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पहाड़ी क्षेत्रों में महिलाओं की मेहनत और खेती में योगदान बहुत अहम होता है। यहां की कठिन भौगोलिक परिस्थितियों में भी महिलाएं पूरे समर्पण और मेहनत के साथ खेतों में काम करती हैं। खेती-बाड़ी से लेकर पशुपालन और घर की जिम्मेदारियां तक, अधिकतर कार्य महिलाओं द्वारा ही संभाले जाते हैं।
हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा ज़िले के सरूर गांव की महिला किसान श्रेष्ठा देवी भी ऐसी ही एक प्रगतिशील किसान हैं। उन्होंने न सिर्फ़ प्राकृतिक खेती को अपनाया, बल्कि अपने जीवन और परिवार की स्थिति में भी सकारात्मक बदलाव लाए। उनकी लगन और मेहनत ने यह साबित कर दिया कि अगर सही दिशा और सोच हो, तो सीमित संसाधनों में भी बड़ा परिवर्तन संभव है।
एक प्रशिक्षण शिविर से हुई शुरुआत
वर्ष 2020 में श्रेष्ठा देवी ने विकास खंड स्तर पर आयोजित एक प्रशिक्षण शिविर में भाग लिया। इस शिविर में उन्हें प्राकृतिक खेती की विधियों के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई। उन्होंने सीखा कि कैसे रासायनिक खाद और कीटनाशकों की जगह गाय के गोबर, गोमूत्र और स्थानीय जड़ी-बूटियों का उपयोग करके जैविक घोल तैयार किया जा सकता है।
यह घोल न केवल फ़सलों को पोषण देता है, बल्कि मिट्टी की उर्वरकता भी बनाए रखता है। प्रशिक्षण के बाद श्रेष्ठा देवी ने इस तकनीक को अपने खेतों में अपनाना शुरू किया। शुरुआत में यह तरीका नया और थोड़ा कठिन लगा, लेकिन धीरे-धीरे उन्हें इसके अच्छे परिणाम मिलने लगे।
रासायनिक खेती और प्राकृतिक खेती में की तुलना
श्रेष्ठा देवी बताती हैं कि जब उन्होंने प्राकृतिक खेती की विधि सीखी, तो उसे अपनाने से पहले उन्होंने इसे परखने का फैसला किया। उन्होंने कुछ खेतों में प्राकृतिक खेती शुरू की, जबकि बाकी खेतों में पहले की तरह रासायनिक खाद और कीटनाशकों का प्रयोग जारी रखा। कुछ ही महीनों में फर्क साफ नजर आने लगा। उन्होंने देखा कि जिन खेतों में प्राकृतिक तरीकों से खेती की गई थी, वहां फ़सलें ज़्यादा हरी-भरी और मजबूत थीं। न केवल उनकी बढ़वार अच्छी हुई, बल्कि पैदावार का स्वाद और गुणवत्ता भी रासायनिक खेती से कहीं बेहतर थी।
यह तुलना श्रेष्ठा देवी की आंखें खोलने वाली साबित हुई। उन्होंने महसूस किया कि प्राकृतिक खेती न केवल सेहतमंद फ़सल देती है, बल्कि मिट्टी और पर्यावरण के लिए भी लाभदायक है।
लागत कम और मुनाफ़ा ज़्यादा
प्राकृतिक खेती से उन्हें सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि खेती का ख़र्च बहुत कम हो गया। पहले जहां रासायनिक खेती में ज़्यादा पैसा लगता था, वहीं अब सिर्फ़ स्थानीय संसाधनों से ही काम चल जाता है। उनकी 10 कनाल (5 बीघा) ज़मीन में से 6 कनाल (3 बीघा) पर वे अब पूरी तरह प्राकृतिक खेती कर रही हैं। गेहूं, मटर, गोभी, बैंगन, आलू और लीची जैसी फ़सलें वे इसी विधि से उगा रही हैं। रासायनिक खेती में जहां उनका ख़र्च करीब 2000 रुपये वहीं प्राकृतिक खेती में ख़र्च मात्र 300 रुपये रह गया और आमदनी भी बढ़ गई।
मिट्टी और फ़सलों की सेहत में सुधार
श्रेष्ठा देवी बताती हैं कि प्राकृतिक खेती से न सिर्फ़ उनकी मिट्टी की उर्वरता बढ़ी है बल्कि फ़सलों में रोग भी कम हुए हैं। गोमूत्र, जीवामृत और घनजीवामृत जैसे जैविक घोलों से पौधे मजबूत हुए हैं। अब उन्हें अपने खेत में कोई रासायनिक खाद या कीटनाशक डालने की ज़रूरत नहीं पड़ती। मिट्टी की नमी बनी रहती है और उत्पादन पहले से बेहतर हो गया है।
महिला किसानों के लिए बनी प्रेरणा
आज श्रेष्ठा देवी अपने क्षेत्र की कई महिला किसानों के लिए प्रेरणा बन गई हैं। उन्होंने अपने आस-पास के तीन पंचायतों की महिलाओं को प्राकृतिक खेती से जोड़ा है। वे प्रशिक्षण शिविरों और बैठकों में जाकर किसानों को इसकी जानकारी देती हैं ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोग इस विधि को अपनाएं।
आर्थिक स्वतंत्रता की ओर कदम
प्राकृतिक खेती ने श्रेष्ठा देवी को न सिर्फ़ आत्मनिर्भर बनाया बल्कि उनके परिवार की आर्थिक स्थिति भी सुधारी। अब वे अपने उत्पाद सीधे स्थानीय बाज़ार में बेचती हैं जिससे उन्हें बेहतर दाम मिलते हैं और बिचौलियों पर निर्भरता खत्म हो गई है।
महिला सशक्तिकरण का उदाहरण
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर श्रेष्ठा देवी को नौणी विश्वविद्यालय में आयोजित कार्यशाला में हिस्सा लेने का मौका मिला। वहां उन्होंने प्रदेशभर की महिला किसानों के अनुभव सुने जिससे उन्हें नई ऊर्जा और प्रेरणा मिली।
वे कहती हैं –
“अब मैं और मेहनत से काम कर रही हूँ ताकि प्राकृतिक खेती के आंदोलन को और गति दे सकूं।”
निष्कर्ष
श्रेष्ठा देवी जैसी महिलाएं आज यह साबित कर रही हैं कि अगर इच्छाशक्ति हो तो खेती में क्रांति लाना कोई मुश्किल काम नहीं। प्राकृतिक खेती से न सिर्फ़ लागत घटती है बल्कि पर्यावरण, मिट्टी और सेहत – सबका संतुलन भी बना रहता है। यह खेती आने वाले समय में किसानों के लिए एक स्थायी और लाभकारी विकल्प साबित हो सकती है।
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