कृषि में खुशहाली का सबसे बड़ा मंत्र: यह लेख वरिष्ठ आईएएस अधिकारी पी. नरहरि ने Kisanofindia.com के लिए लिखा है। वह वर्तमान में मध्यप्रदेश में स्टेट कॉपरेटिव मार्केटिंग फैडरेशन के मैनेजिंग डायरेक्टर हैं।
कृषि हर तरह से भारतीय समाज की रीढ़ है। आज़ादी के सात दशकों के बाद भी भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था में कृषि का दबदबा बरकरार है, क्योंकि आज भी देश की क़रीब 65 प्रतिशत आबादी कृषि या इससे जुड़े काम-धन्धों पर ही निर्भर है। इसी बात के महत्व को रेखांकित करते हुए प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता दिवस के अपने सम्बोधन में कहा कि ‘आत्मनिर्भर भारत की अहम प्राथमिकता आत्मनिर्भर कृषि और आत्मनिर्भर किसान हैं।’
ये प्रधानमंत्री का स्पष्ट उद्घोष है कि आत्मनिर्भर भारत और वोकल फ़ॉर लोकल वाले मंत्रों के साकार होने के लिए कृषि को सर्वोच्च प्राथमिकता देना ज़रूरी है। इसीलिए प्रधानमंत्री ने किसानों को आधुनिक आधारभूत सुविधाएँ मुहैया करवाने के लिए हाल ही में घोषित एक लाख करोड़ रुपये के केन्द्रीय फंड का वास्ता दिया। उन्होंने बारम्बार कहा है कि किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए उनके क्रियाकलापों को परम्परागत ढर्रे से आगे बढ़कर नये और वैकल्पिक तौर-तरीके अपनाने चाहिए। इसीलिए सरकारी प्रयासों में खेती-किसानी की लागत को घटाने के तरीकों पर ज़ोर दिया जाना चाहिए।
उदाहरण के लिए सौर ऊर्जा से संचालित वाटर पम्पों को प्रोत्साहित करने से किसान को डीज़ल पम्प से न सिर्फ़ छुटकारा मिल सकता है, बल्कि वो अन्नदाता के साथ ऊर्जादाता भी बन सकता है। जैविक खाद के ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल से किसानों की रासायनित खाद पर निर्भरता घट सकती है, क्योंकि जैविक खाद का उत्पादक किसान ख़ुद होता है जबकि रासायनिक खाद का उत्पादन विशाल कारख़ानों में होता है।
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इसी तरह ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए ग्रामीण और कृषि आधारित उद्योग-धन्धों जैसे मधुमक्खी पालन, मछली पालन, मुर्गी पालन वग़ैरह को भी अपनाने पर ज़ोर होना चाहिए। इसीलिए प्रधानमंत्री ने ग्रामीण उद्योगों को लेकर विशेष आर्थिक कलस्टर बनाने का मंत्र दिया है। इसके तहत किसान उत्पादक संघों (FPO) का व्यापक नेटवर्क बनाया जाएगा जो कृषि और ग़ैर-कृषि आधारित उद्योगों के लिए आर्थिक सशक्तिकरण की भूमिका भी निभाएगा। ये एक तरह का सहकारिता का मॉडल है, जो अमूल और राष्ट्रीय डेयरी संघ जैसे संस्थानों की सफलता से प्रेरित लगता है।
भारतीय कृषि में जोतों का आकार बहुत छोटा है, इसीलिए यहाँ सहकारिता वाली खेती-बाड़ी का ढाँचा क्रान्तिकारी परिवर्तन ला सकता है। किसान उत्पादक संघों का दूरगामी लक्ष्य ऐसी ही सहकारिता को विकसित करना है, जो परस्पर विकास वाली खेती के तौर-तरीकों को अपनाकर सबकी आमदनी बढ़ाने के लिए काम करे। इसे राष्ट्रव्यापी बनाने में जनता और सरकार को समय जो भी लगे, लेकिन भविष्य इसी का है।
भारतीय कृषि को सदियों से बाढ़ और सूखे के दैवीय प्रकोप से लगातार जूझना पड़ा है। इसी वजह से भारत में कृषि से ज़्यादा अप्रत्याशित और जोख़िम भरा अन्य कोई कार्य या व्यवसाय शायद ही हो। चूँकि इस अत्यधिक जोख़िम भरे व्यवसाय से देश की एक बहुत बड़ी आबादी जुड़ी हुई है, इसीलिए बाढ़ और सूखे की मार भी देश में सबसे ज़्यादा इन्हीं लोगों पर पड़ती है। किसानों की बदहाली की दूसरी अहम वजह है, हमारी सिंचित ज़मीन का बेहद कम होना।
