए उपजाऊ बना देती हैं। दलहन की खेती से मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ जाती है। दलहनी फसलों की जड़ों में पाये जाने वाले लाभदायक बैक्टीरिया वायुमंडल से नाइट्रोजन को खींचकर न सिर्फ़ अपना पोषण करते हैं बल्कि मिट्टी में भी नाइट्रोजन की मात्रा को बढ़ा देते हैं। इसीलिए दलहन की खेती को ‘सहजीवी विधि से मिट्टी का उपजाऊपन बढ़ाना’ भी कहा जाता है।
अरहर की खेती की विशेषता
ज़मीन से पोषण लेकर उसे वापस लौटाने के लिहाज़ से अरहर की फसल का जबाब नहीं। अरहर की फसल ‘सहजीवी विधि’ की बदौलत न सिर्फ़ नाइट्रोजन की अपनी आवश्यकता को पूरा करती है, बल्कि क़रीब 40 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से अपने खेत की मिट्टी में भी नाइट्रोजन की मात्रा को बढ़ा देती है। इसके अलावा, फसल पकने के दौरान अरहर की जो पत्तियाँ पौधों से झड़कर मिट्टी पर गिरते हैं वो भी सड़कर मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा को बढ़ाते हैं। सीमित नमी की दशा में भी अरहर की मूसलाधार जड़ें (tap roots) अपने पौधों के विकास को सुनिश्चित करती हैं। इस तरह अरहर की खेती से मिट्टी के जैविक और रासायनिक गुणों को सुधारने में काफ़ी मदद मिलती है।
अरहर के पौधों में परागण और फसल चक्र
अरहर के पौधों में स्व-परागण (self pollination) और पर-परागण (cross pollination) दोनों करने की ख़ूबियाँ होती हैं। स्व-परागण, फूल के खिलने से पहले कली अवस्था में ही हो जाता है। जबकि पर-परागण का काम मधुमक्खियाँ करती हैं। पर-परागण की सीमा 3 से 26% तक हो सकती है। लेकिन ये अरहर की प्रजाति और उसकी बुआई के इलाके पर निर्भर करता है। दीर्घकालीन अरहर की प्रजातियों की दो कतारों के बीच ज्वार, मक्का, बाजरा, तिल, मूँगफली, मूँग अथवा उड़द की अन्तः फसल ली जा सकती है। यह आर्थिक रूप से भी बहुत फ़ायदेमन्द है और प्राकृतिक आपदाओं की दशा में भी किसानों को बहुत राहत देने में उपयोगी है।
अरहर की खेती के लिए भूमि का चयन और तैयारी
अरहर की खेती हर तरह की मिट्टी में की जा सकती है। हालाँकि, लवणीय या क्षारीय मिट्टी में इसकी खेती सम्भव नहीं है। अलबत्ता, अच्छी जल निकास वाली उपजाऊ दोमट और बलुई दोमट भूमि अरहर की खेती के लिए सबसे बढ़िया है। अरहर के खेत में पानी का ठहराव हर्ग़िज़ नहीं होना चाहिए, क्योंकि ज़्यादा पानी मिलने की वजह से अरहर के पौधों में अनावश्यक वृद्धि होने तथा उपज कम होने की आशंका रहती है। साथ ही फसल पर कई बीमारियों और कीटों का हमला बढ़ने का जोख़िम बहुत बढ़ जाता है।
