Nano Urea And Nano DAP: भविष्य में खेती को बेहतर बनाने के लिए क्यों ज़रूरी है नैनो तकनीक, जानिए Debashish Mandal से

IFFCO सिलीगुड़ी के अधिकारी देवाशीष मंडल (Debashish Mandal, officer of IFFCO Siliguri)। किसानों में जागरुकता फैलाने के मकसद से ही वो 12 जून 2024 को लद्दाख के माउंट कांग यात्से की 20500 फीट ऊंची चोटी पर चढ़ें और देशभर के किसानों तक नैनो यूरिया (Nano Urea And Nano DAP) के बारे में जानकारी पहुंचाई।

Nano Urea And Nano DAP: भविष्य में खेती को बेहतर बनाने के लिए क्यों ज़रूरी है नैनो तकनीक, जानिए Debashish Mandal से

नैनो यूरिया और नैनो डीएपी (Nano Urea and Nano DAP) खेती का भविष्य है और इसके प्रति किसानों में जागरुकता फैलाने का काम कर रहे हैं IFFCO सिलीगुड़ी के अधिकारी देवाशीष मंडल (Debashish Mandal, officer of IFFCO Siliguri)। किसानों में जागरुकता फैलाने के मकसद से ही वो 12 जून 2024 को लद्दाख के माउंट कांग यात्से की 20500 फीट ऊंची चोटी पर चढ़ें और देशभर के किसानों तक नैनो यूरिया के बारे में जानकारी पहुंचाई।

एग्रीकल्चर फील्ड से जुड़े देवाशीष को पर्वतारोहण का भी शौक है। अपने इस शौक और भविष्य की खेती में नैनो यूरिया की ज़रूरत, यूरिया और डीएपी के इतिहास पर उन्होंने खुलकर बातचीत की किसान ऑफ इंडिया के संवाददाता सर्वेश बुंदेली से।

पहाड़ की ऊंचाई पर जाकर किया किसानों को जागरुक

एग्रीकल्चर के स्टूडेंट रह चुके देवाशीष मंडल को शुरुआत से ही पर्वतारोहण का काफी शौक था और वो पर्वतारोहण करते रहते हैं, मगर 12 जून 2024 का दिन उनके लिए ख़ास था, क्योंकि इस दिन देवाशीष मंडल 15 लोगों की टीम के साथ लद्दाख के पहाड़ों पर पहुंचे और 20,500 फीट की ऊंचाई पर पहुंचकर तिरंगा लहराया। इसके साथ ही उन्होंने किसानों को नैनो यूरिया के प्रति जागरुक किया।

देवाशीष मंडल कहते हैं कि उनकी इस टीम समिट का मकसद किसानों को नई टेक्नोलॉजी को अपनाने के लिए प्रेरित करना था, वो खेती में स्मार्ट और टिकाऊ बदलाव लाना चाहते हैं। वो चाहते हैं कि समय के साथ खेती और बेहतर बने। देवाशीष का कहना है कि हमारे देश में ज़्यादातर किसान खुद को एक सीमित दायरे में रखते हैं, उन्हें उससे बाहर निकलने की ज़रूरत है।

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वो आगे कहते हैं कि पारंपरिक कृषि इनपुट का इस्तेमाल करने के साथ ही उन्हेंर आज जो नई टेक्नोलॉजी आई है उसे अपनाना भी ज़रूरी है, वरना उनका हाल भी उसी कोडक कंपनी की तरह होगा, जो कैमरे तो बहुत अच्छे बनाती थी, मगर समय के साथ बदली नहीं। यानी रील वाले कैमरे बनाने वाली कंपनी ने डिजीटल बदलाव को स्वीकार नहीं किया और आखिरकार बंद हो गई। इसलिए देवाशीष किसानों से अपील करते हैं कि वो नई और स्मार्ट तकनीकों को अपनाएं। साथ ही हो कहते हैं कि हमें मदर नेचर को प्रोटेक्ट करना है क्योंकि ये सुरक्षित नहीं रही तो सांस लेने और भोजन मिलना मुश्किल हो जाएगा।

पौधों के लिए पोषक तत्व (न्यूट्रिएंट्स )

