Dangerous Plants: जानिए क्यों बेहद ज़रूरी है बबूल, गाजरघास और पंचफूली जैसी आतंकी फ़सलों का फ़ौरन सफ़ाया

विलायती बबूल, गाजरघास और पंचफूली – जैसे पर्यावरण के दुश्मन बुनियादी तौर पर विदेशी घुसपैठिये हैं। लेकिन आज इनका साम्राज्य देश में करोड़ों हेक्टेयर तक फैल चुका है। ये तेज़ी से हमारी मिट्टी को बंजर बनाकर हज़ारों देसी पेड़-पौधों की प्रजातियों को ख़त्म कर चुके हैं। इसके प्रकोप से खेती की उत्पादकता भी बहुत कम हो जाती है। ऐसे आतंकियों का फ़ौरन सफ़ाया बेहद ज़रूरी है।

Dangerous plants बबूल, गाजरघास और पंचफूली

Dangerous Plants For Crops | विलायती बबूल या काबुली कीकर, गाजरघास और पंचफूली या लैंटाना– ये ऐसे पेड़-पौधे ऐसे हैं जिन्हें किसानों, पालतू और जंगली जानवरों, पक्षियों तथा मिट्टी और पर्यावरण के लिए बेहद घातक पाया गया है।

कृषि विशेषज्ञों की राय है कि हरियाली की आड़ में जहां-तहां पनप चुके इन अवांछित वनस्पतियों के साथ वैसा ही सलूक होना चाहिए जैसा दुर्दान्त आतंकवादी या घुसपैठिये के साथ होता है। ऐसे ख़तरनाक पेड़-पौधों का यथा शीघ्र समूल नाश होना बेहद ज़रूरी है फिर चाहे वो सरकारी या निजी ज़मीन पर पनपे हों या सामुदायिक चारागाहों अथवा जंगल में।

रोचक तथ्य ये भी है कि 19वीं सदी के पहले तक भारत में विलायती बबूल, गाजरघास और पंचफूली- जैसे पर्यावरण के दुश्मन नहीं पाये जाते थे। ये ख़तरनाक पेड़-पौधे या तो आयातित कृषि उत्पादों के साथ छिपकर विदेश से भारत में आये या फिर मानवीय अज्ञानता की वजह से इन्हें देश में न सिर्फ़ लाया गया बल्कि पनपने के लिए भरपूर मौका भी दिया गया। लेकिन आज आलम ये है कि इन घातक पेड़-पौधों का साम्राज्य करोड़ों हेक्टेयर तक फैल चुका है। इनकी वंश-बेल ने देश के परम्परागत चारागाहों पर ज़बरदस्त अतिक्रमण कर लिया है। ये भारतीय जैव विविधता का सत्यानाश कर रहे हैं।

विलायती बबूल या काबुली कीकर

विलायती बबूल या काबुली कीकर का वैज्ञानिक नाम प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा है। इसका मूल स्थान मैक्सिको, दक्षिण और मध्य अमेरिका तथा कैरीबियाई देशों को माना गया है। लेकिन अब तक इसका अवांछित और आक्रामक विस्तार एशिया, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया तक हो चुका है। साल 1870 में इसके बीजों को हवाई जहाज से भारत के कई इलाकों में ऊसर और बंजर ज़मीन पर बिखेरा गया। तब इसे ऐसे मेस्काइट (mesquite) या सदाबहार काँटेदार झाड़ियों की तरह देखा गया जो कम वर्षा और उच्च तापमान वाले इलाके में कठोर खारी मिट्टी पर पनपता है तथा ज़मीन के लिए नाइट्रोजन-फिक्सर की भूमिका निभाता है।

