ककोड़ा की खेती बनी चंबल के आदिवासी समुदायों की आजीविका और पोषण का आधार

ककोड़ा की खेती से चंबल और मुरैना के आदिवासी समुदायों को मिल रही नई पहचान, सेहत और आय दोनों में आ रहा सुधार।

ककोड़ा की खेती kakoda ki kheti

चंबल और मुरैना के बीहड़ों में बरसात के मौसम के साथ ही एक हरियाली ऐसी भी लहराती है, जो वहां के आदिवासी समुदायों के जीवन में हर साल नई उम्मीद लेकर आती है — यह है ककोड़ा की खेती। जंगलों और मेड़ों पर स्वाभाविक रूप से उगने वाला यह फल, अब सिर्फ़ पारंपरिक स्वाद और सेहत का प्रतीक नहीं, बल्कि स्थानीय लोगों के लिए कमाई का बड़ा जरिया भी बन चुका है।

विशेष रूप से मुरैना जिले के मोगिया आदिवासी समुदाय के लिए ककोड़ा की खेती एक अवसर बनकर सामने आई है, जिससे वे सालाना हजारों रुपये कमा रहे हैं। जब बारिश के मौसम में आम खेती रुक जाती है, तब यही ककोड़ा इन समुदायों की आजीविका और पोषण का सहारा बनता है।

प्राकृतिक खेती से आत्मनिर्भरता की ओर (From natural farming to self-reliance)

बीहड़ों और जंगलों में उगने वाला ककोड़ा बिना किसी सिंचाई, खाद या देखरेख के फल देता है। मोगिया समुदाय के लोग बारिश शुरू होते ही पूरे परिवार के साथ जंगलों में जाकर इसे इकट्ठा करते हैं और फिर स्थानीय मंडियों में 150 से 200 रुपये किलो तक बेचते हैं। यह न सिर्फ़ रोज़गार का स्रोत है बल्कि पौष्टिकता का भी खजाना है।

डॉक्टरों और पोषण विशेषज्ञों के अनुसार, ककोड़ा में प्रोटीन, फाइबर और औषधीय गुण प्रचुर मात्रा में होते हैं। यह पाचन तंत्र को मजबूत करता है, त्वचा की समस्याओं में लाभदायक है और इम्यूनिटी भी बढ़ाता है।

अब जंगल से खेत तक पहुँची ककोड़ा की खेती (Now the cultivation of Kakora has reached from the forest to the farm) 

जहां पहले ककोड़ा की खेती केवल जंगलों तक सीमित थी, अब यह एक व्यावसायिक फ़सल का रूप ले चुकी है। आदिवासी किसान अब इसे अपने खेतों में भी उगाने लगे हैं, जिससे उन्हें निश्चित आमदनी की गारंटी मिल रही है। खास बात यह है कि इसकी खेती में लागत कम, मेहनत कम और मुनाफ़ा ज़्यादा है। यही वजह है कि ककोड़ा की खेती अब पहाड़ी और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में आदिवासी परिवारों के लिए एक फायदेमंद विकल्प बन चुकी है।

ककोड़ा की खेती बनी चंबल के आदिवासी समुदायों की आजीविका और पोषण का आधार

ककोड़ा की खेती के लिए उपयुक्त मौसम और मिट्टी (Suitable weather and soil for Kakora cultivation)

ककोड़ा की खेती के लिए विशेष मिट्टी की जरूरत नहीं होती। यह लगभग हर प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है, लेकिन रेतीली दोमट मिट्टी जिसमें जल निकासी अच्छी हो, वहां यह सबसे बेहतर होता है।

  • पीएच स्तर: 6 से 7 के बीच
  • तापमान: 20 से 30 डिग्री सेल्सियस
  • जलवायु: गर्म और नम

खेती की तैयारी और जैविक उर्वरक का उपयोग (Preparation of field and use of organic fertilizer)

ककोड़ा की खेती से पहले खेत की गहरी जुताई की जाती है, जिससे पुरानी फ़सल के अवशेष और खरपतवार हट जाएं। इसके बाद खेत में पानी डालकर उसे सूखने दिया जाता है, फिर जैविक खाद जैसे सड़ी हुई गोबर की खाद (200–250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर) डाली जाती है। अंतिम जुताई में 375 किलो सिंगल सुपर फॉस्फेट, 65 किलो यूरिया और 67 किलो म्यूरेट ऑफ पोटाश मिलाया जाता है, जिससे ककोड़ा का विकास और उपज बेहतर हो सके।

बुवाई और पौध रोपण की विधि (Method of sowing and planting seedlings)

  • सबसे पहले बीज से पौध तैयार की जाती है।
  • रोपाई के लिए 2 मीटर की दूरी पर गड्ढे बनाकर, पंक्तियों के बीच 4 मीटर का अंतर रखा जाता है।
  • हर पंक्ति में 9-10 गड्ढों में 7-8 मादा और 1-2 नर पौधे लगाए जाते हैं।
  • रोपण के बाद मिट्टी से अच्छी तरह ढक कर सिंचाई की जाती है।

पोषण और स्वास्थ्य का प्राचीन स्रोत (Ancient source of nutrition and health)

गांवों में ककोड़ा को अक्सर औषधीय सब्ज़ी कहा जाता है। बुजुर्ग लोग बताते हैं कि यह सब्जी बरसात में होने वाले पेट के रोगों से बचाने में बेहद असरदार है। आज जब लोगों में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ रही है, तब ककोड़ा की खेती का महत्व और भी अधिक हो गया है।

बाज़ार की मांग और भविष्य की संभावना (Market demand and future prospects)

देशभर की मंडियों में अब ककोड़ा की अच्छी मांग है। खासकर हेल्थ-कॉन्शियस ग्राहक इसे पसंद कर रहे हैं। इससे आदिवासी किसानों को अपने उत्पाद का बेहतर मूल्य मिलने लगा है। राज्य सरकार और कृषि विभाग ने भी इस दिशा में कदम उठाए हैं — प्रशिक्षण, बीज वितरण और सब्सिडी के माध्यम से आदिवासी किसानों को ककोड़ा की खेती के लिए प्रेरित किया जा रहा है।

निष्कर्ष (Conclusion)

ककोड़ा की खेती न केवल मुरैना और चंबल अंचल के आदिवासी समुदायों के लिए रोज़गार का ज़रिया बनी है, बल्कि यह पोषण, स्वास्थ्य और आत्मनिर्भरता का सशक्त उदाहरण भी है। कम लागत में बेहतर आय और प्राकृतिक सहारे से आगे बढ़ते इन समुदायों की यह यात्रा, अन्य क्षेत्रों के लिए भी प्रेरणास्रोत बन सकती है।

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