हिमाचल का कांगड़ा ज़िला बना प्राकृतिक खेती का रोल मॉडल

कांगड़ा ज़िला प्राकृतिक खेती में नई मिसाल बन रहा है, जहां किसान देशी तरीकों से कम लागत में बेहतर उत्पादन और अधिक मुनाफ़ा कमा रहे हैं।

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हिमाचल प्रदेश का कांगड़ा ज़िला अब देश में प्राकृतिक खेती का मजबूत और प्रेरणादायक मॉडल बनकर उभर रहा है। रासायनिक खाद और कीटनाशकों के दुष्प्रभावों से दूर रहकर यहां के किसान पारंपरिक खेती से हटकर देशी तरीकों से खेती कर रहे हैं। गोबर, गोमूत्र, जीवामृत और नीम के प्रयोग से न केवल लागत में कमी आई है, बल्कि मिट्टी की सेहत में भी सुधार हुआ है और उत्पादन की गुणवत्ता भी बेहतर हुई है। इसी कारण प्राकृतिक खेती को लेकर किसानों में उत्साह तेजी से बढ़ रहा है।

प्राकृतिक खेती से किसानों की बढ़ी आमदनी

ज़िला परियोजना अधिकारी (आत्मा) कांगड़ा डॉ. राजकुमार भारद्वाज के अनुसार वर्ष 2024-25 में 358 किसानों से 836 क्विंटल गेहूं और 53 क्विंटल हल्दी की खरीद की गई है। प्राकृतिक गेहूं का समर्थन मूल्य 60 रुपये प्रति किलो और मक्की का मूल्य 40 रुपये प्रति किलो तय किया गया। बाज़ार में प्राकृतिक आटा और दलिये की इतनी अधिक मांग रही कि कुछ ही दिनों में पूरा स्टॉक बिक गया।

डॉ. भारद्वाज ने बताया कि विभाग किसानों को प्राकृतिक खेती के लिए प्रशिक्षण, प्रोत्साहन राशि और विपणन सुविधाएं दे रहा है। केवल तीन वर्षों में हल्दी उत्पादन से जुड़े किसानों की संख्या 13 से बढ़कर 800 तक पहुंच गई है, जो यह दर्शाता है कि किसान इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं।

मिट्टी की सेहत में सुधार और उत्पादन की गुणवत्ता में वृद्धि

रासायनिक खेती के लगातार इस्तेमाल से मिट्टी की उर्वरक क्षमता कम होती जा रही है, जबकि प्राकृतिक खेती से मिट्टी में मौजूद सूक्ष्मजीव सक्रिय रहते हैं और भूमि की गुणवत्ता बनी रहती है। किसानों का कहना है कि इससे फ़सल की पैदावार तो बढ़ी ही है, साथ ही रासायनिक खाद पर ख़र्च भी कम हुआ है।

गांव पैराई की किसान कमला देवी ने बताया कि वह 2021 से प्राकृतिक खेती कर रही हैं और अब उन्हें अच्छी उपज के साथ अधिक मुनाफ़ा भी हो रहा है। इसी तरह मीनाक्षी और अलका जैसी महिला किसान भी अब धान के साथ उड़द जैसी सहफ़सली खेती कर रही हैं, जिससे खेतों में नाइट्रोजन की मात्रा बनी रहती है और फ़सल की सेहत अच्छी रहती है।

देसी तरीकों से हो रहा उत्पादन

प्राकृतिक खेती में किसान गोबर, गोमूत्र, नीम का छिड़काव, जीवामृत और बीजामृत जैसे पूरी तरह देशी और जैविक उपायों का इस्तेमाल कर रहे हैं। इससे फ़सल पर कीटों का प्रकोप कम होता है और किसी भी प्रकार के जहरीले रसायनों की ज़रूरत नहीं पड़ती। यही वजह है कि प्राकृतिक उत्पादों की बाज़ार में मांग लगातार बढ़ रही है।

परियोजना निदेशक डॉ. राज कुमार ने बताया कि वर्ष 2024-25 में 51.89 लाख रुपये व्यय कर 358 किसानों से 836.94 क्विंटल गेहूं खरीदा गया। इसी तरह 4.83 लाख रुपये में 13 किसानों से 53.69 क्विंटल हल्दी खरीदी गई। यह आंकड़े इस बात का प्रमाण हैं कि प्राकृतिक खेती अब सिर्फ़ एक विकल्प नहीं, बल्कि किसान अर्थव्यवस्था का अहम हिस्सा बनती जा रही है।

सरकार का प्रोत्साहन और किसानों की नई पहचान

उपायुक्त हेम राज बैरवा ने बताया कि हिमाचल प्रदेश सरकार किसानों को प्राकृतिक खेती के लिए हर संभव सहयोग दे रही है। प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना के तहत किसानों को प्रशिक्षण, तकनीकी मार्गदर्शन, प्रोत्साहन राशि और विपणन सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है। इसके अलावा कांगड़ा ज़िले में कई केंद्रों पर किसानों को प्राकृतिक खेती की आधुनिक और पारंपरिक तकनीकें सिखाई जा रही हैं।

उन्होंने कहा कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य और लाइफसाइकिल अप्रोच के माध्यम से हल्दी, मक्की और पशुपालन को प्राकृतिक खेती से जोड़ रही है, ताकि शुद्ध उत्पाद देश और विदेश के बाज़ारों तक पहुंच सकें।

प्राकृतिक खेती का मॉडल ज़िला बनता कांगड़ा

प्राकृतिक खेती आज समय की आवश्यकता बन चुकी है। रासायनिक खाद और कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग ने मिट्टी की गुणवत्ता, पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। वहीं, प्राकृतिक खेती टिकाऊ और लाभकारी विकल्प साबित हो रही है। कांगड़ा ज़िला न सिर्फ़ हिमाचल में बल्कि पूरे देश में इसका एक आदर्श मॉडल बनता जा रहा है।

किसानों की बढ़ती रुचि, सरकारी नीतियां और स्थानीय संसाधनों के प्रयोग ने कांगड़ा की पहचान अब प्राकृतिक खेती के केंद्र के रूप में स्थापित कर दी है। यहां की खेती अब सिर्फ़ आजीविका नहीं, बल्कि सेहत और सतत विकास की दिशा में बड़ा कदम है।

निष्कर्ष

कांगड़ा में प्राकृतिक खेती की यह जर्नी दिखाती है कि जब किसान पारंपरिक ज्ञान और स्थानीय संसाधनों को अपनाते हैं तो खेती न केवल टिकाऊ बनती है बल्कि किसानों की आय भी बढ़ती है। यह मॉडल देशभर के किसानों के लिए प्रेरणा बन सकता है।

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