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‘खेती’ ये शब्द सुनते ही आपके मन में जो तस्वीर उभरती है वो एक गांव के खुले खेत और उसमें पसीना बहाते किसान की होगी, है न? मगर बदलते वक़्त के साथ खेती की ये तस्वीर भी बदल चुकी है। अब खेती सिर्फ़ गांव में खुली ज़मीन पर ही नहीं, बल्कि शहर के कमरों और छतों पर भी होने लगी है, और ये ज़रूरी भी हो गया है। जिस रफ़्तार से शहरों में भीड़ बढ़ रही है, उसकी भोजन, ख़ासतौर पर फल और सब्ज़ियों की ज़रूरत को पूरा करने के लिए बहुत ज़रूरी हो गया है कि शहरों में ही इनका उत्पादन हो। इसकी शुरुआत भी हो चुकी है, शहरी खेती के रूप में। आजकल कई Urban Farming trends चल रहे हैं। तो कैसे की जाती है शहरी खेती और कैसे बन सकती है ये कमाई का ज़रिया? आइए, जानते हैं।
क्या है शहरी खेती?
शहरों में गांव की तरह खुले खेत तो होते नहीं है, तो घर के बाहर किसी छोटे से बगीचे, घर की छत, बालकनी या घर के अंदर ही वर्टिकल गार्डन बनाकर बहुत से लोग अपनी ज़रूरत की सब्ज़ियां और फल उगाते हैं, तो कुछ बड़े पैमाने पर इसे व्यवसाय की तरह करते हैं, इसे ही शहरी खेती कहा जाता है।
घर के अंदर की जाने वाली खेती में तापमान आदि को अपने हिसाब से नियंत्रित किया जाता है। आमतौर पर शहरों में वर्टिकल खेती या हाइड्रोपोनिक्स विधि से खेती करने के लिए किसानों को सिर्फ़ कुछ जगह और बिजली की ज़रूरत होती है। मुंबई, दिल्ली, चेन्नई, बेंगलुरु और कोलकाता जैसे शहरों में बड़े पैमाने पर व्यवसायिक स्तर पर शहरी खेती की जा रही है।
छोटे स्तर पर शहरी खेती
हमारे देश में दो तरह की शहरी खेती होती है। एक तो वो लोग जो अपनी ज़रूरत के लिए घर की छत, बालकनी में सब्ज़ियां-फल उगाते हैं, ताकि उन्हें रोज़ ताज़ी फल-सब्ज़ियां मिल सकें। ऐसे लोगों को पर्यावरण से बहुत प्यार होता है। साथ ही अपने परिवार की सेहत को लेकर भी बहुत सतर्क होते हैं। इसलिए घर में छोटे स्तर पर जैविक तरीके से खेती करते हैं। भारत में ऐस कई स्टार्टअप हैं और लोग हैं जो खुद तो शहरी खेती करते ही हैं, साथ ही लोगों को भी शहरी खेती की ट्रेनिंग देते हैं।
दिल्ली में किचन गार्डनिंग
दिल्ली के विकासपुरी की रहने वाली अतिथि पोपली 25 सालों से किचन गार्डनिंग कर रही हैं। साथ ही वो पूरी तरह से ऑर्गेनिक फ़ार्मिंग को अहमियत देती हैं।
अतिथि पोपली गर्मियों में खीरा, टींडा, लौकी, तोरी, करेला, धनिया, सरसों, पालक, चुकंदर और मेथी जैसी सब्जियां उगाती हैं। इसके अलावा, किचन गार्डन में ही वो औषधीय पौधों की खेती भी करती हैं। उन्होंने एलोवेरा, ब्राह्मी, गिलोय, मोरिंगा जैसे कई हर्ब्स अपने किचन गार्डन में उगाए हुए हैं। ये सब उन्होंने गमले में या जमीन के छोटे से हिस्से में उगाया हुआ है। उनका कहना है कि इससे उनके घरवाले भी खुश हैं, क्योंकि उन्हें ताज़ी सब्ज़ियां मिलती हैं।