अरहर के खेत में मई-जून की गर्मियों में 2-3 बार देसी हल या कल्टीवेटर से गहरी जुताई करके पाटा लगाना चाहिए। बुवाई हल के पीछे कूँड़ लगाकर करनी चाहिए। सख़्त मिट्टी और ज़्यादा बारिश वाले इलाकों में अरहर के पौधों का तना मारी या ‘फाइटोफ्थोरा’ बीमारी की चपेट में आकर गलने का ख़तरा काफ़ी बढ़ जाता है। इससे स्वस्थ पौधों का घनत्व बहुत कम हो जाता है और पैदावार काफ़ी घट जाती है।
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अरहर की खेती के लिए पौधों और कतारों की दूरी
हल्के जल भराव वाले इलाकों में अरहर की बुआई के वक़्त इसके कतारों के बीच डेढ़ से दो फ़ीट की दूरी पर मेड़ें बनाकर उस पर अरहर की बुआई करने से पैदावार ज़्यादा मिलती है। मेड़ों पर अरहर की बुआई करने से सिंचाई में 25-30% पानी भी बचता है और पौधों के तना मारी बीमारी की चपेट में आने का आशंका घटती है। अरहर की खेती के तीन तरीके प्रचलित हैं और हरेक के लिए पौधों और कतारों के बीच फ़ासला रखने के लिए अलग-अलग दूरियाँ अपनाने की सलाह दी जाती है।
अगेती अरहर के मामले में दो पौधों के बीच क़रीब 6 इंच की दूरी और इसकी दो पंक्तियों के बीच दो से ढ़ाई फ़ीट की दूरी रखनी चाहिए। मध्यम और दीर्घकालिक प्रजातियों के बीजों के मामले में दो पौधों के बीच क़रीब एक फ़ीट और दो कतारों के बीच ढाई से तीन फ़ीट की दूरी रखनी चाहिए। जबकि रबी-पूर्व वाली अरहर की प्रजातियों के लिए दो पौधों के बीच क़रीब चार इंच का अन्तर और इनके कतारों के बीच एक से सवा फ़ीट का दूरी रखना ज़रूरी है।
अरहर की खेती के तीन तरीके
देश में अरहर की खेती के लिए तीन तरीके प्रचलित हैं – अगेती अरहर, मध्यम अवधि वाली अरहर और दीर्घकालिक अरहर। इसका प्रचलन भी अलग-अलग इलाकों में ज़्यादा है। जैसे, अगेती और मध्यम अवधि वाली अरहर की प्रजातियाँ मध्य और दक्षिण भारत में ज़्यादा प्रचलित है क्योंकि वहाँ इसके साथ ज्वार, बाजरा, सोयाबीन, कपास और मूँगफली की सहसफली खेती भी की जाती है। इस श्रेणी की प्रजातियों की फसल 160 से लेकर 200 दिन में पककर तैयार होती है। जबकि दीर्घकालिक प्रजातियाँ 250 से 270 दिनों में पकती हैं। पूर्वी और मध्य भारत में इसकी ज्वार, बाजरा, मक्का, उड़द और मूँग के साथ सहसफली खेती ज़्यादा प्रचलित है।
अरहर की कौन सी प्रजाति आपके लिए है सबसे उम्दा?