विलायती बबूल पर्यावरण का शत्रु

वैज्ञानिक ज्ञान के अभाव में, 1940 में तत्कालीन जोधपुर रियासत ने विलायती बबूल या काबुली कीकर को शाही वृक्ष का दर्ज़ा दिया और इसे बड़े भूभाग में लगाया गया। इसकी लम्बाई 2 से 8 मीटर तक और तने का व्यास 5 से 30 सेंटीमीटर तक होता है। इसकी जड़ें ज़मीन में कई मीटर गहराई तक जाती हैं, जो भूजल को इतनी बुरी तरह से सोखने लगती हैं कि उसका स्तर तेज़ी से गिरने लगता है। आसपास जल संकट पैदा होता है। कालान्तर में वैज्ञानिक शोध में बबूल या कीकर के यही गुण पर्यावरण के लिए बेहद घातक साबित हुए और इन्हें पर्यावरण का शत्रु माना गया।

विलायती बबूल ‘रक्त-बीज’

बबूल या कीकर को अवगुणों का भरपूर ‘रक्त-बीज’ कहा गया। जहां भी इसका एक पौधा लग जाता, वहां कुछ ही सालों में अपने-आप इसके सैंकड़ों पेड़ पनप जाते हैं। ये अपने आस-पास किसी भी अन्य वनस्पति को पनपने नहीं देते। इनकी मौजूदगी से मिट्टी की नमी घटती है। उसकी कठोरता बढ़ती जाती है और देखते ही देखते प्रभावित ज़मीन बंजर हो जाती है। इसके ख़तरनाक काँटों से पशु-पक्षी और जानवर भी घायल ही होते हैं। उन्हें इनसे न तो भोजन मिलता है और ना ही छाया।

पशु-पक्षी के लिए भी घातक

बबूल या कीकर के नीचे किसी वनस्पति का पनपना तो दूर, घास भी नहीं उग पाती। इसका काँटा सबसे नुकीला होता है। कुछ समय पहले तक लोग पशुओं को पहाड़ी इलाकों में चरने के लिए छोड़ देते थे, लेकिन अब बबूल या कीकर, पहाड़ी झाड़ियों को भी अपने आगोश में ले रहे हैं। इससे वहाँ की प्राकृतिक घास नष्ट होने लगी है। इनकी झाड़ियों के नीचे पनपने वाले चराई योग्य पौधे ख़त्म होने लगे हैं। इससे पहाड़ों में रहने वाले तेंदुओं के शावक घायल हो रहे हैं तो नीलगायों के शरीर को भी इनके नुकीले काँटे चीर देते हैं।

विलायती बबूल का दर्ज़न भर राज्य में आतंक

अभी आलम ये है कि विलायती बबूल ने दिल्ली के रिज़ क्षेत्र के अलावा हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बड़े भूभाग पर कब्ज़ा कर रखा है। इसके पेड़ मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, उड़ीसा और आन्ध्र प्रदेश जैसे दर्ज़न भर राज्यों में भी मिलते हैं। जैव विविधता के लिए संकट बन चुके बबूल या कीकर से पर्यावरण भी दूषित होता है क्योंकि ये पेड़ सबसे ज़्यादा कार्बन डाइऑक्साइड को वातावरण में छोड़ता है। इसके निरंकुश फैलाव और जैविक आक्रमण को पारिस्थितिकी के क्षरण के सबसे महत्वपूर्ण कारकों में से एक माना गया है।

जैव विविधिता के लिए नासूर

ब्रिटिश राज में विलायती बबूल को भले ही हरियाली बढ़ाने के लिए लगाया गया लेकिन आज यह जैव विविधिता और पर्यावरण के लिए बहुत बड़ा नासूर बन चुका है। दिल्ली विश्वविद्यालय के पर्यावरण अध्ययन विभाग के प्रोफेसर और पूर्व प्रो-वाइस चांसलर सी. आर. बाबू ने लम्बे समय तक विलायती बबूल के पर्यावरण और जैव विविधता पर इसके दुष्प्रभावों का अध्ययन किया। उनका कहना है कि राजधानी दिल्ली सहित दर्जन भर राज्यों में फैल चुका विलायती बबूल अब तक हमारे देसी पेड़-पौधों की क़रीब 500 प्रजातियों को ख़त्म कर चुका है।

