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हमारे देश में दालों की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है। दलहनी फ़सलें मिट्टी के सेहत में सुधार और नाइट्रोजन का संतुलन बनाए रखने में भी मददगार है। अब भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान (IIPR) ने अरहर की नई क़िस्में विकसित की हैं, जो न सिर्फ़ जल्दी तैयार हो जाती है, बल्कि लंबी अवधि वाली फ़सलों से उत्पादन भी अधिक देती है। डॉ. सतीश नायक ने इन नई क़िस्मों के बारे में विस्तार से जानकारी साझा की किसान ऑफ इंडिया के संवाददाता सर्वेश बुंदेली के साथ।
पूरे देश में की जाती है अरहर की खेती
डॉ. सतीश नायक बताते हैं कि दलहनी फ़सलें दो सीज़न में उगाई जाती हैं, खऱीफ और रबी। खरीफ की फ़सल की बुवाई मॉनसून के समय की जाती है, जबकि रबी की बुवाई ठंड में की जाती है। अरहर की नई क़िस्में (New varieties of pigeon pea) खरीफ सीज़न की मुख्य दलहनी फ़सल हैं। अरहर की खेती के लिए अच्छी जल निकासी वाली भूमि की आवश्यकता होती है, क्योंकि पानी रुकने पर फ़सल अच्छी नहीं होती है। अरहर का उत्पादन लगभग पूरे देश में किया जाता है। उत्तराखंड से लेकर तमिलनाडू तक और नागालैंड से लेकर राजस्थान, गुजरात तक इसकी खेती की जा सकती है।
हर इलाके के लिए अलग क़िस्म
भारत के हर राज्य की भौगोलिक स्थिति और जलवायु अलग होती है, इसलिए उसी हिसाब से हर इलाके के लिए अलग-अलग क़िस्में होती हैं। डॉ. सतीश नायक कहते हैं कि अरहर की नई क़िस्में (New varieties of pigeon pea) क़िस्मों के हिसाब से पूरे देश को 5 ज़ोन में विभाजित किया गया है।
- उत्तरी-पश्चिमी मैदानी क्षेत्र में पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, दिल्ली का छोटा सा हिस्सा आता है।
- उत्तर-पूर्वी मैदानी क्षेत्र में पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल आता है।
- पहाड़ी क्षेत्र में उत्तर पूर्वी क्षेत्र और पर्वतीय क्षेत्र आते हैं।
- मध्य क्षेत्र में मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, गुजरात जैसे राज्य आते हैं।
- दक्षिण क्षेत्र में कर्नाटक, तमिलनाडू, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश आते हैं।
इन पांच ज़ोन के लिए अलग-अलग अरहर की नई क़िस्में (New varieties of pigeon pea) उपयुक्त होती हैं।
उन्नत क़िस्में
भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान (IIPR) कानपुर ने हाइब्रिड IPH 15-03 और IPH 09-05 नामक दलहन की दो उन्नत क़िस्में विकसित की हैं। डॉ. सतीश नायक का कहना है कि ये दोनों ही क़िस्में बहुत अच्छी हैं और उत्तरी-पश्चिमी मैदानी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त हैं जैसे उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, दिल्ली। 140-150 दिनों में पककर तैयार हो जाती हैं।
यानी 15-20 जून तक रोपाई करके इसे नवंबर के आखिर तक काटा जा सकता है। इसके बाद किसान रबी की फ़सल की बुवाई कर सकते हैं जैसे सरसों, गेहूं, गन्ना। यानी इन उन्नत अगेती दलहनी फ़सलों के बुवाई से किसानों को डबल फ़ायदा होगा। इसके अलावा, अरहर की नई क़िस्में (New varieties of pigeon pea) भी इन क्षेत्रों में बेहतरीन परिणाम देती हैं।
अन्य उन्नत हाइब्रिड क़िस्में
डॉ. सतीश बताते हैं कि (IIPR) कानपुर द्वारा विकसित दूसरी हाइब्रिड क़िस्म है पूसा अरहर हाइब्रिड-5 जो दिल्ली और हरियाणा जैसे राज्यों के लिए उपयुक्त है। मध्य क्षेत्र यानी मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, गुजरात जैसे राज्यों के लिए IPA-15-06 वैरायटी अच्छी है, ये भी 150 दिनों में तैयार हो जाती है। यदि ठीक तरह से इसकी खेती की जाए तो इसकी उत्पादकता 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। इसके साथ ही, अरहर की नई क़िस्में (New varieties of pigeon pea) किसानों को बेहतर उपज और अधिक लाभ देने में मदद कर सकती हैं।
कब की जाती है अरहर की कटाई?
