Table of Contents
हिमाचल प्रदेश के शिमला ज़िले की नेरवा पंचायत के एक किसान जीत सिंह ने जब अपनी सेब की बगिया में लगातार रासायनिक दवाओं और स्प्रे का इस्तेमाल किया, तो उन्होंने देखा कि इससे न तो मिट्टी की सेहत बची और न ही पेड़ पहले जैसे फल दे रहे थे। इससे परेशान होकर उन्होंने कुछ नया और टिकाऊ तरीका अपनाने का मन बनाया।
उनके सामने सबसे भरोसेमंद और सटीक विकल्प के रूप में प्राकृतिक खेती उभरी। साल 2018 में उन्होंने 6 बीघा ज़मीन पर प्राकृतिक खेती का प्रयोग शुरू किया। शुरुआत में कुछ मुश्किलें ज़रूर आईं, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।धीरे-धीरे उन्होंने देखा कि मिट्टी की गुणवत्ता सुधरने लगी, फलों का स्वाद बेहतर हुआ और खेती पर ख़र्च भी कम होने लगा। आज जीत सिंह इस बदलाव को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं और दूसरों किसानों को भी इससे जुड़ने के लिए प्रेरित करते हैं।
रासायनिक खेती से निराशा, प्राकृतिक खेती से जुड़ाव (Disappointment with chemical farming, connectivity to natural farming)
जीत सिंह पहले अपनी 30 बीघा ज़मीन पर सेब की पारंपरिक यानी रासायनिक खेती कर रहे थे। शुरू में सब ठीक चला, लेकिन धीरे-धीरे खेती पर ख़र्च बढ़ने लगा और पेड़ों में बीमारियां भी अक्सर लगने लगीं। दवाइयों और खाद पर पैसा तो बहुत ख़र्च होता था, लेकिन संतोषजनक परिणाम नहीं मिलते थे।
इस लगातार बढ़ती परेशानी ने जीत सिंह को सोचने पर मजबूर कर दिया। तभी उन्हें रोहड़ू में आयोजित एक दो दिवसीय कार्यशाला में भाग लेने का अवसर मिला, जहाँ उन्होंने पहली बार प्राकृतिक खेती के फायदों के बारे में विस्तार से जाना। वहाँ की बातें और अनुभव सुनकर उन्हें एक नई दिशा मिली और उन्होंने रासायनिक खेती छोड़कर प्राकृतिक खेती अपनाने का मज़बूत निश्चय किया। यही निर्णय आगे चलकर उनके लिए बदलाव की शुरुआत साबित हुआ।
देसी गाय और घर की तैयारी से बनी राह आसान (The road made by desi cow and home preparation)
कार्यशाला में भाग लेने के बाद जीत सिंह ने सिर्फ सुनकर ही रुकने की बजाय खुद से और ज़्यादा जानने की ठानी। उन्होंने प्राकृतिक खेती से जुड़ी कुछ किताबें मंगवाईं और गहराई से पढ़ना शुरू किया। उन्हें पता चला कि देसी गाय के गोबर और गौमूत्र से कई तरह के नेचुरल इनपुट्स जैसे जीवामृत, घनजीवामृत और ब्रह्मास्त्र घर पर ही तैयार किए जा सकते हैं, जो मिट्टी को स्वस्थ रखने और फ़सलों को रोगमुक्त बनाने में मदद करते हैं। शुरुआत में उन्हें कुछ तकनीकी दिक्कतें ज़रूर आईं, लेकिन उन्होंने हर स्टेप को सही तरीके से सीखा और आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़े।
कम लागत, बेहतर उत्पादन (Lower costs, better production)
जहां पहले रासायनिक खेती में प्रति बीघा करीब ₹11,500 तक ख़र्च आता था, वहीं जब उन्होंने 6 बीघा में प्राकृतिक खेती की शुरुआत की, तो ये ख़र्च घटकर मात्र ₹800 प्रति बीघा रह गया। सबसे खास बात यह रही कि सिर्फ लागत ही नहीं घटी, बल्कि उत्पादन में भी जबरदस्त बढ़ोतरी हुई। पहले एक बीघा में उन्हें औसतन 150 बॉक्स (20 किलो के) सेब मिलते थे, लेकिन अब यह संख्या 366 बॉक्स तक पहुंच गई है।
