MSP का ज़्यादा से ज़्यादा किसानों को हो लाभ, इसके लिए क्या-क्या कदम उठाने की ज़रूरत?

अभी देश के कुल कृषि उत्पाद में से बमुश्किल 6 प्रतिशत को ही MSP पर ख़रीदारी का सौभाग्य मिल पाता है।

farmer protest MSP

भारत के किसानों के लिए 19 नवंबर, 2021  की तारीख एक ऐतिहासिक दिन बन चुका है। इस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने तीनों कृषि कानून वापस लेने का ऐलान किया था। इसके बावजूद अब भी किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी कि MSP पर गारंटी  कानून बनाने की मांग कर रहे हैं। आपको शायद जानकारी हो कि अभी MSP के दायरे में कुल 23 फसलें आती है। कहने को तो मौसम की मार, प्राकृतिक आपदाओं के प्रकोप और बाज़ार की शक्तियों का असर किसान की हरेक उपज पर पड़ता है। इनसे सुरक्षा के लिए तरह-तरह की फ़सल और पशुधन से जुड़ी बीमा योजनाएँ भी हैं, लेकिन अभी तक ऐसी सुरक्षा की पहुँच का अनुपात देश के कुल किसानों की तादाद के मुक़ाबले काफ़ी कम है। इसीलिए, भले ही MSP का सुख कम ही किसानों के नसीब में हो, लेकिन इससे उन्हें बहुत बड़ी राहत मिलती है। MSP के तहत सरकारों की ओर से किसानों को उनकी उपज की सही और न्यूनतम मूल्य मिलने की गारंटी दी जाती है।

MSP की आलोचना की वजह?

अभी तक भले ही MSP का सुख सिर्फ़ 23 फ़सलों के नसीब में हो, लेकिन ज़मीनी हालात ये हैं कि MSP पर होने वाली सरकारी ख़रीद का लाभ मुख्य रूप से खाद्य सुरक्षा के लिए संचालित रियायती अनाज को बाँटने के मामले में ही होता है। सरकारी राशन की दुकान पर MSP की ख़रीदारी वाली अनाज ही मिलता है। आलम ये है कि देश में धान और गेहूँ की पैदावार माँग या ख़पत के मुक़ाबले बहुत ज़्यादा है, जबकि दलहन और तिलहन के मामलों में हालात सालों-साल से चिन्ताजनक ही बने हुए हैं। हालाँकि, सरकारों की ओर से इनकी पैदावार को बढ़ाने के लिए अनेक जतन हो रहे हैं, इसके बावज़ूद तिलहन और दलहन के मामले में हमारी आयात पर निर्भरता बनी ही रहती है।

उधर, धान और गेहूँ की MSP पर ख़रीद हमारी भंडारण क्षमता से भी बहुत ज़्यादा हो जाती है। नतीज़ा ये है कि हर साल MSP पर ख़रीदा गया करोड़ों रुपये का अनाज सड़ जाता है और उसे फेंकना पड़ता है। इससे सरकारी राजस्व पर गहरी चोट लगती है और MSP की नीति कलंकित होती है। इन्हीं तर्कों को आधार बनाकर वो राज्य ढीला-ढाल रवैया अपनाते हैं जहाँ सरकारी कृषि उपज मंडी और MSP की संस्कृति पंजाब और हरियाणा जैसी विकसित नहीं हो सकी। नतीज़तन, इन राज्यों के किसान और उनकी खेती-बाड़ी की हालत आज़ादी के 75 साल बाद भी सोचनीय ही बनी हुई है। खेती की लागत जिस रफ़्तार से बढ़ती है, उसी अनुपात में किसानों को उनकी उपज का दाम नहीं मिलता। लिहाज़ा, वो लगातार ग़रीबी के दलदल में धँसते चले जाते हैं।

