हाइड्रोपोनिक खेती: तालाब में मछलियों और सब्ज़ियों की एक साथ खेती

हाइड्रोपोनिक खेती की तकनीक खाद्य सुरक्षा, रोज़गार और आमदनी के स्थायी ज़रिया बनने में मददगार साबित होगी। ब्रह्मपुत्र के मांझली द्वीप से पैदा हुई ये तकनीक बंगाल और बांग्लादेश से होते हुए अब बिहार में कोसी नदी के बाढ़ प्रभावितों ज़िलों सहरसा और सुपौल में पहुँची है।

हाइड्रोपोनिक खेती: तालाब में मछलियों और सब्ज़ियों की एक साथ खेती

तालाबों में मछली पालन के साथ सब्ज़ियाँ पैदा करने की तकनीक को हाइड्रोपोनिक खेती (Hydroponic Farming) कहते हैं। इसे बढ़ावा देने के लिए कृषि विभाग और साउथ एशियन फोरम फॉर एनवायरमेंट एक पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया है। प्रोजेक्ट के तहत 25-25 किसानों को चुनकर उन्हें बुनियादी सुविधाएँ मुफ़्त दी जाती हैं। ताकि लोकप्रिय होने के बाद ये तकनीक खाद्य सुरक्षा, रोज़गार और आमदनी के स्थायी ज़रिया बन सके।

परियोजना के तहत किसानों को हाइड्रोपोनिक खेती के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। पायलट प्रोजेक्ट के तहत बिहार के सहरसा ज़िले के कहरा प्रखंड के बनगाँव और नवहट्टा के रमोती गाँव में तालाबों में 200-200 लीटर के आठ-आठ ड्रम लगाकर ऊपर नावनुमा मचान बनाकर उस पर सब्ज़ियाँ पैदा की जा रही हैं। स्थानीय किसानों ने इसे नाम दिया है – नाँव पर खेती।

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न मिट्टी ना खाद

हाइड्रोपोनिक खेती के लिए धूप और पानी से ख़राब नहीं होने वाले बैग में वर्मी कम्पोस्ट, नारियल की भूसी, लकड़ी का बुरादा, स्लिम स्वायल जैसी चीज़ों का इस्तेमाल करके इसमें पालक, लाल साग, करेला, बैगन और धनिया पत्ता की बुआई की गयी है। बैग में ज़रा भी मिट्टी या रासायनिक खाद नहीं डाली जाती। रोज़ाना सब्ज़ियों की देखरेख की जाती है। ज़िला कृषि पदाधिकारी और ज़िला कृषि सलाहकार जैसे लोग भी पायलट प्रोजेक्ट की निगरानी करते हैं और फ़सल में कीड़ा लगने या अन्य रोगों की जानकारी मिलते ही फ़ौरन उपचार सुनिश्चित करते हैं।

हाइड्रोपोनिक खेती क्यों करें?

प्रोजेक्ट की निगरानी कर रहे ज़िला कृषि सलाहकार डॉ. मनोज कुमार सिंह का कहना है कि बनगाँव में 8 और रमोती में 11 फरवरी को आर्गेनिक सब्ज़ियों की बुआई के बाद अब पौधे 10 से 12 सेंटीमीटर के हो चुके हैं। हाइड्रोपोनिक खेती की ऐसी वैकल्पिक व्यवस्था का मकसद बाढ़ के दौरान भी सब्ज़ियों की उपज को जारी रखना है। ताकि आपदा के वक़्त भी सब्ज़ी मिल सके और किसान की आमदनी हो सके। किसान टुन्ना मिश्र कहते हैं कि सब्ज़ियों की वैकल्पिक खेती का ऐसा तरीका बाढ़ प्रभावित कोसी क्षेत्र के लिए वरदान साबित हो सकता है।

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हाइड्रोपोनिक खेती की लागत

साउथ एशियन फोरम फॉर एनवायरमेंट के निदेशक अमृता चटर्जी और चिरंजीत चटर्जी बताते हैं कि मार्च से पड़ोसी ज़िले सुपौल में भी तालाबों में ऊपर सब्ज़ी और नीचे मछली का उत्पादन शुरू होगा। इसके लिए अफ़सरों से बातचीत हो चुकी है। उन्होंने जल्द ही दो जगहों पर तालाब चिन्हित करने का वादा किया है। उन्होंने बताया कि हाइड्रोपोनिक खेती के तहत सौर ऊर्जा से चलने वाले ऑटोमेटिक सिंचाई व्यवस्था का उपयोग किया जा रहा है। सूक्ष्म सिंचाई की इस तकनीक में किसानों को पौधों में पानी डालने का काम नहीं करना पड़ता। साथ ही कम पानी का भी उपयोग होता है।

उन्होंने बताया कि ग्रो ड्रम लगाने और नाव पर मचान तैयार करने में 20-25 हज़ार रुपये खर्च होते हैं। फिलहाल, पायलट प्रोजेक्ट के लिए चुने गये किसानों के लिए कृषि विभाग ने सारी व्यवस्था मुफ़्त की है। लेकिन भविष्य में किसानों के प्रशिक्षण और सहकारी समितियों के गठन की योजना है।

ब्रह्मपुत्र के मांझली से हुई शुरुआत

चटर्जी ने बताया कि असम में ब्रह्मपुत्र नदी के बाढ़ की तबाही को देखते हुए मांझली द्वीप में हाइड्रोपोनिक खेती के तहत तालाबों में सब्ज़ी और मछली पालन, एक साथ करने की शुरुआत हुई। वहाँ से ये तकनीक पहले पश्चिम बंगाल और फिर बांग्लादेश के सुन्दरवन वाले इलाकों में आज़मायी गयी। इसके बाद अब इसे बिहार के बाढ़ प्रभावित इलाकों में शुरू किया गया है।

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