गन्ने की खोई से कैसे बनेगी बायो-क्रॉकरी?

बायो-क्रॉकरी पूरी तरह से बॉयोडिग्रेडेबल हैं। कचरे में फेंके जाने पर ये तीन महीने में पूरी तरह गल जाते हैं। इसे यदि कोई जानवर खा भी ले तो उसकी सेहत खराब नहीं होती। यानी, इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव या साइड इफ़ेक्ट नहीं है। खोई से बनी बायो-क्रॉकरी को माइक्रोवेव, ओवन और फ्रिज़ में भी रखा जा सकता है। इसका पैकेज़िंग में भी इस्तेमाल हो सकता है।

गन्ने की खोई से कैसे बनेगी बायो-क्रॉकरी?

गन्ने का रस जितना उपयोगी है, उसे पेरने (crush) के बाद निकलने वाली खोई (Bagasse/बगास) और उसकी पत्तियाँ भी किसी मायने में कम नहीं है। हालाँकि, एक ज़माना था जब लोग खोई और पत्तियों के व्यावसायिक और वैज्ञानिक उपयोग के बारे में ज़्यादा नहीं जानते थे। लेकिन आज खोई और पत्तियों का इस्तेमाल जैविक खाद (bio-manure), जैविक-ईंधन (bio-fuel), जैविक-प्लास्टिक (bio-plastic), काग़ज़ और प्लाईवुड निर्माण के अलावा सिंगल यूज़ बायो-क्रॉकरी (single use bio- crockery) के उत्पादन में भी हो रहा है। ये थर्मोकोल और प्लास्टिक जैसे जहरीले पदार्थों से निर्मित उत्पादों का न सिर्फ़ शानदार विकल्प है, बल्कि पर्यावरण-हितैषी (bio-degradable) भी है।

जैविक ईंधन, प्लास्टिक, काग़ज़ और प्लाईवुड निर्माण जैसे उद्योगों के लिए खोई भले ही सुलभ कच्चा माल है, लेकिन इनके कारखानों के लिए बड़ी पूँजी की ज़रूरत पड़ती है। जबकि बायो-क्रॉकरी ऐसा कृषि उत्पाद है, जो कम पूँजी वाले लघु और मझोले उद्योगों की श्रेणी में आता है। देश में सैकड़ों उद्यमी बायो-क्रॉकरी का उत्पादन करते हैं, लेकिन अब भी इस क्षेत्र में आमदनी बढ़ाने और रोज़गार के अवसर विकसित करने की अपार सम्भावनाएँ मौजूद हैं।

बायो-क्रॉकरी की खूबियाँ

बायो-क्रॉकरी पूरी तरह से बॉयोडिग्रेडेबल हैं। कचरे में फेंके जाने पर ये तीन महीने में पूरी तरह गल जाते हैं। इसे यदि कोई जानवर खा भी ले तो उसकी सेहत खराब नहीं होती। यानी, इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव या साइड इफ़ेक्ट नहीं है। खोई से बनी बायो-क्रॉकरी को माइक्रोवेव, ओवन और फ्रिज़ में भी रखा जा सकता है। इसका पैकेज़िंग में भी इस्तेमाल हो सकता है।

कैसे बनती है बायो-क्रॉकरी?

सबसे पहले खोई और गन्ने की पत्तियों को धूप में सुखाते हैं। फिर इसे बड़े-बड़े हौदों में पानी के साथ घोलकर लुगदी बनाते हैं। लुगदी को अच्छी तरह से मिलाकर गाढ़ा पेस्ट तैयार करते हैं। फिर मशीन की सहायता से उसे निर्धारित खाँचों में भरकर उच्च ताप और दाब पर गर्म करके अलग-अलग डिज़ाइन की क्रॉकरी के रूप में ढाला जाता है। देश में कई संस्थानों में बायो-क्रॉकरी के उत्पादन के लिए ट्रेनिंग भी दी जाती है। नज़दीकी कृषि विज्ञान केन्द्र से भी इसके बारे में जानकारी ली जा सकती है।

वैज्ञानिकों की राय

कानपुर स्थित राष्ट्रीय शर्करा संस्थान में शर्करा अभियांत्रिकी के सहायक प्रोफेसर विनय कुमार का कहना है कि अध्ययनों से पता चला है कि यूकेलिप्टस अथवा पाईन से निर्मित प्लाईवुड पैनल की अपेक्षा खोई से निर्मित पैनल बेहतर भौतिक और यांत्रिक गुणों वाले होते हैं। ये लकड़ी की माँग को घटाने और वन संरक्षण के लिए उपयोगी साबित होते हैं। इसी तरह, बायो-क्रॉकरी में थर्मोकोल और प्लास्टिक से निर्मित सिंगल यूज क्रॉकरी को विस्थापित करने की अपार सम्भावना मौजूद है।

कार्बनिक रसायन के सहायक प्रोफेसर डॉ. विष्णु प्रभाकर श्रीवास्तव बताते हैं कि Non biodegradable plastic का पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव का ज़ोरदार विकल्प खोई से विकसित किया जा सकता। ये पेट्रोलियम आधारित पॉलीमर के दानों’ (polymer granules) का शानदार विकल्प बन सकता है। इसकी दुनिया में अपार माँग है। उन्होंने कहा कि Biodegradable plastic का बाज़ार साल 2016 में जहाँ 17.5 अरब डॉलर का था, वो वर्ष 2022 तक 35.5 अरब डॉलर तक बढ़ने की उम्मीद है।

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