आज भी हमारी कुल खेती योग्य भूमि में से क़रीब 35 फ़ीसदी ही सिंचित है, जबकि दुनिया के किसी भी देश के कुल क्षेत्रफल और खेती योग्य ज़मीन के अनुपात के लिहाज़ से भारत शीर्ष पर है। लिहाज़ा, खेती को आत्मनिर्भर बनाने या इसके जोख़िम को कम करने के लिए सिंचाई परियोजनाओं पर पूरी ताक़त झोंकना ज़रूरी है।
भारतीय कृषि का दूसरा चिन्ताजनक पहलू है, बम्पर फ़सल का किसानों के लिए अभिशाप बनना। हम सालों-साल से ये देखते आ रहे हैं कि बम्पर फ़सल होने की दशा में किसानों को उचित मूल्य नहीं मिल पाता। इस समस्या से निपटने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का जो तंत्र स्थापित है, उससे मुख्य अनाजों के उत्पादक किसान ही लाभ ले पाते हैं।
फल-सब्ज़ी, दलहन-तिलहन, फूल वग़ैरह जैसी नगदी फ़सलों के उत्पादकों के लिए अभी तक जो कुछ भी ढाँचागत प्रयास हुए हैं, वो नाकाफ़ी ही बने हुए हैं। इसीलिए कई राज्य सरकारों ने कृषि विपणन यानी एग्रीकल्चर मार्केटिंग के क्षेत्र में व्यापक प्रयासों को हाथ में लिया है। इस कोशिश के नतीज़े उत्साहवर्धक हैं। इनका पर्याप्त विकास और विस्तार करना वक़्त की माँग है।
एग्रीकल्चर मार्केटिंग अपने आप में बहुत बड़ा क्षेत्र है। ये विशाल छतरी की तरह है जो आपने आदर्श रूप में पूरे कृषि क्षेत्र का लाइफ़ लाइन बनने की क्षमता रखता है। किसानों से उनकी उपज लेने, फ़सल के भंडारण की क्षमता विकसित करने और फिर इसे उपभोक्ताओं तक पहुँचाने के लम्बे लेकिन बेहद त्वरित प्रवृत्ति का सारा कामकाज़ एग्रीकल्चर मार्केटिंग का ही हिस्सा है।
इसमें भी भारी निवेश और तकनीकी समावेशों की अपार सम्भावनाएँ हैं। खेती-किसानी में क्रान्तिकारी बदलाव लाने के लिए एग्रीकल्चर मार्केटिंग को ही सूत्रधार बनने की अपेक्षा है। दूसरे शब्दों में कहें तो कृषि अनुसन्धान, कृषि उपकरण, मिट्टी की जाँच, उत्कृष्ट गुणवत्ता वाले बीज और खाद की अहमियत जैसे फ़सलों के उत्पादन के पहले की प्रक्रिया से जुड़े हैं, वैसे ही एग्रीकल्चर मार्केटिंग का नाता उत्पादन के बाद की हरेक गतिविधि से है। दोनों की ही अहमियत कृषि क्षेत्र की उन्नति में बराबर की है।
देश में हरेक राज्य सरकार अपनी-अपनी क्षमता और आवश्यकता के अनुसार किसानों के लिए ज़्यादा से ज़्यादा काम करने को प्राथमिकता देती है। इसके बावजूद सरकारी सिस्टम की उपलब्धियों में बहुत अन्तर रहता है, क्योंकि हरेक राज्य की भौगोलिक परिस्थितियाँ, मिट्टी की गुणवत्ता, जलवायु की प्रकृति, सिंचाई के साधन, सड़कों और मंडियों का नेटवर्क जैसी तमाम चीज़ों में बहुत फ़र्क है । इसके बावजूद किसान क्रेडिट कार्ड और फ़सल बीमा योजना जैसी राष्ट्रीय नीति और योजनाएँ हरेक तरह के किसान के हितों का ख़्याल रखती हैं।
किसानों की चुनौतियों को देखते हुए ही सरकारी मदद या सब्सिडी का सबसे बड़ा हिस्सा इन्हीं पर खर्च होता है। इसके बावजूद हमारे अन्नदाताओं के लिए चुनौतियाँ बनी ही रहती हैं, क्योंकि आज भी जितने की ज़रूरत है, उतनी व्यवस्था को हम विकसित नहीं कर पाये हैं। प्रयास पूरी ताकत से हो रहे हैं, लेकिन चुनौतियाँ इतनी व्यापक हैं कि कृषि क्षेत्र में अत्यधिक भारी निवेश की ज़रूरत है।
निजी या कॉरपोरेट क्षेत्र का योगदान मुख्य रूप से बीज, खाद, खाद्य प्रसंस्करण, कोल्ड स्टोरेज़, ट्रांसपोर्ट, फाइनेंस, एजेंटों आदि तक ही सीमित है । निवेश की दृष्टि से ये सभी अपेक्षाकृत कम जोख़िम वाले क्षेत्र हैं। इनमें अब भी निवेश की अपार सम्भावनाएँ मौजूद हैं। जितनी तेज़ी से कृषि में निवेश बढ़ेगा, उतनी ही तेज़ी से हम किसानों में खुशहाली लाकर उन्हें आत्मनिर्भरता के मंत्र से जोड़ पाएँगे।
पी. नरहरि, आईएएस
मैनेजिंग डायरेक्टर, मध्यप्रदेश स्टेट कॉपरेटिव मार्केटिंग फैडरेशन,
मध्यप्रदेश सरकार, भोपाल