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आदिवासी महिलाएं (Women in Tribal Farming) भारतीय कृषि की अनदेखी नायिकाएं हैं, जो पीढ़ियों से खेती, बीज संरक्षण और खाद्य सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। उनका पारंपरिक ज्ञान और सतत कृषि पद्धतियां न केवल उनकी समुदायों की आजीविका सुनिश्चित करती हैं, बल्कि जैव विविधता और पर्यावरण संरक्षण में भी योगदान देती हैं।
कृषि जनगणना के अनुसार, 73.2% ग्रामीण महिलाएं कृषि गतिविधियों में संलग्न हैं। केवल 8 फीसदी महिलाओं के पास ही भूमि का स्वामित्व है।
खेती में आदिवासी महिलाओं की भूमिका (Role Of Tribal Women In Agriculture)
आदिवासी समाज में महिलाएं (Women in Tribal Farming) खेती की रीढ़ मानी जाती हैं। वे भूमि की तैयारी, बुवाई, निराई, कटाई और फसल प्रबंधन जैसे सभी चरणों में सक्रिय रूप से शामिल होती हैं। उनकी मेहनत और समर्पण से परिवारों की खाद्य आवश्यकताएं पूरी होती हैं और स्थानीय बाजारों में भी आपूर्ति सुनिश्चित होती है।
उदाहरण के लिए,Indian Council of Agricultural Research (ICAR) की एक रिपोर्ट के अनुसार, आदिवासी महिलाएं वन संबंधी उत्पादों के लिए औसतन 158 दिवस प्रति वर्ष कार्य करती हैं, जिससे उन्हें प्रति दिवस 150 रुपये की आय होती है।
देश में जब भी कृषि संबंधी किसी भी तरह की कोई चर्चा होती है तो किसान के रूप में पुरुषों के बारे में ही सोचा जाता है। महिलाओं का नाम कृषि भूमि के मालिक के रूप में दर्ज न होने की वजह से उनको किसानों की परिभाषा से अलग रखा जाता है। आदिवासी कृषक महिलाओं को कृषक के रूप में मान्यता न मिलने से नियमानुसार सभी सरकारी योजनाओं का लाभ लेने से वंचित रह जाती हैं।
सरकार भी महिलाओं को ‘कृषि कार्य में सहायक’ या ‘खेतिहर मजदूर’(Agricultural Laborer’s) के रूप में मान्यता देती है न कि उनको कृषक के रूप में मान्यता और सुविधाएं।
अपनी मेहनत के दम पर खेती में मुकाम हासिल करने वाली महिलाएं (Women Who Have Achieved Success In Agriculture Through Their Hard Work)
रूबी पारीक राजस्थान के दौसा जिले की रहने वाली हैं। जिन्होंने जैविक खेती को अपनाया। रूबी पारीक ने अपनी जमीन पर मौसम के अनुसार जैविक खेती की शुरुआत की। उन्होंने गेहूं, चना, आंवला, नींबू और करौंदा जैसी कई फ़सलें उगाई हैं, जो न केवल उनके खेतों को हरा-भरा रखती हैं, बल्कि उनके जैविक फ़ार्म के लिए फ़ायदेमंद भी हैं। इसके साथ ही, वे अन्य प्रकार की फ़सलें जैसे हरी मिर्च, टमाटर, बैंगन, और मूली भी जैविक तरीके से उगाती हैं।
वहीं वाराणसी के FPO से जुड़ी महिलाओं ने ऑयस्टर मशरूम का उत्पादन किया। इनकी बंपर पैदावर देखकर वैज्ञानिक भी खुश हो गए। भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान, वाराणसी के जरिए मार्केटिंग की गई। 16 महिलाओं के समूह ने अक्टूबर 2021 से फरवरी 2022 के बीज घरेलू इस्तेमाल के बाद मशरूम उत्पादन से 25,300 रुपए की आमदनी की।
बीज संरक्षण में योगदान (Contribution To Seed Conservation)