देवाशीष मंडल बताते हैं कि पौधों के लिए दो तरह के न्यूट्रिएंट्स की ज़रूरत होती है- मैक्रोन्यूट्रिएंट्स और माइक्रोन्यूट्रिएंट्स (Macronutrients and Micronutrients)। कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन (CHO) और नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश (NPK)… इन 6 पोषक तत्वों की पौधों को सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है। इसके बाद कैल्शियम, मैग्नीशियम, सल्फर की ज़रूरत पड़ती है। साथ ही ज़िक, कोबाल्ट, फेरास, बोरोन, निकल, मैगनीज़ आदि की भी पौधों को ज़रूरत पड़ती है।

पहले वाले 6 पोषक तत्व की पौधों को सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है, इसमें से कार्बन, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के लिए किसानों को पैसे खर्च करने की ज़रूरत नहीं पड़ती है। क्योंकि कार्बन वातावरण मिल जाता है पौधों में जो पानी नीचे से आता है उससे उन्हें हाइड्रोजन और ऑक्सीजन मिल जाता है।
नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश के लिए किसानों को पैसे खर्च करने पड़ते हैं। देवाशीष का कहना है कि सबसे बड़ी समस्या ये है कि पिछले 40-50 साल से इसकी एक ही टेक्नोलॉजी  का इस्तेमाल किया जा रहा है। किसान सबसे ज़्यादा अपने खेत में यूरिया और डीएपी ही डालता है, जो न सिर्फ ज़मीन की सेहत बिगाड़ रहा है, बल्कि इंसानों के स्वास्थ्य के लिए भी ख़तरनाक है।

यूरिया और डीएपी का इतिहास

जिन लोगों को लगता है कि यूरिया 90 के दशक में बना है, उनकी गलतफहमी दूर करते हुए देवाशीष बताते हैं कि  1780 में एक फ्रेंच महिला थी हिलैरे-मारिन रूएल (In 1780 there was a French woman named Hilaire-Marin Ruel) जिसने यूरिन से यूरिया बनाया। उसके बाद 1800 में एक जर्मन साइंटिस्ट फ्रेडरिक वोहलर (German Scientist Friedrich Wöhler) ने रासायनिक तरीके से यूरिया बनाया। यूरिया के बाद बना डीएपी।

डीएपी 1960 के दशक में ऑस्ट्रेलिया के क्विंसलैंड में बना था। आज़ादी के बाद जब देश में खाद्यान की कमी थी तो उत्पादन बढ़ाने के लिए इन दोनों का खूब इस्तेमाल हुआ। मगर अब ये उतने असरदार नहीं रहे और इन दोनों खाद के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि जब ये सामान्य तापमान पर रहते हैं तो अपने आप अमोनिया रिलीज करने लगते हैं। अमोनिया एक ग्रीन हाउस गैस है, जो पर्यावरण की ओजोन परत को नुकसान पहुंचाता है, ओजोन की परत में छेद करता है। इन ग्रीन हाउस गैसों का ग्लोबल वॉर्मिंग में भी योगदान है।

पौधों को मिलता है सिर्फ 30 फीसदी खाद

देवाशीष का कहना हैकि ज़मीन में जो भी केमिकल वाली खाद डाली जाती है उसमें से पौधों को सिर्फ 30 प्रतिशत ही मिलता है और बाकी का 70 फीसदी नदी-नालों में बह जाता है या अमोनिया बन जाता है या फिर ज़मीन के अंदर जाकर भूजल को प्रदूषित करता है। इससे हमारा पीने वाला पानी भी प्रदूषित हो रहा है। पहले लोग झरने का पानी पीते थे, लेकिन अब तक घर के नल और ट्यूबवेल का ही पी रहे हैं, जो दूषित हो चुका है और आखिरकार वो हमारे शरीर में जा रहा है जो सेहत के लिए ठीक नहीं है।