अतिथि सब्जियां उगाने के साथ ही बीज भी तैयार करती हैं। किचन गार्डनिंग में वो जैविक खाद का इस्तेमाल करती हैं। उन्होंने बताया कि छाछ से बनी खाद गर्मियों के मौसम में पौधों के लिए फ़ायदेमंद होती है। इसमें छाछ को 15 से 20 दिनों के लिए मिट्टी के बर्तन में रखा जाता है और फिर पौधों में डाला जाता है।
अतिथि पोपली किचन गार्डनिंग की ट्रेनिंग भी देती हैं। महिलाएं, युवा और बच्चे, ऑफ़लाइन और ऑनलाइन दोनों तरीके से लोग उनके पास ट्रेनिंग के लिए आते हैं।
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बिहार में वर्टिकल गार्डनिंग
एक ऐसी ही हैं बिहार के छपरा की रहने वाली सुनीता प्रसाद। जिन्होंने घर की छत पर PVC पाइप और बांस की मदद से वर्टिकल गार्डन का कॉन्सेप्ट तैयार किया है। छत पर बागवानी की शुरुआत करने को लेकर उन्होंने बताया कि एक बार छत में ऐसे ही एक पाइप पड़ा था। कुछ दिनों बाद देखा तो उस पाइप में मिट्टी इकट्ठा हो गई और कुछ घास उग आई। यहीं से उन्हें पाइप में खेती करने का आइडिया आया। अब वर्टिकल फ़ार्मिंग तकनीक से वो हरी सब्ज़ियों से लेकर प्याज़ तक, नींबू और अदरक उगा रही हैं। वो बैंगन, गोभी, धनिया, चुकंदर, चुकंदर, शलजम, खीरा, एलोवेरा, चीकू सहित लगभग सभी मौसमी सब्ज़ियां उगाती हैं।
वो सलाह देती हैं कि पाइप थोड़ा महंगा पड़ जाता है तो इसके विकल्प के तौर पर ऐसे बांस से भी वर्टिकल गार्डन बनाया जा सकता है। सुनीता को उनके खेती में इनोवेशन को लेकर कई अवॉर्डस से भी सम्मानित किया जा चुका है। वो दूसरे लोगों को भी छत पर बागवानी के लिए प्रेरित करती हैं।
बड़े पैमाने पर शहरी खेती
ये तो हुई छोटे स्तर पर खेती की बात, लेकिन शहरी खेती को बड़े पैमाने पर व्यापार के रूप में भी किया जा सकता है। कई शिक्षित युवा वर्टिकल फ़ार्मिंग या हाइड्रोपोनिक्स के ज़रिए खेती करके अच्छा मुनाफ़ा कमा रहे हैं।
एक ऐसे ही युवा हैं हाल ही में नेशनल एग्री क्रिएटर अपने नाम करने वाले लक्ष्य डबास। इंजीनियरिंग पास आउट लक्ष्य डबास ने कॉलेज खत्म होने के बाद पहले एक साल कॉर्पोरेट में नौकरी की। वहां उनका मन नहीं लगा। परिवार खेती-किसानी से ही जुड़ा रहा तो इसी तरफ़ रुझान बना। उनका परिवार करीब 36 सालों से जैविक खेती कर रहा है। उन्होंने ‘ऑर्गैनिक एकड़’ नाम से फ़ार्म है।
Organic Acre जैविक खेती के साथ ही एग्री-टूरिज़्म और एग्रो-एजुकेशन के क्षेत्र में काम करता है। वो अपने फ़ार्म को खेती के लिए रेंट पर भी देते हैं। इसमें ग्राहक अपने मन मुताबिक किसी भी सब्जी की खेती करवा सकता है। वो पूरे साल खेती करते हैं। साल में 5 से 6 फसलों की खेती एक बार में करते हैं। इसके लिए वो पहले से प्लानिंग कर लेते हैं।
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क्यों ज़रूरी है शहरी खेती?