बीज संरक्षण आदिवासी महिलाओं की एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। वे पारंपरिक बीजों को सहेजकर अगली पीढ़ी के लिए सुरक्षित रखती हैं, जिससे कृषि की विविधता बनी रहती है। पद्मश्री से सम्मानित राहीबाई पोपेरे स्वयं सहायता समूह ( Self Help Group – SHG ) के ज़रिए 50 एकड़ से भी ज़्यादा भूमि पर जैविक खेती कर रही हैं। इसमें वो 17 से भी अधिक फसलें उगा रही हैं। राहीबाई सोमा पोपेरे को ‘सीड मदर’ के नाम से भी जाना जाता है।
महाराष्ट्र के अहमद नगर ज़िले के छोटे से कोम्बले गांव की रहने वालीं 57 साल की राहीबाई एक आदिवासी किसान हैं। राहीबाई ने ऐसे देसी बीजों को इकट्ठा करना शुरू किया, जिन्हें उगाने में सिर्फ़ पानी और हवा की ज़रूरत पड़े। इन बीजों में रासायनिक और कीटनाशकों की ज़रूरत नहीं पड़ती।
ओडिशा के कंधमाल ज़िले की एक आदिवासी महिला, कुडेलाडु जानी, दो दशकों से पारंपरिक बीजों का संरक्षण कर रही हैं। उनका मानना है कि ये बीज अनमोल हैं, क्योंकि उन्हें किसी रसायन की जरूरत नहीं होती है, वे पौष्टिक होते हैं और समुदाय के पारंपरिक कृषि ज्ञान की रक्षा करते हैं।
महिलाओं की खाद्य सुरक्षा में भूमिका (The Role Of Women In Food Security)
आदिवासी महिलाएं खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में भी अहम भूमिका निभाती हैं। वे पारंपरिक फसलों की खेती करती हैं, जो पोषक तत्वों से भरपूर होती हैं और स्थानीय जलवायु के अनुकूल होती हैं। उदाहरण के लिए, साधना तिवारी जो मध्य प्रदेश के सतना जिले के माधवगढ़ गांव की निवासी हैं। एक प्रगतिशील महिला किसान हैं, जिन्होंने जैविक और प्राकृतिक खेती को अपनाकर न केवल खुद को सफल बनाया, बल्कि अन्य किसानों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनीं।
साधना ने 11 से 15 एकड़ जमीन पर जैविक खेती को न केवल व्यावसायिक स्तर पर अपनाया, बल्कि इसे एक स्वस्थ और टिकाऊ कृषि पद्धति के रूप में स्थापित किया। आज, वे अपने खेत में चावल, सब्जियां, और फल जैसी कई फ़सलें जैविक विधियों से उगाती हैं।
कर्नाटक के मंडया ज़िले की चिक्का महादेवम्मा सिर्फ़ सातवीं तक पढ़ी हैं, लेकिन उन्होंने बारिश पर निर्भर सूखी ज़मीन को फिर से हराभरा बना दिया। चिक्का महादेवम्मा अपनी 4 एकड़ भूमि पर पूरी तरह से जैविक खेती करती हैं, जिसमें कई तरह की फसलों की खेती करती हैं।
चुनौतियां और समाधान (Challenges And Solutions)
हालांकि, आदिवासी महिलाओं को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जैसे भूमि अधिकारों की कमी, संसाधनों की अनुपलब्धता और तकनीकी ज्ञान का अभाव। सरकार और गैर-सरकारी संगठनों को चाहिए कि वे इन महिलाओं को प्रशिक्षण, वित्तीय सहायता और बाजार तक पहुंच प्रदान करें, ताकि वे अपनी कृषि पद्धतियों को और मज़बूत कर सकें।
आदिवासी महिलाएं भारतीय कृषि की अनमोल धरोहर हैं। उनका पारंपरिक ज्ञान, बीज संरक्षण और सतत कृषि पद्धतियां हमारे देश की खाद्य सुरक्षा और जैव विविधता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। आवश्यक है कि हम उनके योगदान को पहचानें और उन्हें सशक्त बनाने के लिए ठोस कदम उठाएं।
सम्पर्क सूत्र: किसान साथी यदि खेती-किसानी से जुड़ी जानकारी या अनुभव हमारे साथ साझा करना चाहें तो हमें फ़ोन नम्बर 9599273766 पर कॉल करके या [email protected] पर ईमेल लिखकर या फिर अपनी बात को रिकॉर्ड करके हमें भेज सकते हैं। किसान ऑफ़ इंडिया के ज़रिये हम आपकी बात लोगों तक पहुँचाएँगे, क्योंकि हम मानते हैं कि किसान उन्नत तो देश ख़ुशहाल।