भारत में कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी लगभग 71 फ़ीसदी है। ये महिला किसान न केवल अपना घर चलाती हैं, बल्कि खेती-किसानी में कृषि को आत्मनिर्भर बनाने में अहम भूमिका निभाती हैं। ऐसी ही कश्मीर की एक महिला ने कामयाबी की एक नई कहानी लिखी है। कश्मीर के बडगाम की रहने वाली रुबिना तबस्सुम लैवेंडर की खेती करती हैं।
कई अन्य लोगों को भी दिया रोजगार
खेती-किसानी की राह पकड़ना रुबिना के लिए आसान नहीं था। कई सामाजिक और आर्थिक बंदिशों का उन्हें सामना करना पड़ा। बैंक में आर्थिक मदद के लिए गई रुबिना को किसी भी तरह का सहयोग देने से मना कर दिया गया, लेकिन हालातों से हार मानने वालों में से रुबिना नहीं थी। किसान ऑफ़ इंडिया से खास बातचीत में रुबिना ने बताया कि शुरू में ऐसी ही कई कठिनाइयां आईं, लेकिन फिर रास्ते निकलते गए। अब वो अपने पैरों पर खड़ी हैं और अन्य लोगों को रोजगार भी देती हैं।
बंजर ज़मीन में लैवेंडर की खेती
रुबिना ने सबसे पहले एक ऐसी फसल की जानकारी जुटाई, जो बंजर ज़मीन पर उग सके, साथ ही मुनाफ़ा भी दे जाए। ऐसे में उन्होंने 2006 में 500 कैनाल में लैवेंडर की खेती की शुरुआत की। जिस क्षेत्र में रुबिना लैवेंडर की खेती करती हैं, उसमें अन्य फसलों की उपज अच्छी नहीं होती। लैवेंडर की पहले जो उपज होती थी, वो भी कम ही लोग करते थे। रुबिना ने बाकायदा लैवेंडर की खेती करने की ट्रेनिंग ली और पाया कि इसका बाज़ार अलग है और इसमें कई संभावनाएं हैं।
लैवेंडर से बने उत्पादों से कमा सकते हैं मुनाफ़ा
आज रुबिना न सिर्फ़ लैवेंडर का उत्पादन करती हैं, बल्कि इसकी नर्सरी भी चलाती हैं। साथ ही लैवेंडर के कई और उत्पाद बना खुद ही उनकी मार्केटिंग भी करती हैं। रुबिना बताती हैं कि लैवेंडर की प्राइमरी प्रोसेसिंग करना ज़रूरी होता है। लैवेंडर को सुखाकर बाज़ार में बेचा जा सकता है, जिसका इस्तेमाल चाय में, साबून बनाने में और भी कई तरह से किया जाता है। इससे निकलने वाले तेल से भारी मुनाफ़ा कमा सकते हैं।
रुबिना बताती हैं कि पांच साल पहले उन्होंने अपना ब्रांड भी लांच किया है। इसमें लैवेंडर से उत्पादों की बॉटलिंग कर उन्हें रीटेल में बाज़ार में सप्लाई करते हैं। आज रुबिना अपने क्षेत्र का जाना-माना नाम है। इसलिए सीधा खरीदार उनसे उत्पाद खरीदते हैं। साथ ही ऑनलाइन खरीदारी की भी व्यवस्था है। सोशल मीडिया के ज़रिए भी कस्टमर आ जाते हैं।
अब किसानों को मिल रहा है योजनाओं का लाभ
रुबिना आगे बताती हैं कि जब 2006 में उन्होंने खेती की शुरुआत की थी, तब ज़्यादा योजनाएं नहीं थी। अब हालात काफ़ी बदल चुके हैं। अब कृषि विभाग की सक्रियता से किसानों तक सरकार की योजनाओं का लाभ पहुंच रहा है। किसानों को प्रोत्साहन राशि और सब्सिडी के रूप में सहायता मिल रही है।
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हर साल नहीं आती लागत
लैवेंडर की खेती की सबसे खास बात है कि इसमें हर साल लागत नहीं आती। एक बार शुरुआती लागत आती है। इसके बाद सिर्फ़ घास की सफाई और फूल तोड़ने का खर्च रहता है। 14 साल तक इससे आय होती रहती है। कश्मीरी लैवेंडर की मांग दुनियाभर में है। इसका तेल बाज़ार में तकरीबन 10 हज़ार रुपये प्रति किलों तक बिक जाता है। ऐसे में ये पहाड़ी क्षेत्रों के किसानों के लिए लैवेंडर की खेती करना मुनाफ़े का सौदा हो सकता है।
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