विलायती बबूल का अविलम्ब सफ़ाया ज़रूरी

प्रोफेसर सी. आर. बाबू के अनुसार, बबूल या कीकर की हरियाली से फ़ायदे कम और नुकसान बहुत ज़्यादा हैं। जिस ज़मीन पर यह पनपते हैं वहाँ किसी और को पनपने नहीं देते। इसकी पत्तियाँ भी छोटी होती हैं जो पर्यावरण के लिए अनुपयोगी हैं। ये पेड़ कार्बन भी बहुत कम सोखते हैं। इनके बढ़ते प्रकोप की वजह से ही अब खेजड़ी, अन्तमूल, केम, जंगली कदम, कुल्लू, आँवला, हींस, करील और लसौड़ा सहित सैकड़ों देसी पौधे अब दिखायी नहीं देते। पहले लोग बबूल या कीकर के दुष्प्रभावों से वाक़िफ़ नहीं थे। लेकिन अब सरकार को इसे ख़त्म करने के लिए अविलम्ब क़दम उठाने चाहिए।

प्रोफेसर सी. आर. बाबू का कहना है कि विलायती बबूल को हटाकर यदि इनकी जगह नीम, वट, आँवला, आम, पीपल जैसे देसी प्रजातियों के पौधे लगाये जाएँ तो दिल्ली के वायु प्रदूषण के स्तर में भी ज़ोरदार कमी आ जाएगी। दिल्ली के रिज़ क्षेत्र में बबूल या कीकर अंकुश लगाने के लिए पायलट प्रोजेक्ट चला रहे प्रोफेसर बाबू बताते हैं कि विलायती बबूल की वजह से यहाँ पाये जाने वाले पक्षियों की प्रजातियाँ क़रीब 450 से घटकर महज 100 तक सिमट चुकी थीं। लेकिन पायलट प्रोजेक्ट की वजह से अब पक्षियों की संख्या बढ़ने लगी है।

अफ्रीकी महाद्वीप में इथियोपिया के रेगिस्तानी और अर्ध-रेगिस्तानी इलाकों में भी स्थानीय लोगों ने विलायती बबूल के परेशान होकर इसे समूल नष्ट करने की माँग की है। अदीस अबाबा स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ़ बॉयोडाइवर्सिटी कंजरवेशन के अध्ययन में भी पाया गया है कि बबूल या कीकर की वजह से जानवरों और पौधों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। इससे जैव विविधिता कम हो रही है। ब्राजील में हुए अध्ययन में भी ऐसे ही विनाशकारी निष्कर्ष प्राप्त हुए हैं।

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गाजर घास

गाजर घास भी एक विषैला विदेशी घुसपैठिया खतपतवार है। माना जाता है कि इसके सूक्ष्म बीज अमेरिका या कनाडा से आयातित गेहूँ में छिपकर भारत आ घुसे। देश में इन्हें पहली बार पुणे में 1955 में देखा गया। फ़िलहाल दुनिया के कम से कम 20 देशों में इस घातक पौधे का प्रकोप है। वैज्ञानिकों ने इसे मिट्टी और पूरे प्राणिजगत का सबसे बड़ा दुश्मन तथा जैव विविधता और पर्यावरण के लिए विनाशकारी बताया है।

गाजर घास चारागाहों का सबसे बड़ा दुश्मन

गाजर घास खाली पड़ी सरकारी ज़मीन, अनुपयोगी मिट्टी, औद्योगिक क्षेत्रों, बाग़ीचों, पाकों, स्कूलों, रहवासी क्षेत्रों, सड़कों तथा रेलवे लाइन के किनारे बहुतायत में पाये जाते हैं। देश में इसका रक़बा अब तक 3.5 करोड़ हेक्टेयर तक फैल चुका है। इसने सबसे ज़्यादा नुकसान चारागाहों को पहुँचाया है। लिहाज़ा, गाँव हो या शहर, जहाँ भी आपको गाजर घास नज़र आये, फ़ौरन पूरी ताक़त से इसके ज़हरीले पौधों का समूल नाश करने का बीड़ा उठाएँ, क्योंकि ये आक्रामक ढंग से फैलते हैं और ऐसे ज़हरीले रसायनों का स्राव करते हैं जिससे ज़मीन बंजर हो जाती है।