वैसे तो क्षेत्रफल, उत्पादकता और पैदावार के लिहाज़ से अरहर के प्रमुख उत्पादक राज्य हैं – आन्ध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, झारखण्ड, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश। लेकिन देश के अलग-अलग इलाके के किसानों के लिए अरहर की खेती कैसे ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदेमन्द साबित हो सकती है? इसी सवाल को ध्यान में रखकर भारतीय दलहन अनुसन्धान संस्थान, कानपुर (ICAR-Indian Institute of Pulses Research) ने अरहर की उन्नत प्रजातियों का ख़ास वर्गीकरण तैयार किया है। इससे पता चलता है कि किस राज्य या इलाके में अरहर की खेती का कौन सा तरीका और इसके बीजों की कौन सी प्रजाति सबसे मुफ़ीद है। किसानों को चाहिए कि वो अपने लिए उपयुक्त प्रजाति का सावधानी से चयन करें और उन्नत बीजों की ही बुआई करें।
अरहर की अगेती, मध्यम अवधि वाली और दीर्घकालिक प्रजातियाँ | ||
प्रजाति की प्रकृति | प्रजाति का नाम | उपयुक्त राज्य या क्षेत्र |
अगेती और मध्यम अवधि
(160-200 दिन में पकने वाली) |
MA-3, JKM-7, आशा, VSMR-853, मारूती, VSRM-736, विपुल, BDN-22, BDN-708, JS-4, JKM-189, AKT-8811 | मध्य प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र |
RP-1, VGR-1, VGR-2, CORG-9701, LRG-41, LRG-30, S-3, ICPL- 3332, आवन-2, लक्ष्मी, मारुति, ICPW-8863, HY-3C | आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक | |
दीर्घकालिक प्रजातियाँ
(250-270 दिन में पकने वाली) |
बहार, नरेन्द्र अरहर-1, नरेन्द्र अरहर-2, पूसा-9, अमर, मालवीय-6, मालवीय- 13, विरसा अरहर, IPA-203 | उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश़, झारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल, असम |
अरहर की बुआई का समय और बीज-दर
शीघ्र पकने वाली प्रजातियों की बुवाई जून के मध्य तक कर देनी चाहिए। ताकि नवम्बर तक अरहर की फसल तैयार हो जाए और इसके बाद गेहूँ या रबी की फसलें ली जा सकें। मध्यम और दीर्घकालिक प्रजातियों वाली अरहर की बुवाई जुलाई के प्रथम पखवाड़े में मॉनसून आने पर करनी चाहिए। इस श्रेणी में पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों में बहार और पूसा-9 जैसी प्रजातियों की बुवाई सितम्बर के पहले सप्ताह यानी रबी के मौसम के आगमन तक की जा सकती है। लेकिन ऐसा करने वाले किसानों को ध्यान रखना चाहिए कि देर से बुवाई करने पर उनके लिए अरहर के बीजों की मात्रा यानी बीज-दर को दोगुना कर देना बहुत ज़रूरी है।
अरहर की अगेती फसल के लिए प्रति हेक्टेयर जहाँ 12 से 15 किग्रा बीज का इस्तेमाल करना चाहिए, वहीं दीर्घकालिक फसल के लिए 10 से 12 किग्रा प्रति हेक्टेयर की ज़रूरत पड़ती है। जबकि देर से बुवाई करने वाली किस्मों के लिए 8 से 10 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर बीजों की बुआई करनी चाहिए।
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अरहर की खेती के लिए बीजोपचार
अरहर के खेत और फसल पर उकठा, जड़ गलन और तना मारी जैसी बीमारियों से बचाव के लिए बुआई से बीजों का वैज्ञानिक उपचार करना बहुत ज़रूरी और फ़ायदेमन्द है। इसके लिए 2 ग्राम थीरम और 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम अथवा 3 ग्राम थीरम प्रति किग्रा बीज की दर से इस्तेमाल होना चाहिए। ऐसे बीजोपचार के 2-3 दिन बाद ख़ासकर अरहर के लिए मिलने वाले राइजोबियम (Rhizobium) कल्चर का उपचार भी ज़रूर करना चाहिए। ध्यान रहे कि सभी दलहनी फसलों का अलग-अलग राइजोबियम (Rhizobium) कल्चर होता है। ये ऐसी जैविक खाद है जिससे पता चलता है कि किस दलहन के लिए मिट्टी में नाइट्रोजन की सप्लाई बढ़ाने का काम कौन से लाभदायक जीवाणु करेंगे?
