Cutworm management : कटवर्म की रोकथाम कैसे करें? जानिए लक्षण और बचाव के उपाय

कटुआ कीट आमतौर पर रात में फ़सलों को क्षति पहुंचाते हैं। इसकी सुंडियां दिन में मिट्टी की ऊपरी सतह में छिपकर रहती हैं। रात में बाहर आकर छोटे पौधों के कोमल तनों, टहनियों और पत्तों को कुतरकर खा जाते हैं। काटे गये पौधों के अवशेष को ज़मीन के अन्दर ले जाते हैं, जहाँ दिन में उसे खाते हैं। इसीलिए कटे हुए पौधों के अलावा और मिट्टी में दबे हुए पौधों के अवशेष भी कटुआ कीट की खेतों में मौजूदगी का साफ़ संकेत देते हैं। अपने ऐसे स्वभाव की वजह से ही ये ‘कटुआ कीट’ कहलाते हैं।

Cutworm management : कटवर्म की रोकथाम कैसे करें? जानिए लक्षण और बचाव के उपाय

कटवर्म अंग्रेज़ी में Cutworm या कटुआ कीट , खेतों में बहुतायत से पाया जाने वाला एक बहुभक्षी कीट है। यह कीट सब्जी, अनाज तथा दलहन आदि सभी तरह की फ़सलों को नुकसान पहुँचाता है। ख़ासकर, आलू, गोभी, मटर, भिंडी, शिमला मिर्च, बैंगन, टमाटर, खीरा, मक्का, चना तथा सरसों की फ़सल को कटुआ कीट के प्रकोप से भारी नुकसान पहुँचता है।

इलाका मैदानी हो या ऊँचा पहाड़ी क्षेत्र, कटुआ कीट का प्रकोप भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के तमाम देशों में मौजूद है।‘कटुआ कीट’ के कहर से पौधे कमज़ोर पड़कर मुर्झाने लगते हैं। खेत में पौधों की व्यावहारिक संख्या काफ़ी घट जाती है।

फ़सल में भारी गिरावट आ जाती है और किसान को ज़बरदस्त नुकसान होता है। कटुआ कीट की छोटी अवस्था में ही उन पर कारगर नियंत्रण पाना बेहद ज़रूरी है क्योंकि इनकी सुंडी वाली अवस्था फ़सलों के लिए बेहद घातक होती हैं।

कटुआ कीट की कार्यशैली

कटुआ कीट आमतौर पर रात में फ़सलों को क्षति पहुंचाते हैं। इसकी सुंडियां दिन में मिट्टी की ऊपरी सतह में छिपकर रहती हैं। रात में बाहर आकर छोटे पौधों के कोमल तनों, टहनियों और पत्तों को कुतरकर खा जाते हैं। काटे गये पौधों के अवशेष को ज़मीन के अन्दर ले जाते हैं, जहाँ दिन में उसे खाते हैं। इसीलिए कटे हुए पौधों के अलावा और मिट्टी में दबे हुए पौधों के अवशेष भी कटुआ कीट की खेतों में मौजूदगी का साफ़ संकेत देते हैं। |

अपने ऐसे स्वभाव की वजह से ही ये ‘कटुआ कीट’ कहलाते हैं। इसके कहर से पौधे कमज़ोर पड़कर मुर्झाने लगते हैं। खेत में पौधों की व्यावहारिक संख्या काफ़ी घट जाती है। फ़सल में भारी गिरावट आ जाती है और किसान को ज़बरदस्त नुकसान होता है।

लक्षण और क्षति का स्वरूप

हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में स्थित चौधरी सरवण कुमार कृषि विश्वविद्यालय के कीट विज्ञानियों के अनुसार, कटुआ कीट से विभिन्न फ़सलों को क़रीब 30 प्रतिशत तक नुकसान पहुँचता है। आमतौर पर इनका प्रकोप मई-जून और सितम्बर-अक्टूबर में बहुत ज़्यादा होता है। कटुआ कीट की छोटी अवस्था में ही उन पर कारगर नियंत्रण पाना बेहद ज़रूरी है क्योंकि इनकी सुंडी वाली अवस्था फ़सलों के लिए बेहद घातक होती हैं। 

कटुआ कीट भी पतंगे हमेशा रात में निकलते हैं और ऐसी जगह अंडे देते हैं जहाँ या तो पर्याप्त नमी हो या फिर खरपतवार की बहुतायत हो या पानी निकासी की सुविधा नहीं हो। इन्हें ज़मीन में पड़ी दरारों में या पौधों के तने पर या उसके आसपास भी अंडे देना पसन्द है।