यूरिया, डीएपी का इस्तेमाल कैसे करें

देवाशीष किसानों को सलाह देते हैं कि वो जितना भी खाद इस्तेमाल करते हैं उसका 10 से 20 फीसदी कम खाद डालें। पहले अगर 1 बीघा ज़मीन में 100 किलो यूरिया डालते थे तो उसे कम करके 75-80 किलो दें, इससे पैसे भी बचेगें। वो आगे बताते हैं कि अगर किसी किसान की 10 बीघा ज़मीन है और वो सालाना 3 बोरी खाद डालता है, तो 30 बोरी लगेंगे।

मान लीजिए वो साल में दो ही फसल लगाता है तो एक सीज़न में 60 बोरी डीएपी का इस्तेमाल होगा। औसतन यदि कोई किसान 100 बोरा खाद खरीदता है तो 3 लाख रुपए खर्च होंगे। हैरानी की बात तो ये है कि इसका सिर्फ 30 प्रतिशत ही पौधों में इस्तेमाल होता है यानी 90 हजार का ही खाद इस्तेमाल हुआ, बाकी बर्बाद होता है। वो पानी के साथ बह जाता है या ज़मीन के अंदर पहुंचकर भूजल को दूषित कर देता है। इसलिए किसानों को धीरे-धीरे इसे कम करना चाहिए। इस तरह से जो पैसे बचे उससे नई तकनीक वाले खाद और माइक्रोन्यूट्रिएंट्स का इस्तेमाल किसानों को करना चाहिए।

इसके साथ ही हर किसान को एक बार मिट्टी की जांच ज़रूर करवानी चाहिए, ये मुफ्त में होती है। जांच से पता चलेगा कि मिट्टी में किन-किन माइक्रोन्यूट्रिएंट्स की कमी है। वो बताते हैं कि ज़्यादातर देखा गया है कि 70 फीसदी ज़मीन में ज़िंक की कमी होती है, 65 प्रतिशत ज़मीन में बोरोन और सल्फर की कमी भी होती। माइक्रोन्यूट्रिएंट्स (Micronutrients) पौधों के लिए ज़रूरी है, अच्छी बात ये है कि यूरिया की तरह ये बोरी के बोरी नहीं लगते, बल्कि बहुत कम मात्रा में लगते हैं, जैसे एक बीघा खेत में सिर्फ एक किलो ही ज़िंक लगता है, वो भी साल में सिर्फ एक बार ही। बोरोन को क्रूसिफेरस (गोभी, सरसों) सब्ज़ियों के खेत में डालना चाहिए। इसे  एक बीघा खेत में एक किलो के हिसाब से एक साल में एक बार डालना चाहिए, इससे उत्पादन बढ़ेगा।

क्या है नैनो टेक्नोलॉजी

खेती में नैनो तकनीक (Nano technology) को सरकार भी प्रमोट कर रही है। देवाशीष कहते हैं कि कृषि क्षेत्र में 2019 में एक्सपेरिमेंट के तौर नैनो तकनीक को लाया गया और फिर 1 लाख जगह पर इसका ट्रायल हुआ। जिसमें सरकारी फर्म, कृषि विज्ञान केंद्र, खेत में ट्रायल (Government firms, Krishi Vigyan Kendra, field trials)  शामिल है। फिर 2021 में IFFCO में आया और उसने इसे किसानों को बेचना शुरू किया। हालांकि शुरुआत में इसका ज़्यादा फायदा नहीं दिखा, क्योंकि ज़मीन को ग्रैनुअल वाले यूरिया की आदत पड़ चुकी थी। उसके बाद नैनो तकनीक (Nanotechnology) में यूरिया को 4 प्रतिशत से बढ़ाकर 16 कर दिया गया।

2024 में इसमें वैल्यू एडिशन करके आया नैनो यूरिया प्लस। जिसमें दो चीज़ें और जोड़ी गई पहला क्लोरोफिल चार्जर और दूसरा यील्ड बूस्टर (Chlorophyll Charger and Other Yield Boosters)। क्लोरोफिल चार्जर पत्तों को चार्ज करने में मदद करता है है जिससे फोटोसिंथेसिस  (Photosynthesis) की प्रक्रिया बढ़ती है।

यील्ड बूस्टर में पौधों के लिए ज़रूरी हार्मोन्स होते हैं- ये हैं ऑक्सिन, साइटोकाइनिन और जिबरेलिन (Auxins, cytokinins and gibberellins)। इनकी मदद से पूरे पौधें का अच्छा विकास होता है।

Nano DAP क्या है? 

