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भारत में खेती जलवायु परिवर्तन से बुरी तरह प्रभावित हो रही है। अनिश्चित मानसून, बढ़ता तापमान और बार-बार आने वाले सूखा और बाढ़ से फसलों को भारी नुकसान हो रहा है। देश की 50% से अधिक आबादी खेती पर निर्भर है, और मौसम की अनिश्चितता किसानों के लिए एक बड़ा खतरा बनी हुई है। पारंपरिक खेती इन बदलावों का सामना करने में असमर्थ हो रही है, जिससे नई तकनीकों की जरूरत बढ़ गई है।
एक नई और प्रभावी तकनीक जलवायु-अनुकूल फसलें हैं, जो वास्तविक समय में मौसम के बदलाव को पहचानकर अपनी वृद्धि को समायोजित कर सकती हैं। ये फसलें मौसम के अनुसार खुद को ढाल सकती हैं और सूखे में हाइबरनेशन (नींद) में जा सकती हैं और फिर अच्छे मौसम में दोबारा बढ़ने लगती हैं। यह तकनीक उन भारतीय किसानों के लिए वरदान साबित हो सकती है, जो बार-बार जल संकट और बदलते मौसम से परेशान रहते हैं।
जलवायु-अनुकूल फसलों का विज्ञान (The Science Behind Climate-Resilient Crops)
जलवायु-अनुकूल फसलें आनुवंशिक सुधार और उन्नत बीज तकनीक से विकसित की गई हैं, जिससे ये जलवायु-अनुकूल फसलें तापमान, नमी और सूरज की रोशनी में होने वाले बदलावों को पहचानकर अपनी वृद्धि को नियंत्रित कर सकती हैं।
भारत में आईसीएआर (भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद) और आईएआरआई (भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान) जैसे संस्थान सूखा-रोधी और तापमान-सहिष्णु फसलों पर शोध कर रहे हैं।
प्रमुख विकास:
- गर्मी सहने वाले गेहूं के नए प्रकार, जो बढ़ते तापमान में भी बच सकते हैं।
- सूखा-रोधी चावल की किस्में, जो कम पानी में भी अच्छी पैदावार दे सकती हैं।
- बाढ़-रोधी धान, जिसे असम और बिहार में बढ़ते जलभराव की समस्या के लिए विकसित किया गया है।
यदि इनमें मौसम-उत्तरदायी जीन जोड़ दिए जाएं, तो ये फसलें अचानक बदलते मौसम के अनुसार खुद को ढालने में सक्षम हो जाएंगी, जिससे भारतीय किसानों को बड़ा फायदा होगा।
हाइबरनेशन और दोबारा वृद्धि: एक अनूठा नवाचार (Hibernation and Regrowth: A Unique Innovation)
इस तकनीक का सबसे रोचक पहलू यह है कि जलवायु-अनुकूल फसलें सूखे में खुद को अस्थायी रूप से “सोने” (हाइबरनेट) में डाल सकती हैं और जैसे ही बारिश होती है, वे फिर से बढ़ने लगती हैं।
भारत में महत्वपूर्ण उदाहरण:
- मध्य प्रदेश में गेहूं की फसल सूखे के दौरान सामयिक रूप से अपनी वृद्धि रोक देगी और नमी लौटने पर फिर से बढ़ने लगेगी।
- तमिलनाडु में चावल, यदि गर्मी का प्रकोप बढ़ जाए, तो फसल संरक्षित अवस्था में चली जाएगी और मानसून में फिर बढ़ने लगेगी।
इस तकनीक से छोटे और मध्यम किसानों को भारी आर्थिक नुकसान से बचाया जा सकता है, क्योंकि उन्हें हर बार दुबारा बोआई करने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
भारतीय वैज्ञानिक आईआईटी खड़गपुर और आईसीएआर मिलकर मोटे अनाज (मिलेट्स) और दलहनों की प्राकृतिक जलवायु-सहनशीलता पर शोध कर रहे हैं, ताकि ये गुण गेहूं और चावल जैसी फसलों में भी जोड़े जा सकें।
स्मार्ट फार्मिंग से जुड़ाव (Integration with Smart Farming)
इन जलवायु-अनुकूल फसलों को डिजिटल तकनीक और स्मार्ट फार्मिंग सिस्टम से जोड़ना बेहद फायदेमंद होगा। भारत में स्मार्ट खेती धीरे-धीरे लोकप्रिय हो रही है, जहां सेंसर और डिजिटल टूल्स का उपयोग कर मिट्टी, नमी और जलवायु की निगरानी की जाती है।
उपयोगी तकनीकी नवाचार:
- आईओटी (इंटरनेट ऑफ थिंग्स) आधारित सिंचाई, जो फसलों की जरूरत के अनुसार पानी पहुंचाती है।
- एआई-आधारित मौसम पूर्वानुमान उपकरण, जो किसानों को जलवायु की सटीक जानकारी देते हैं।
- ड्रोन और रिमोट सेंसिंग, जो फसल के स्वास्थ्य की निगरानी करते हैं और समय से पहले समस्या का पता लगाते हैं।