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गाजर घास का वानस्पतिक नाम ‘पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस’ (Parthenium hysterophorus) है। यह सफ़ेद फूलों वाली क़रीब 1 मीटर ऊँची और विदेशी खरपतवार है। इसकी कम से कम 20 प्रजातियाँ हैं। इसे काँग्रेस घास, सफ़ेद टोपी, चटक चाँदनी, गन्धी बूटी, चिड़िया बाड़ी आदि भी कहते हैं। इसकी पत्तियाँ गाजर या गुलदाउदी की पत्तियों जैसी होती हैं। इसका तना रोयेंदार और अत्यधिक शाखाओं वाला होता है।

खेती के लिए ख़तरा है गाजर घास 

गाजर घास से मानव में त्वचा सम्बन्धी डरमेटाइटिस, एग्जीमा, एलर्जी, बुखार, दमा आदि जैसे रोग हो जाते हैं। इसका अत्यधिक प्रभाव होने पर मनुष्य तक की मृत्यु हो सकती है। पशुओं के लिए भी यह खरपतवार ज़हरीली होती है। इसके तेज़ी से फ़ैलने के कारण अन्य उपयोगी वनस्पतियाँ ख़त्म होने लगती हैं। जैव विविधता के लिए भी गाजर घास बहुत बड़ा ख़तरा बन चुकी है। इसके प्रकोप की वजह से फ़सलों, सब्जियों और उद्यानों की उत्पादकता बहुत कम हो जाती है।

नमी पाकर गाजर घास का पौधा पूरे साल लहलहाता है। बरसात में इसका अंकुरण बहुत ज़्यादा होता है। इससे यह एक भीषण खरपतवार का रूप ले लेती है। इसका पौधा 3-4 महीने में अपना जीवनचक्र पूरा कर लेता है। एक वर्ष में तो इसकी 3-4 पीढ़ियाँ पनप जाती हैं। गाजर घास का हरेक पौधा 5000 से लेकर 25000 तक सूक्ष्म बीज पैदा करता है। इसके बीज वर्षों तक ज़मीन में पड़े रहते हैं और धूप तथा नमी पाकर आसानी से अंकुरित हो जाते हैं।

गाजर घास के ख़ात्मे का उपाय

गाजर घास को फूल आने से पहले जड़ से उखाड़कर कम्पोस्ट और वर्मीकम्पोस्ट बनाना चाहिए। ग्रीष्म और शरद ऋतु में ग़ैर-कृषि क्षेत्रों में अंकुरित होने पर कुछ बढ़वार करने के बाद पानी नहीं मिलने पर इनका विकास नहीं हो पाता। लेकिन बारिश में यही पौधे शीघ्रता से बढ़कर बीजों का उत्पादन करते हैं। लिहाज़ा, ऐसे वक़्त में इन्हें शाकनाशियों से नष्ट करना चाहिए। ग़ैर-कृषि क्षेत्रों में फूल आने के पहले शाकनाशी रसायन जैसे ग्लायफोसेट 1.0-1.5 प्रतिशत या मेट्रीब्यूजिन 0.3-0.5 प्रतिशत घोल का छिड़काव करने से भी गाजर घास नष्ट हो जाती है।

फ़सलों में घुसपैठ करने वाले गाजर घास के पौधों को रासायनिक विधि से नियंत्रित करने से पहले खरपतवार वैज्ञानिक की सलाह अवश्य लेनी चाहिए। वर्षा ऋतु में गाजर घास पर मैक्सिकन बीटल (जाइग्रोग्रामा बाइकोलोराटा) नामक कीट को छोड़ने से भी काफ़ी लाभ होता है। गाजर घास के दुष्प्रभाव और रोकथाम के बारे में लोगों की जागरूकता बढ़ाने और इसके सफ़ाये के लिए सामूहिक श्रमदान अभियानों का आयोजन भी बेहद कारगर साबित होता है।