इसकी दो प्रमुख प्रजातियाँ हैं – एग्रोटिस सेजिटम (आम कटुआ कीट) और एग्रोटिस इपसिलोन (काला कटुआ कीट)। एग्रोटिस सेजिटम जहाँ ऊँचे पर्वतीय इलाके में पाये जाते हैं वहीं एग्रोटिस इप्सिलोन प्रजाति के कीट मध्य पर्वतीय क्षेत्र से लेकर मैदानी इलाकों में पाये जाते हैं।

कटुआ कीट का जीवन-चक्र

कटुआ कीट का जीवन-चक्र 40-45 दिनों का होता है। इसके वयस्क पतंगे 18-22 मिलीमीटर लम्बे होते हैं। इनके फैले हुए पंखों की चौड़ाई 40-45 मिलीमीटर होती है। मादा के अगले पंख पीले-भूरे तथा काले रंग के होते हैं।

एक मादा 400-1000 अंडे देती है। अंडों का विकास 3-5 दिनों में होता है। अंडे शुरू में सफ़ेद होते हैं। फिर भूरे रंग में बदल जाते हैं। अंडों को सुंडी बनने में 24-40 दिन लगते हैं। सुंडी शुरू में हरे-स्लेटी रंग की होती है और आगे चलकर काला रंग प्राप्त कर लेती है।

पूर्ण विकसित होने के बाद सुंडियां खेत की मिट्टी में 3-10 सेंटीमीटर गहराई पर अपना प्यूपा बनाती हैं जो अगले 10-15 दिनों में वयस्क कटुआ कीट का आकार प्राप्त कर लेते हैं।

कटुआ कीट से बचाव के उपाय

फ़सल लगाने से पहले खेत से खरपतवार और पुरानी फ़सल के अवशेष निकाल लेने चाहिए अन्यथा कीट की सुंडियाँ इनमें रहकर इन्हें खाती रहती हैं। खेत की अच्छे से जुताई करनी चाहिए। इससे यह कीट परजीवी पक्षियों और अन्य कीटों के लिए आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं, जो इनका प्राकृतिक सफ़ाया करने में मददगार साबित होते हैं।

कटुआ कीट के वयस्क पतंगे शाम को ज़्यादा सक्रिय होते हैं। ये रोशनी की ओर आकर्षित होते हैं। इसलिए इन्हें प्रकाश प्रपंच के उपयोग से पकड़कर नष्ट किया जा सकता है।

खेत के चारों तरफ सूरजमुखी की फ़सल लगानी चाहिए। सूरजमुखी, कटुआ कीट को आकर्षित करते हैं और फ़सल तक पहुँचने से पहले ही इन्हें नियंत्रित किया जा सकता है।

खेतों में फ़सल बुआई अथवा पौध रोपण के तुरन्त पश्चात नियमित निगरानी करनी चाहिए। इस दौरान सुबह के समय कटे हुए छोटे पौधों के आसपास की ज़मीन में सुंडियाँ छुपी होती हैं। ऐसे में उनको निकालकर नष्ट कर लेना चाहिए। टमाटर, मिर्च, गोभी जैसी फ़सलों को तोड़ने तक सतत निगरानी करनी चाहिए।

रासायनिक कीटनाशी

यदि नियमित निगरानी के दौरान खेत में पाँच प्रतिशत से ज़्यादा पौधे कटे हुए मिलें तो फ़ौरन इन्हें नियंत्रित करना आवश्यक है। फ़सल में डेल्टामेथ्रिन 2.8 ई.सी. 750 मिलीग्राम प्रति हेक्टेयर या क्लोरपाइरिफॉस 20 ई.सी. 2.25 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।

चूँकि कटुआ कीटों की सक्रियता रात में बहुत ज़्यादा होती है इसीलिए शाम को कीटनाशकों का छिड़काव पौधों के तने की तरफ करना चाहिए।

जैविक कीटनाशी

जैविक खेती कर रहे किसानों को कटुआ कीट की रोकथाम के लिए मेटाराइजियम एनीसोप्ली तथा ब्यूवेरिया बेसियाना जैसे रोगजनक फफूंद का इस्तेमाल करना चाहिए।

रोगजनक सूत्रकृमि जैसे हैटरोरेहबडाइटिस बैक्टीरिओफोरा एवं वायरस जैसे एनपीवी भी कटुआ कीट की रोकथाम में काफ़ी प्रभावी हैं। जैविक नियंत्रण के लिए ज़मीन में पर्याप्त नमी का होना बेहद ज़रूरी है।

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