बढ़ती आबादी की मांग को पूरा करने के लिए बड़े पैमाने पर उत्पादन की ज़रूरत है और खेती योग्य जम़ीन धीरे-धीरे कम हो रही है। ऐसे में अगर शहरी लोग अपनी ज़रूरत की सब्ज़ियां खुद ही उगाने लगें तो भला इससे बेहतर और क्या हो सकता है। आमतौर पर छत पर या घर के अंदर लोग जैविक तरीके से फल, सब्ज़ियां उगाते हैं। और शहरी खेती में हाइड्रोपोनिक्स, एयरोपोनिक्स, एक्वापोनिक्स जैसी विधियों का इस्तेमाल होता है, जिसमें कम ज़मीन पर जैविक तरीके से सब्ज़ियां उगाई जा सकती है। कृषि वैज्ञानिकों का भी मानना है कि जिस हिसाब से खेती योग्य ज़मीन घट रही है, ऐसे में नई तकनीक से की जा रही शहरी खेती ज़रूरी हो गई है।
शहरी खेती के प्रकार
शहरी खेती कई तरह से की जा सकती है, अगर आपको भी गार्डनिंग का शौक है और कुछ अतिरिक्त कमाई करना चाहते हैं, इनमें से किसी भी तरह की शहरी खेती कर सकते हैं-
घर के पिछवाड़े में बगीचा- अगर आपके घर के पीछे खाली जगह है, तो वहां सब्ज़ियां उगा सकते हैं, अपने इस्तेमाल के साथ ही प़ड़ोसियों को दे सकते हैं और बेच भी सकते हैं।
स्ट्रीट लैंडस्केपिंग- इसमें निजी सड़क किनारे पौधे लगाए जा सकते हैं, जो न सिर्फ़ दिखने में सुंदर लगते हैं, बल्कि इससे ज़रूरत की सब्ज़ियां भी मिल जाती है।
वर्टिकल फ़ार्मिंग- एक्वापोनिक्स, एरोपोनिक्स और हाइड्रोपोनिक्स जैसी तकनीक से घर की छत या अंदर भी मिट्टी रहित खेती करके फसलें उगाई जाती हैं।
वन बागवानी- शहरी वनों में अलग-अलग तरह की फल और सब्ज़ियां उगाई जा सकती हैं। जंगल में फसलों को बढ़ने के लिए उचित वातावरण मिलता है, वहीं शहरों में बढ़ रहे ग्लोबल वार्मिंग का मुकाबला करने में भी ये मददगार है।
छत पर बगीचा- इमारतों की छत पर उद्यान, तापमान नियंत्रण, वास्तुशिल्प वृद्धि, वन्यजीव आवास, मनोरंजन और खाद्य उत्पादन प्रदान करते हैं।
ग्रीन वॉल- जहां घर के अंदर या छत पर जगह न हो, तो वहां कुछ इस तरह की सरंचना बनाई जाती है ताकि दीवार पर लंबाई में फल और सब्जियां उगाई जा सके, क्योंकि इस तरह से खेती करने पर पूरी दीवार हरी दिखाई देती है, इसलिए इसे ग्रीन वॉल कहा जाता है।
शहरी मधुमक्खी पालन- ये भी शहरी खेती का एक हिस्सा है जिसमें शहरी क्षेत्रों में मधुमक्खी कॉलोनियों को रखकर स्वस्थ और अधिक उत्पादक मधुमक्खियों को बढ़ावा दिया जाता है।
ग्रीनहाउस खेती- शहरी क्षेत्रों में ये भी खेती का एक तरीका है, जिसमें नियंत्रित वातावरण में फसलें उगाई जाती हैं। इस तरीके की खेती में पौधों को कीटों और बाहर की बहुत अधिक गर्मी और ठंड से बचाया जा सकता है।
एक्वापोनिक्स- बिना मिट्टी के की जाने वाली खेती को हाइड्रोपोनिक फ़ार्मिंग कहते हैं और तालाब के बजाय बायोफ्लॉक तकनीक से मछली पालन को एक्वाकल्चर कहा जाता है। जब इन दोनों तकनीकों को मिला दिया जाता है तो उसे एक्वापोनिक फार्मिंग कहते हैं। जिस टैंक में मछलियों को रखा जाता है वो उसमें भोजन के बाद मल त्याग भी करती हैं, जिससे मल लगातार जमा होने लगता है जो मछलियों के लिए नुकसानदायक है, मगर ये मल वाला पानी हाइड्रोपोनिक फार्मिंग में इस्तेमाल किया जाता है, क्योंकि पौधों के विकास के लिए ये फ़ायदेमंद होता है। इस तकनीक के इस्तेमाल से पानी की बचत होती है।
शहरी क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर अगर खेती की जाने लगे, तो इससे वहां के लोगों को ताज़ी फल और सब्ज़ियां किफ़ायती कीमत पर उपलब्ध होगी। युवाओं को रोज़गार के मौके मिलेंगे, क्योंकि खेती आधुनिक तकनीक से की जाएगी, तो संसाधनों को बेहतर उपयोग हो पाएगा। चूंकि अधिकतर खेती जैविक तरीके से की जाती है, तो ये मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों के लिए फ़ायदेमंद होगी।
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