पंजाब और हरियाणा में पहले से ही सेंसर-आधारित सिंचाई प्रणाली का परीक्षण किया जा रहा है। यदि इसे जलवायु-अनुकूल फसलों के साथ जोड़ा जाए, तो पानी की भारी बचत हो सकती है।
महाराष्ट्र के कृषि विज्ञान केंद्र (KVK) ने एक पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया है, जहां स्मार्ट सिंचाई को सूखा-सहनशील फसलों से जोड़ा जा रहा है। यदि यह सफल होता है, तो इसे पूरे भारत में अपनाया जा सकता है।
किसानों और पर्यावरण के लिए लाभ (Benefits for Farmers and the Environment)
- फसल नुकसान में कमी: मौसम के झटकों से फसल सुरक्षित रहेगी।
- कम लागत: कम पानी, उर्वरक और कीटनाशकों की जरूरत होगी, जिससे किसानों का खर्च घटेगा।
- बेहतर अनुकूलन: किसानों को बार-बार दुबारा बुआई करने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
- पर्यावरण संरक्षण: भूजल पर निर्भरता कम होगी, जिससे टिकाऊ खेती को बढ़ावा मिलेगा।
- खाद्य सुरक्षा: मुख्य फसलों की स्थिर पैदावार से देश में खाद्य संकट नहीं होगा।
राजस्थान में अगर सूखा-सहनशील दालों की खेती को बढ़ावा दिया जाए, तो इससे कृषकों की आय बढ़ेगी और सामुदायिक पोषण में सुधार होगा।
चुनौतियां और नैतिक मुद्दे (Challenges and Ethical Issues)
हालांकि यह तकनीक प्रभावी है, लेकिन इसे अपनाने में कई बाधाएं हैं:
- नियामक समस्याएं: भारत में जेनेटिकली मॉडिफाइड (GM) फसलों पर सख्त नियम हैं। अभी तक बीटी कपास ही एकमात्र स्वीकृत जीएम फसल है।
- लागत और उपलब्धता: नई तकनीक वाले बीज महंगे हो सकते हैं, जिससे छोटे किसानों को कठिनाई हो सकती है।
- सार्वजनिक धारणा: भारत में जीएम फसलों को लेकर शंकाएं हैं, जिससे इसे अपनाने में देरी हो सकती है।
- किसान प्रशिक्षण: गांवों में डिजिटल खेती और स्मार्ट कृषि के प्रति जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है।
अगर सही नीतियां, जागरूकता और सरकारी सहयोग मिले, तो इन चुनौतियों को पार किया जा सकता है।
भविष्य की संभावनाएं और नवाचार (Future Prospects and Innovations)
भारत में कई नई पहलें इस दिशा में हो रही हैं:
- आईसीएआर अंतरराष्ट्रीय शोध संस्थानों के साथ मिलकर “नई पीढ़ी की फसलें” विकसित कर रहा है।
- भारत सरकार मोटे अनाज (श्री अन्न) को बढ़ावा दे रही है, क्योंकि ये स्वाभाविक रूप से जलवायु-अनुकूल हैं।
- स्टार्टअप्स जैसे निंजाकार्ट और ग्रामोफोन एआई-आधारित कृषि सलाहकार सेवाएं प्रदान कर रहे हैं।
- ब्लॉकचेन-आधारित सिस्टम से किसानों को सही दाम और बाजार की जानकारी मिल रही है।
यदि इन शोधों में निवेश किया जाए और किसानों को प्रशिक्षित किया जाए, तो भारत की खेती अगले 10 वर्षों में जलवायु-अनुकूल हो सकती है।
भारत के किसानों को जलवायु परिवर्तन के कारण गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। जलवायु-अनुकूल फसलें और स्मार्ट खेती तकनीकें मिलकर इस संकट का समाधान हो सकती हैं। यदि इन तकनीकों को सही नीतियों और वैज्ञानिक प्रयासों के साथ लागू किया जाए, तो भारत की कृषि सुरक्षित, लाभदायक और जलवायु-अनुकूल बन सकती है।
अगर सरकार, वैज्ञानिक और किसान एक साथ मिलकर इस दिशा में काम करें, तो आने वाले वर्षों में भारतीय खेती जलवायु की अनिश्चितताओं से मुक्त होकर उन्नति की राह पर आगे बढ़ सकेगी।
सम्पर्क सूत्र: किसान साथी यदि खेती-किसानी से जुड़ी जानकारी या अनुभव हमारे साथ साझा करना चाहें तो हमें फ़ोन नम्बर 9599273766 पर कॉल करके या [email protected] पर ईमेल लिखकर या फिर अपनी बात को रिकॉर्ड करके हमें भेज सकते हैं। किसान ऑफ़ इंडिया के ज़रिये हम आपकी बात लोगों तक पहुँचाएँगे, क्योंकि हम मानते हैं कि किसान उन्नत तो देश ख़ुशहाल।