राइजोबियम कल्चर से बीजोपचार
राइजोबियम कल्चर से बीजोपचार करना महँगा नहीं है। इसका 200 ग्राम का पैकेट, अरहर के 10 किलोग्राम बीजों की गुणवत्ता में चार चाँद लगा देता है। राइजोबियम कल्चर से बीजोपचार के लिए बुआई से 8-10 घंटे पहले, 50 ग्राम गुड़ अथवा चीनी का आधा लीटर पानी में घोल बनाकर इसे गर्म करें। इसके ठंडा होने के बाद इसमें 200 ग्राम वाले राइजोबियम कल्चर के पैकेट को अच्छी तरह मिला दें। फिर इस घोल को 10 किग्रा बीज के साथ तब तक मिलाते रहें जब तक कि इसकी परत हरेक बीज पर चढ़ जाए। अब उपचारित बीजों को छाया में सुखाकर ही बुआई करें। वैसे इन्हें दूसरे दिन भी बोया जा सकता है। ध्यान रहे कि उपचारित बीजों को धूप में हर्ग़िज़ नहीं सुखायें और राइजोबियम से बीजोपचार के बाद कवकनाशी पदार्थों से भी बीज शोधन नहीं करें।
अरहर की खेती में खाद का इस्तेमाल
अरहर की खेती में बढ़िया पैदावार पाने के लिए प्रति हेक्टेयर 15-20 किग्रा नाइट्रोजन, 45-50 किग्रा फास्फोरस, 20 किग्रा पोटाश और 20 किग्रा गन्धक का इस्तेमाल बहुत फ़ायदेमन्द साबित होता है। इसकी भरपाई के लिए प्रति हेक्टेयर 100-100 किग्रा DAP (डाई अमोनियम फास्फेट) और जिप्सम तथा 33 किग्रा म्यूरेट ऑफ़ पोटाश का उपयोग करना चाहिए। जिन इलाकों की मिट्टी में जस्ते की कमी है वहाँ 15-20 किग्रा जिंक सल्फेट/ हेक्टेयर देना भी लाभकारी साबित होता है।
अरहर की खेती में सिंचाई
अगेती फसल की बुवाई पलेवा करके तथा मध्यम और दीर्घकालीन प्रजातियों की बुवाई वर्षाकाल में मिट्टी में पर्याप्त नमी होने पर करनी चाहिए। अगेती फसल में फलियाँ बनते समय यदि ज़मीन में नमी कम होती दिखे तो अक्टूबर में एक बार हल्की सिंचाई करनी चाहिए। मध्यम और दीर्घकालीन प्रजातियों में फूल आने और फली बनने के वक़्त नमी कम होने की दशा में सिंचाई करनी चाहिए।
अरहर की खेती में खरपतवार की रोकथाम
बुआई के बाद शुरुआती दो महीने में अरहर के पौधों की बढ़वार धीमी होती है। इस दौरान खेत में खरपतवार की मौजूदगी से पैदावार घट जाती है। इसीलिए बुवाई के एक महीने बाद पहली और डेढ़ से दो महीने के भीतर दूसरी बार निराई-गुड़ाई करना चाहिए, ताकि अरहर की अच्छी उपज हासिल हो सके। निराई-गुड़ाई से खरपतवारों की रोकथाम के अलावा मिट्टी में हवा के आवागमन को फ़ायदा होता है। इससे अरहर की फसल अच्छी होती है और उसकी जड़ों में पलने वाले लाभकारी सह-जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि के लिए अनुकूल माहौल तैयार होता है।
यदि खरपतवारों की समस्या से निपटने के लिए रासायनिक उपाय करना हो तो बुवाई से 36 घंटे के भीतर खरपतवार नाशक का छिड़काव अवश्य हो जाना चाहिए। इसके लिए प्रति हेक्टेयर 3.3 लीटर पेंडीमिथालिन (स्टाम्प 30 EC) का 600 से 800 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
अरहर की कटाई और भंडारण
फसल पकने के बाद उसकी कटाई और मड़ाई करें। फिर अरहर के दानों को अच्छी तरह सुखा लें, क्योंकि भंडारण के वक़्त दानों में नमी 9-10% से ज़्यादा नमी नहीं होनी चाहिए। भंडारण भी साफ़ और सूखी बोरियों, ड्रम या परम्परागत मिट्टी के कुठलों में ही करना चाहिए। भंडारण के दौरान अरहर को कीटों से बचाने के लिए प्रति टन एल्यूमीनियम फास्फाइड की 2 गोलियों का इस्तेमाल करना चाहिए।
अरहर की खेती के लिए वैज्ञानिकों की सलाह कैसे लें?