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तस्वीर साभार: tribuneindia

MSP का ज़्यादा से ज़्यादा किसानों को हो लाभ, इसके लिए क्या-क्या कदम उठाने की ज़रूरत?पंजाब और हरियाणा, देश के ऐसे दो प्रमुख राज्य हैं जहाँ के किसानों की धान और गेहूँ की कमोबेश पूरी उपज को ही सरकारी एजेंसियाँ MSP पर ख़रीदती हैं। उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय के आँकड़ों के मुताबिक 2014-15 से 2019-20 के बीच पंजाब में औसतन 121 लाख टन सालाना धान की पैदावार हुई। इसका 86 फ़ीसदी हिस्सा MSP पर ख़रीदा गया। इसी दौरान हरियाणा में औसतन 44 लाख टन सालाना धान पैदा हुआ और इसका 78 प्रतिशत MSP पर ख़रीद गया। दूसरी ओर, देश के 15 राज्य ऐसे हैं, जहाँ 30 लाख टन से ज़्यादा धान की पैदावार हुई, लेकिन इनमें से सिर्फ़ 6 राज्यों में ही 50 प्रतिशत से ज़्यादा उपज को MSP का लाभ मिल पाया। मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल जैसे बड़े राज्यों में तो बमुश्किल 30 प्रतिशत धान की ही ख़रीदारी MSP पर हो सकी।

गेहूँ के मामले में भी कमोबेश यही ट्रेंड है। पंजाब और हरियाणा में क़रीब 70 प्रतिशत गेहूँ को सरकार ने MSP पर ख़रीदा। उपरोक्त अवधि में ही पंजाब में सालाना औसतन 169 लाख टन गेहूँ पैदा हुआ और इसमें से 69 प्रतिशत सरकार ने MSP पर ख़रीदना पड़ा। जबकि हरियाणा में 66.5 प्रतिशत और मध्य प्रदेश में 37 प्रतिशत गेहूँ की ख़रीदारी MSP पर हुई। दूसरी ओर, उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात और महाराष्ट्र में MSP पर 10 प्रतिशत गेहूँ की ख़रीदारी भी नहीं हुई।

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तस्वीर साभार: deccanchronicle

MSP का फ़ायदा पाने के लिए क्या करें?

उपरोक्त ब्यौरे के बाद ये सवाल उठना लाज़िमी है कि यदि पंजाब-हरियाणा में MSP की व्यवस्था इतनी फ़ायदेमन्द है तो यूपी-बिहार जैसे राज्यों में इतनी दशा इतनी बदतर क्यों है? और, MSP का भरपूर फ़ायदा पाने के इच्छुक राज्यों के किसानों को क्या करना चाहिए? इन सवालों के बारे में कृषि विशेषज्ञों की राय है कि पंजाब और हरियाणा के खेती में आगे होने की सबसे प्रमुख वजह है वहाँ के किसानों का सबसे ज़्यादा संगठित होना। बिहार, यूपी, एमपी, राजस्थान, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में MSP पर कम ख़रीदारी की वजह वहाँ कृषि उपज मंडी की पर्याप्त बुनियादी सुविधाएँ या  इंफ्रास्ट्रक्चर का अभाव है। हालाँकि, MSP पर ख़रीदारी के लिहाज़ से ओडिशा और छत्तीसगढ़ का रिकॉर्ड भी अच्छा है, लेकिन ये मुख्य रूप से धान तक ही सीमित है।

दूसरी ओर बिहार में कृषि मंडियों से सम्बन्धित APMC एक्ट को 2006 में ही ख़त्म कर दिया गया। कई राज्यों में MSP पर ख़रीदारी देर से शुरू की जाती है और कृषि उपज के ख़रीदने के लिए बहुत कम मंडी (सेंटर) ही चालू की जाती है। इन मंडियों की दूरी भी इतनी ज़्यादा होती है कि किसानों के लिए वहाँ पहुँच पाना मुश्किल और ख़र्चीला होता है। इसीलिए उन राज्यों के ज़्यादातर किसान आर्थिक दबाव झेलते हुए अपनी उपज को MSP से कम दामों पर बेचने को मज़बूर हो जाते हैं। सच्चाई तो ये है कि अभी देश के कुल कृषि उत्पाद में से बमुश्किल 6 प्रतिशत को ही MSP पर ख़रीदारी का सौभाग्य मिल पाता है। यानी, 94 प्रतिशत कृषि उपज की भागीदारी निभाने वाले करोड़ों किसानों को MSP का लाभ नहीं मिल पाता। इसके लिए MSP की गारंटी के साथ ही देश में क़रीब 35 हज़ार और मंडियाँ बनाने की ज़रूरत है।

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