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दक्षिण अमेरिका में पाया जाने वाला एक विनाशकारी कीट, कसावा मीलीबग Cassava Mealybug यानि (फेनाकोकस मनिहोटी), अप्रैल 2020 में भारत पहुंचा और देश के कसावा उत्पादन पर गंभीर असर डाला। सबसे पहले ये कीट केरल में देखा गया और फिर यह तमिलनाडु और पुडुचेरी सहित अन्य प्रमुख कसावा उत्पादक क्षेत्रों में फैल गया।
इस संक्रमण की वजह से 1.43 लाख हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र प्रभावित हुआ। जिसकी वजह से 50-85 फ़ीसदी तक उत्पादन में गिरावट आई। प्रमुख क्षेत्रों जैसे सलेम और नमक्कल में पैदावार 20-25 टन प्रति हेक्टेयर से घटकर 5-12 टन प्रति हेक्टेयर रह गई।
जैविक नियंत्रण की आवश्यकता
कसावा मीलीबग के नियंत्रण के लिए तत्काल कदम उठाने की ज़रूरत थी। इससे पहले इस आक्रामक प्रजाति का भारत में कोई प्राकृतिक शिकारी नहीं था, इसलिए ICAR-राष्ट्रीय कृषि कीट संसाधन ब्यूरो (NBAIR), बेंगलुरु ने इसके समाधान की खोज शुरू की। बेनिन स्थित International Institute of Tropical Agriculture (IITA) के सहयोग से, NBAIR ने एक विदेशी परजीवी एनागाइरस लोपेज़ी (एन्सिर्टिडे: हाइमेनोप्टेरा) को आयात किया।
एनागाइरस लोपेज़ी: मीलीबग के विरुद्ध जैविक योद्धा
अगस्त 2021 में इस परजीवी को भारत लाया गया और NBAIR ने इसकी सुरक्षा और प्रभावशीलता जांचने के लिए संगरोध अध्ययन (Quarantine Studies) किए। सफल टेस्ट के बाद, बड़े पैमाने पर इसका प्रोडक्शन किया गया और इसे खेतों में छोड़ने की प्लानिंग बनाई गई।
किसानों के लिए प्रशिक्षण और फील्ड रिलीज़
कसावा मीलीबग के प्रसार को रोकने के लिए, NBAIR ने किसानों, कृषि वैज्ञानिकों और सरकारी अधिकारियों को प्रशिक्षित किया। 7 मार्च, 2022 को तमिलनाडु के येथापुर, सलेम में पहला फील्ड रिलीज़ किया गया, जिसमें 300 से अधिक किसानों ने हिस्सा लिया। इसके बाद पूरे दक्षिण भारत में 500 से अधिक स्थानों पर इस परजीवी (Parasites) को छोड़ा गया।
सफल परिणाम और उत्पादन में वृद्धि
एनागाइरस लोपेज़ी (Anagyrus lopezi) की आत्मनिर्भर प्रकृति के कारण इसने तेज़ी से काम किया और मीलीबग (Mealybugs) की आबादी में भारी गिरावट आई। इससे कसावा उत्पादन में फिर से सुधार हुआ। 2023-24 में, तमिलनाडु के सलेम, नमक्कल और धर्मपुरी जिलों में पैदावार फिर से 20-25 टन प्रति हेक्टेयर तक पहुंच गई, जो प्रकोप से पहले के स्तर के बराबर थी।
छोटे किसानों को मिला लाभ
इस जैविक नियंत्रण प्रयास से हजारों छोटे किसानों की आजीविका बहाल हुई। ये पहल पर्यावरण के अनुकूल और लागत प्रभावी साबित हुई। किसानों को अब रासायनिक कीटनाशकों पर निर्भर नहीं रहना पड़ा, जिससे उनकी उत्पादन लागत भी घटी।
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