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हिमाचल प्रदेश के शिमला ज़िले के रोहरू ब्लॉक के सामोली पंचायत के रहने वाले 37 वर्षीय रविंदर चौहान ने 2008 में सरकारी स्कूल की नौकरी छोड़कर अपने पुश्तैनी सेब के बाग की ज़िम्मेदारी संभाली। वे टीजीटी (मेडिकल) शिक्षक थे, लेकिन उन्होंने महसूस किया कि परिवार की ज़मीन और खेती की देखभाल ज़्यादा ज़रूरी है।
शुरुआती दिनों में उन्होंने पारंपरिक तरीके से खेती की, जहां रासायनिक स्प्रे और दवाइयों का खूब इस्तेमाल होता था। कुछ सालों बाद उन्होंने देखा कि रसायनों के इस्तेमाल से पौधों पर बीमारियां और ज़्यादा बढ़ रही हैं। एक बीमारी खत्म होती, तो दूसरी शुरू हो जाती। धीरे-धीरे ख़र्च बढ़ने लगा और आमदनी घटने लगी।
रसायन छोड़कर प्राकृतिक खेती की ओर
ऐसे समय में एक रिश्तेदार ने रविंदर को सलाह दी कि वे रासायनिक दवाओं की जगह गाय का गोमूत्र और गोबर से बनी देशी दवा का प्रयोग करें। उन्होंने यह तरीका अपनाया और देखा कि बाग में ऊली, माइट और कैंकर जैसी समस्याएँ काफ़ी हद तक कम हो गईं। यहीं से उनकी प्राकृतिक खेती की जर्नी शुरू हुई।
सुभाष पालेकर से मिली प्राकृतिक खेती प्रेरणा
2018 में रविंदर चौहान ने पद्मश्री सुभाष पालेकर के दो दिन के वर्कशॉप में हिस्सा लिया, जहां उन्होंने “ Natural Farming” की विधि सीखी। इस वर्कशॉप के बाद उन्हें लगा कि उनके बाग के लिए यही सही रास्ता है। इसके बाद उन्होंने कुफरी में 6 दिन की ट्रेनिंग लेकर प्राकृतिक खेती की गहराई से जानकारी ली। शुरुआत में उन्होंने अपने बाग के एक छोटे हिस्से पर यह तरीका अपनाया और कुछ महीनों में ही फर्क दिखाई देने लगा। इसके बाद उन्होंने अपने पूरे 8 बीघा खेत में प्राकृतिक खेती शुरू की।
पत्नी के सहयोग से आगे बढ़े
रविंदर चौहान की पत्नी कंप्यूटर ऑपरेटर हैं और वे भी बाग में उनकी पूरी मदद करती हैं। दोनों मिलकर घर पर ही प्राकृतिक खेती के सारे Inputs तैयार करते हैं – जैसे जीवामृत, घनजीवामृत, खत्टी लस्सी, सौंथास्त्र और दर्शनी अर्क। इनसे मिट्टी की गुणवत्ता और पौधों की सेहत में बड़ा सुधार आया है।
रविंदर बताते हैं, “अब हमारे सेब का रंग, स्वाद और आकार पहले से बहुत बेहतर है। उत्पादन भी बढ़ा है और लागत काफ़ी कम हो गई है।”
आर्थिक रूप से बड़ा बदलाव
पहले रासायनिक खेती में उनका ख़र्च क़रीब ₹90,000 तक पहुंच जाता था अब प्राकृतिक खेती में ख़र्च घटकर ₹6,500 रह गया है, जबकि आमदनी भी बढ़ी है। वे बताते हैं कि अब उनके सेब की डिमांड मार्केट में बढ़ गई है। स्थानीय बाज़ार के साथ-साथ तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और दिल्ली से भी खरीदार आने लगे हैं।
सेब की खेती में नई पहचान
रविंदर चौहान आज प्राकृतिक खेती से सेब की खेती में एक नई पहचान बना चुके हैं। उनका कहना है – “प्राकृतिक खेती ने मुझे एक सफल सेब उत्पादक की पहचान दी है। तीन साल में मेरी ज़मीन और बाग दोनों ने नई जान पा ली है।”
उन्होंने बताया कि पहले रसायनिक स्प्रे के कारण उनके परिवार की सेहत पर भी असर पड़ता था, क्योंकि बाग उनके घर के पास ही था। अब प्राकृतिक खेती से कोई हेल्थ रिस्क नहीं है और वे अपने 9 साल के बेटे को भी निश्चिंत होकर खेतों में जाने देते हैं।
बाग में फ़सलों की विविधता
रविंदर चौहान अपने सेब के साथ-साथ मक्का, मटर, राजमा, धनिया और सूरजमुखी जैसी फ़सलें भी उगा रहे हैं। उन्होंने समुद्र तल से 2500 मीटर की ऊँचाई पर एक नया सेब का बाग भी तैयार किया है जहां ये सभी फ़सलें साथ में लगाई गई हैं। इससे मिट्टी की उर्वरता बनी रहती है और अतिरिक्त आमदनी भी होती है।
किसान से ट्रेनर बने
प्राकृतिक खेती में सफलता देखने के बाद अब रविंदर चौहान को ATMA (Agriculture Technology Management Agency) ने SPNF का मास्टर ट्रेनर बनाया है। अब तक वे लगभग 150 किसानों को इस गैर-रासायनिक खेती की ट्रेनिंग दे चुके हैं।
वे कहते हैं – “कई सेब उत्पादक अब भी प्राकृतिक खेती को अपनाने से डरते हैं, लेकिन मैं उन्हें बताना चाहता हूँ कि यह न केवल मुनाफ़े वाला बल्कि सुरक्षित तरीका भी है।”
प्राकृतिक खेती से खुशहाल किसान
रविंदर चौहान आज उन किसानों में से हैं जिन्होंने अपनी मेहनत और सीख से साबित किया कि प्राकृतिक खेती सिर्फ़ एक तरीका नहीं, बल्कि खेती की सोच बदलने का आंदोलन है। अब उनका बाग सिर्फ़ सेब का बाग नहीं रहा, बल्कि यह एक प्रेरणा स्थल बन गया है जहां आसपास के किसान सीखने आते हैं।
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