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पंचफूली (लैंटाना कैमारा)

पंचफूली, सुन्दर फूलों वाला एक ज़हरीला और बेहद ख़तरनाक पौधा है। वैज्ञानिकों ने इसे वनस्पति जगत को नुकसान पहुँचाने वाले दुनिया के सौ बेहद ख़तरनाक पौधों में शामिल किया है। इससे भारतीय जंगलों और चारागाहों को भी बेहद गम्भीर ख़तरा है। बबूल या कीकर और गाजर घास की तरह पंचफूली के पौधे भी जहाँ उग जाते हैं, वहाँ की ज़मीन को बंजर बना देते हैं। पंचफूली के पौधे के आसपास भी कोई अन्य वनस्पति और यहाँ तक कि खरपतवार भी नहीं पनप पाता।

पशुओं और जंगल के लिए जानलेवा पंचफूली

 सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि पंचफूली का पौधा शाकाहारी जानवरों और पालतू पशुओं के लिए जानलेवा साबित होता है। इसके सेवन से पशुओं की असमय मौत की ख़बरें भी आती रहती हैं। ज़हरीला होने के कारण इसे हाथी, हिरण जैसे शाकाहारी प्राणी खा नहीं सकते। किसी जानवर ने यदि ग़लती से भी इसे खा लिया तो उसकी जान पर बन आती है। क्योंकि इससे लीवर में ज़हर भर जाता है और त्वचा पर एलर्जी के लक्षण उभर आते हैं।

पंचफूली का वानस्पतिक नाम लैंटाना कैमारा (Lantana Camara) है। इसे क़रीब 200 साल पहले अँग्रेज़ सजावटी फूल के रूप में उपयोग के लिए भारत में लेकर लाये थे। लेकिन यही फूल आज भारतीय जंगलों के लिए अभिशाप बन चुका है। इसकी जड़ों से ऐसा ज़हरीला रसायन निकलता है जिसके असर से पंचफूली के आसपास कोई अन्य पौधा नहीं उग पाता। यह अन्य पौधों के बीजों का अंकुरण नहीं होने देता और पहले से मौजूद पौधों की वृद्धि भी रोक देता है। इससे आसपास के पौधों की मृत्यु दर बढ़ जाती है। इसीलिए पंचफूली के फूलों को बीज बनने के पहले नष्ट कर कर देना चाहिए।

लैंटाना कैमारा के सुन्दर फूल मई-जून में खिलते हैं। इसकी काँटेदार पत्तियों से अलीलो कैमिक्स नामक ज़हरीला पदार्थ निकलता है जो उपजाऊ ज़मीन को बंजर बना देता है। यह पदार्थ इतना ज़हरीला होता है कि आसपास उगने वाली घास को भी सड़ा देता है। जंगल में जिस स्थान पर पंचफूली की बहुलता हो जाती है वहाँ अन्य पौधों को प्राकृतिक पोषक तत्व नहीं मिल पाते। इससे मिट्टी की उर्वरा शक्ति ख़त्म हो जाती है। इसके प्रकोप वाले इलाके में अन्य वनस्पतियों के पौधे क़रीब तीन बार बढ़ने की कोशिश करते हैं। फिर पूरी तरह से नष्ट हो जाते हैं। इस तरह देखते ही देखते हरा-भरा इलाका भी उजाड़ बन जाता है।

दुर्भाग्यवश, अज्ञानतावश या हरियाली की आड़ में आम लोग से जंगल और मिट्टी को तबाह रहे पंचफूली, गाजर घास और बबूल या कीकर जैसे विनाशकारी पौधों को संरक्षण मिल जाता है। लेकिन सरकार से अपेक्षित है कि वो फ़ौरन अपनी ठोस नीतियों के ज़रिये ज़हरीले पेड़-पौधों से पनप रहे ख़तरों के प्रति गम्भीर क़दम उठाये।

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