डॉ. सतीश कहते हैं कि जब अरहर की 70-80 फीसदी फली पक जाती है तो इसे परिपक्व मानकर कटाई कर दी जाती है। नई विकसित क़िस्मों की अधिकांश फलियां 140 दिनों में 80 फीसदी तक पक जाती हैं, तो इसकी कटाई कर दी जाती है। किसानों को इससे फ़ायदा ये होता है कि वो कटाई के बाद खेत में दूसरी फ़सल लगा सकते हैं।
जबकि लंबी अवधि की क़िस्मों के साथ ऐसा संभव नहीं हो पाता है। पूर्वी बिहार, यूपी, झारखंड में उगाई जाने वाली लंबे अवधि वाली क़िस्मों में सर्दियों के मौसम में फूल तो आते हैं मगर फलियां नहीं बन पातीं। अरहर की नई क़िस्में अगेती होती हैं, जिनमें अगस्त से फूल आने लगते हैं, जबकि लंबी अवधि वाली क़िस्मों में नवंबर से फूल आते हैं, मगर फलियां नहीं बनतीं। फलियां बनती हैं जब दोबारा फरवरी में फूल निकलते हैं।
पौधों के बीच दूरी का ध्यान रखें
कई लोगों को लगता है कि चने की तरह अरहर की थिनिंग यानी छंटाई करने की ज़रूरत नहीं पड़ती है। इस बारे में डॉ. सतीश कहते हैं कि अरहर की नई क़िस्में (New varieties of pigeon pea) यदि थिनिंग की जाए तो ज़्यादा फ़ायदा होगा। अरहर में थिनिंग करने पर ज़्यादा टहनियां आएंगी, जिससे फलियां अधिक होंगी और अधिक फ़सल का उत्पादन होगा। इसलिए थिनिंग की सलाह दी जाती है। साथ ही वो पौधों के बीच उचित दूरी रखने की सलाह देते हैं ताकि उत्पादन अधिक हो सके। उनका कहना है कि पौधों से पौधों के बीच बराबर दूरी रखनी चाहिए।
ज़्यादा घना पौधा लगाने से फ़सल ज़्यादा नहीं होगी। अगेती क़िस्म में पंक्ति से पंक्ति के बीच 60 सेंटीमीटर की दूरी रखें, जबकि लंबी अवधी की फ़सल के लिए पंक्ति से पंक्ति के बीच 90 सेंटीमीटर की दूरी रखी जानी चाहिए। वहीं अगेती क़िस्म में पौधों से पौधों की दूरी 20 सेंटीमीटर और लंबी अवधि वाली क़िस्म के लिए ये 30 सेंटीमीटर होनी चाहिए। आमतौर पर हर पौधे से 100 से 120 ग्राम अरहर मिलेगी, लेकिन अगर आप ज़्यादा घनी रोपाई करेंगे तो फलियां कम आएंगी, जिस पौधे में 500 फली होनी चाहिए उसमें 100-150 तक ही फली लगेगी।
पाले की समस्या से माहु का प्रकोप
डॉ. सतीश बताते हैं कि सर्दियों के बाद नमी या बारिश की वजह से पौधों में फंगस लग जाते हैं। लंबी अवधी वाले अरहर की फ़सल का क्षेत्रफल घटकर 50 फीसदी तक कम हो गया है। इसलिए अब लंबी अवधि वाले अरहर की क़िस्म उगाने वाली जगहों के लिए भी अरहर की नई क़िस्में विकसित करने पर काम किया जा रहा है। पूर्वी यूपी, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल के लिए भी अगेती क़िस्म आ जाएगी।
माहु के प्रकोप से बचने के लिए जहां किसान लंबी अवधि वाले अरहर लगा रहे हैं, वहां उन्हें शेड्यूल स्प्रे को फॉलो करना होगा। पाला पड़ने के तुरंत बाद अरहर सूखकर जब ताज़ा अंकुर आता है तो एक फंगल स्प्रे कर दें। वो आगे बताते हैं कि किसी भी वैरायटी के अरहर का बीज लेते समय उसके साथ एक शेड्यूल आता है कि कब-कब क्या स्प्रे करना है, यदि उसका पालन किया जाए तो रोग व कीट की समस्या नहीं होगी।
मूंग की क़िस्में
डॉ. सतीश का कहना है कि मूंग एक ऐसी फ़सल है जिसे साल के तीनों सीज़न में लगाया जा सकता है। IIPR कानपुर के पास ऐसी क़िस्में है जो 65 दिनों में कटने के लिए तैयार हो जाती है। विराट एक ऐसी ही क़िस्म है जो पैन इंडिया है, इसे भारत के किसी भी हिस्से में लगाया जा सकता है और ये पीला रोग के प्रति प्रतिरोधी है। ये क़िस्म 55-60 दिनों में परिपक्व हो जाती है। खरीफ सीजन में लगाने से अधिक फ़ायदा होता है। अगस्त में बुवाई करने पर ये सितंबर-अक्टूबर में कटने के लिए तैयार हो जाती है।
दलहनी फ़सलों में अंकुरण की समस्या
डॉ. सतीश बताते हैं कि इस समस्या से बचने के लिए सीड ट्रीटमेंट यानी बीज का उपचार की ज़रूरत है। इसमें अधिक खर्च भी नहीं आता है, 10 किलो बीज उपचार में 100 रुपए का भी खर्च नहीं होता है। इसके लिए 3 ग्राम फंगीसाइड या इंसेक्टिसाइड लेकर बीजों को उपचारित करें। इसके साथ यदि बायोफर्टिलाइज़र का इस्तेमाल किया जाए इससे अंकुरित होने तक बीजों की फंग से हिफाज़त होती है। दलहनी फ़सलों को रोगों से बचाने के लिए ऐसी भूमि का चुनाव करें जहां जल निकासी की उचित व्यवस्था हो।
डॉ. सतीश किसानों को दलहनी फ़सलें लगाने की सलाह देते हैं, क्योंकि ये मिट्टी की सेहत के लिए भी अच्छी है। ये फ़सलें मिट्टी को पुर्नजीवित करती हैं और उसे ताकतवर बनाती है।
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