देश में दलहन की पैदावार बढ़ाने और दालों में मामले में आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए कानपुर स्थित भारतीय दलहन अनुसन्धान संस्थान (ICAR-IIPR) की ओर से किसानों को ख़ास प्रशिक्षण भी दिया जाता है। इसके अलावा दलहन के किसान, प्रसार कार्यकर्ता और अन्य उपयोगकर्ताओं के लिए आवाज़ आधारित मोबाइल सलाह सेवा ‘दलहन सन्देश’ का भी लाभ उठाया जा सकता है। इस संस्थान से फ़ोन नम्बर 0512-2580995 या ईमेल [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है।
अरहर का प्रसंस्करण और मिलिंग
दलहनी फसलों के बीज अपने छिलके से मज़बूती से चिपके रहते हैं। छिलके को हटाने की प्रक्रिया ‘दालों की मिलिंग’ कहते हैं। अरहर के बीजों में क़ुदरती गोंद की मात्रा ज़्यादा होने की वजह से इसके दानों से छिलका ज़रा मुश्किल से अलग होता है। इसीलिए मिलिंग से पहले अरहर समेत ज़्यादातर दलहनों के मामले में दाल पर छिलके की पकड़ को कमज़ोर करने के लिए ख़ास उपाय अपनाये जाते हैं।
अरहर की व्यावसायिक मिलिंग के लिए उत्तर भारत में तेल एवं जल उपचार विधि ज़्यादा प्रचलित है। इसे शुष्क विधि कहते हैं। जबकि दक्षिण भारत में लाल मिट्टी उपचार विधि यानी गीली विधि अधिक प्रचलित है। घरेलू एवं कुटीर स्तर पर अरहर की प्रसंस्करण (processing) के लिए इसे पानी में भी भिगोने का रिवाज़ है। वैसे अरहर के प्रसंस्करण के लिए सोडियम बाई-कार्बोनेट तथा ऊष्मीय उपचार विधि भी विकसित की गयी हैं।
अरहर का भारतीय भोजन में प्रयोग
भारतीय भोजन में दालों का मुख्य स्थान है। शाकाहारी लोगों के लिए दालें प्रोटीन का प्रमुख स्रोत हैं। वैसे तो अरहर का इस्तेमाल ज़्यादा दालों के व्यंजन के रूप में होता है, लेकिन गुजरात और महाराष्ट्र में अरहर की हरी-हरी फलियों की सब्जी बनाने का भी रिवाज़ है। पशुओं के लिए भी अरहर के दानों और फलियों का छिलका बेहद पौष्टिक आहार है। इसे उत्तम पशु आहार माना गया है।
अरहर के पोषक तत्व (प्रति 100 ग्राम दाल में) | |
प्रोटीन | 22.3 |
कार्बोहाइड्रेट | 60.1 |
वसा तत्व | 3.8 |
कैल्शियम | 120 |
पोटेशियम | 1110 |
फास्फोरस | 300 |
लौह तत्व | 7 |
विटामिन बी1 | 0.63 |
विटामिन बी2 | 0.16 |
सम्पर्क सूत्र: किसान साथी यदि खेती-किसानी से जुड़ी जानकारी या अनुभव हमारे साथ साझा करना चाहें तो हमें फ़ोन नम्बर 9599273766 पर कॉल करके या [email protected] पर ईमेल लिखकर या फिर अपनी बात को रिकॉर्ड करके हमें भेज सकते हैं। किसान ऑफ़ इंडिया के ज़रिये हम आपकी बात लोगों तक पहुँचाएँगे, क्योंकि हम मानते हैं कि किसान उन्नत तो देश ख़ुशहाल।