जीत सिंह बताते हैं कि प्राकृतिक खेती ने न केवल उत्पादन बढ़ाया है, बल्कि सेब की गुणवत्ता में भी बड़ा बदलाव लाया है। अब सेब का स्वाद बेहतर है, रंग गहरा है, चमक ज़्यादा है और आकार भी पहले से बड़ा है। यह बदलाव उनके आत्मविश्वास और मेहनत का परिणाम है, और वे इसे दूसरों के साथ भी साझा करना चाहते हैं।
कोरोना काल में भी खरीदारों की पसंद बनी प्राकृतिक खेती (Natural farming became the choice of buyers even during the corona period)
2020 में जब सेब उत्पादन में अन्य किसानों को भारी नुकसान हुआ, तब भी जीत सिंह की प्राकृतिक खेती ने उन्हें नुकसान से बचाया। उस साल उन्हें 360 से 366 बॉक्स सेब का उत्पादन मिला, जबकि दूसरे किसान बीमारियों के कारण घाटे में रहे। राजस्थान से एक व्यापारी ने उनके सेब ₹160 प्रति किलो की दर से खरीदे, जो आम बाज़ार दर से कहीं अधिक था। इससे साफ़ पता चलता है कि प्राकृतिक खेती से उपजे फल बाज़ार में ज़्यादा पसंद किए जा रहे हैं।
खेती के साथ ज्ञान भी बांट रहे हैं जीत सिंह (Jeet Singh is also sharing knowledge along with farming)
आज जीत सिंह सिर्फ खुद तक सीमित नहीं हैं। वे कृषि विभाग के साथ ट्रेनर के रूप में भी जुड़े हुए हैं और अब तक 150 से अधिक किसानों को प्राकृतिक खेती की ट्रेनिंग दे चुके हैं। वे चाहते हैं कि ज़्यादा से ज़्यादा किसान रासायनिक खेती छोड़कर प्रकृति के अनुकूल इस पद्धति को अपनाएं। उनका कहना है, “प्राकृतिक खेती में मेहनत ज़रूर होती है, लेकिन इसका फल किसान और उपभोक्ता दोनों के लिए अच्छा होता है। नई पीढ़ी को भी यह समझना ज़रूरी है कि ज़मीन और सेहत दोनों की सेहत इससे बेहतर होती है।”
इंटरक्रॉपिंग से भी हुई आमदनी में बढ़ोतरी (Intercropping also increased income)
जीत सिंह ने अपनी ज़मीन पर इंटरक्रॉपिंग (अंतरवर्ती फ़सलें) शुरू की हैं — जैसे मटर, राजमाश, गेहूं और बेसन के लिए चना। इससे भी उनकी आमदनी बढ़ी है। साथ ही ये फ़सलें मिट्टी की उर्वरता को भी बढ़ाती हैं।
भविष्य की योजना (future Plan)
वर्तमान में जीत सिंह के पास 30 बीघा ज़मीन है, जिसमें से 6 बीघा पर वह प्राकृतिक खेती कर रहे हैं। लेकिन उनकी योजना है कि अगले कुछ वर्षों में इस पद्धति को पूरे बाग में लागू करें।
मुख्य जानकारी :
- कुल ज़मीन: 30 बीघा
- प्राकृतिक खेती पर ज़मीन: 6 बीघा
- ऊंचाई: 1700 मीटर
- फ़सलें: सेब (Red Golden, Royal Delicious, Spur), मटर, राजमाश, गेहूं, चुलाई
- रासायनिक खेती: ख़र्च ₹70,000, आमदनी ₹2,00,000
- प्राकृतिक खेती: ख़र्च ₹5,000, आमदनी ₹4,50,000
निष्कर्ष (Conclusion)
जीत सिंह की कहानी से यह स्पष्ट है कि अगर मेहनत और सीखने की लगन हो, तो प्राकृतिक खेती किसानों के लिए लाभ का सौदा बन सकती है। यह न सिर्फ मिट्टी की सेहत को बचाती है, बल्कि किसानों की जेब को भी राहत देती है। आज जरूरत है कि और भी किसान इस दिशा में कदम बढ़ाएं और जैविक व टिकाऊ खेती को अपनाएं।
ये भी पढ़ें : साइंटिस्ट और इनोवेटर सत कुमार तोमर कृषि में नई तकनीक से बदल रहे हैं खेती की तस्वीर
सम्पर्क सूत्र: किसान साथी यदि खेती-किसानी से जुड़ी जानकारी या अनुभव हमारे साथ साझा करना चाहें तो हमें फ़ोन नम्बर 9599273766 पर कॉल करके या [email protected] पर ईमेल लिखकर या फिर अपनी बात को रिकॉर्ड करके हमें भेज सकते हैं। किसान ऑफ़ इंडिया के ज़रिये हम आपकी बात लोगों तक पहुँचाएँगे, क्योंकि हम मानते हैं कि किसान उन्नत तो देश ख़ुशहाल।