हिमाचल प्रदेश के शिमला ज़िले के रिमोट गांव शक्तिनगर में रहने वाले सुभाष शादरू आज प्राकृतिक खेती (Natural Farming) के एक मिसाल बन चुके हैं। 25 बीघा ज़मीन पर साल 2011 से प्राकृतिक खेती कर रहे सुभाष ने न सिर्फ अपनी लागत कम की है, बल्कि आमदनी भी बढ़ाई है और आसपास के 1200 से ज्यादा किसानों को इसके लिए प्रेरित (Inspired) किया है।
एक मुलाकात जिसने बदल दी जिंदगी
सुभाष के सफ़र की शुरुआत साल 2010 में हरिद्वार की एक यात्रा से हुई। वहां उनकी मुलाकात प्रसिद्ध कृषि विशेषज्ञ सुभाष पालेकर (Famous agricultural expert Subhash Palekar) से हुई। इस मुलाकात ने उनकी जिंदगी बदल दी। उन्होंने पालेकर जी के बेटे से नंबर लिया और प्राकृतिक खेती (Natural Farming) पर किताबें मंगवाईं। एक साल तक स्टडी करने के बाद, 2011 में उन्होंने अपने खेतों में प्राकृतिक खेती शुरू कर दी। साल 2018 में पालेकर जी उनके गांव आए और उन्हें और भी महत्वपूर्ण टिप्स दिए।
प्राकृतिक खेती सफलता का आधार
सुभाष की सफलता का रहस्य उनकी समग्र दृष्टि (Holistic Vision) में छुपा है। उन्होंने खेती को सिर्फ फ़सल उगाने तक सीमित नहीं रखा, बल्कि एक संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र (The Entire Ecosystem) विकसित किया है। उनके पास दो साहीवाल और दो देसी गायें हैं, जिनके गोबर और मूत्र से वे जीवामृत, बीजामृत और घनजीवामृत जैसे ज़रूरी लिक्विड खाद तैयार करते हैं। इसके अलावा, वे दशपर्णी अर्क और सप्तधान्यकुर अर्क जैसे कीटनाशक भी आसपास मिलने वाली वस्तुओं से ही बनाते हैं।
उन्होंने पशुपालन को भी अपनाया है। 8 बकरे, खरगोश, कड़कनाथ और पहाड़ी मुर्गियां उनके खेत की उर्वरता (Fertility) बढ़ाने और एक्स्ट्रा इनकम का ज़रिया बन गए हैं। ये Bio-diversity ही उनके खेतों को स्वस्थ और उत्पादक बनाए रखती है।
उन्नत तकनीकें: मल्चिंग और इंटरक्रॉपिंग
सुभाष ने सेब के बागों में मल्चिंग और इंटरक्रॉपिंग तकनीकों को बखू़बी अपनाया है। मल्चिंग से नमी सेफ होती है और खरपतवार कंट्रोल होते हैं। वहीं, इंटरक्रॉपिंग के तहत उन्होंने बागों की कतारों के बीच दालें (लग्यूमिनस फसलें) लगाई हैं, जो वायुमंडल से नाइट्रोजन स्थिरीकरण (Nitrogen fixation) कर ज़मीन की उर्वरा शक्ति बढ़ाती हैं। इससे उन्हें बीन्स, राजमा, आलू और गुच्छी जैसी सब्जियों से आमदनी भी होती है।
चुनौती और संभावना: बाज़ार का सवाल
सुभाष मानते हैं कि हिमाचल में प्राकृतिक उत्पादों (Natural products) के लिए बाज़ार मौजूद है, लेकिन केमिकल फसलों जैसी कोई Organised market की व्यवस्था नहीं है। उनका कहना है कि किसान तभी प्राकृतिक खेती अपनाएंगे जब उन्हें उनकी फसल का सही दाम और सही बाजार मिलेगा।
परिवार का सहयोग और समाज पर प्रभाव
ये सफ़र सुभाष अकेले नहीं तय कर रहे। उनके माता-पिता और पत्नी सभी खेती में पूरी तन्मयता से जुटे हैं। उन्होंने गांव और पंचायत स्तर पर वर्कशॉप आयोजित करके अपना ज्ञान बांटा है और एक व्हाट्सएप ग्रुप के ज़रीये से किसानों को जोड़े रखा है।
सबसे बड़ी उपलब्धि: चरम मौसम में भी टिकी फसल
सुभाष के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि प्राकृतिक तरीके से उगाए गए उनके सेब के बागान चरम मौसमी परिस्थितियों (extreme weather conditions) के तनाव को सहन करने में सक्षम रहे, जबकि पारंपरिक खेती (Traditional Farming) करने वालों को नुकसान उठाना पड़ा। यही प्राकृतिक खेती की सच्ची ताकत है कि जो न सिर्फ लागत कम करती है, बल्कि फसलों को प्रकृति के प्रतिकूल हालात के लिए भी तैयार करती है।
सुभाष शादरू का ये सफ़र साबित करता है कि प्रकृति के साथ सहयोग करके की गई खेती न सिर्फ टिकाऊ है, बल्कि आर्थिक रूप से भी फायदेमंद है। ये देश के लाखों छोटे और मझोले किसानों के लिए एक प्रेरणादायक मॉडल है।
सम्पर्क सूत्र: किसान साथी यदि खेती-किसानी से जुड़ी जानकारी या अनुभव हमारे साथ साझा करना चाहें तो हमें फ़ोन नम्बर 9599273766 पर कॉल करके या [email protected] पर ईमेल लिखकर या फिर अपनी बात को रिकॉर्ड करके हमें भेज सकते हैं। किसान ऑफ़ इंडिया के ज़रिये हम आपकी बात लोगों तक पहुँचाएँगे, क्योंकि हम मानते हैं कि किसान उन्नत तो देश ख़ुशहाल।
इसे भी पढ़िए: बैलों से AI तक: भारतीय कृषि क्रांति की कहानी जो है हल से हार्वेस्टर तक, Agricultural Mechanization का सदियों लंबा सफ़र