नैनो यूरिया के बाद आया नैनो डीएपी (Nano DAP)। नैनो डीएपी से बीज या जड़ों का उपचार कर सकते हैं। जिस भी फसल में हम बीज लगाते हैं जैसे, मक्का, गेहूं इसमें बीज का शोधन करें और जिस फसल में पौध रोपन किया जाता है उसमें भी जड़ों का शोधन (refining of roots) करना चाहिए। इसके लिए मीडियम साइज के टैंक में जड़ों को भिगोनें के लिए जितना पानी चाहिए उतना डालें। ज़्यादा से ज़्यादा 40 लीटर पानी डालिए और इसमें 160 मिली. नैनो डीएपी मिलाएं।

बीज को 1 घंटा और जड़ों को आधे घंटे इस पानी में रखें। उपचार के बाद रोपाई कर लें। आप चाहे तो एक एकड़ खेत के एक हिस्से में ही इसे करके देख सकते हैं कि फसल में कितना फर्क आता है। इतना ही नहीं ऐसा करने से फसल 7 से10 पहले ही तैयार हो जाती है। रबी की फसल आलू, टमाटर, बैंगन, फूलगोभी, पत्तागोभी, हरी मिर्च के जल्दी तैयार हो जाने से किसानों को फायदा होता है।

नैनो तकनीक की डोज़

देवाशीष कहते हैं कि नैनो डीएपी (Nano DAP) से उपचार के लिए इसकी डोज़ हर तरह के बीज या स्प्रे के लिए फिक्स है। 1 लीटर में 4 मिलीलीटर डीएपी। सभी फसल के लिए ये एक ही डोज होती है। नैनो तकनीक पौधों में धीरे-धीरे समाहित होती है इसलिए इसकी डोज सबके के लिए एक समान ही रखी जाती है।

नैनो टेक्नोलॉजी से जमीन और पर्यावरण को बचाने के साथ ही किसानों का खर्च कम करने में मददगार है। नैनो तकनीक की एक खास बात ये है कि किसानों को इसे अलग से स्प्रे करने की ज़रूरत नहीं है। वो कीटनाशकों के छिड़काव वाले घोल में इसे मिक्स करके छिड़काव कर सकते हैं।

टेस्टिंग के बाद करें इस्तेमाल

कई बार कीटनाशकों के घोल में नैनो खाद मिलाने पर हो फट जाती है, इस बारे में देवाशीष कहते हैं कि इसे इस्तेमाल करने से पहले एक छोटा सा टेस्ट कर लेना चाहे। किसानों को थोड़ा-सा पेस्टिसाइड लेकर उसमें नैनो यूरिया/डीएपी मिलाकर देख लेना चाहिए कि कहीं वो फट तो नहीं रहा है। अगर वो नहीं फटता है, तभी उसका इस्तेमाल करें, क्योंकि अगर वो फट जाता है तो उसका असर खत्म हो जाता है या कई बार फसलों पर गलत असर भी हो सकता है।
वो सलाह देते हैं कि कॉपर आधारित फर्टिलाइज़र के साथ नैनो यूरिया को कभी न मिलाएं। वो बताते हैं कि नैनो यूरिया और डीएपी के बाद ज़िंक और कॉपर पर भी काम चल रहा है।

किसानों को गुणवत्तापूर्ण खाद पहुंचाना है IFFCO का मकसद

IFFCO अधिकारी देवाशीष इसकी स्थापना के बारे  में बताते हैं कि 3 नवंबर 1967 में IFFCO की स्थापना प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने की थी।  इसे बनाने के पीछे मकसद था कि किसानों को अच्छी गुणवत्ता वाली खाद मिले। ये किसानों को कुछ संस्थाओं और फ्रेंचाइज़ी द्वारा खाद पहुंचाता है। हालांकि कई बार कुछ एजेंसियां इसका गलत इस्तेमाल भी करती हैं।

मुश्किल है IFFCO का सिलेक्शन प्रोसेस 

IFFCO में सेलेक्ट होना आसान नहीं है। देवाशीष बताते हैं कि इसका सिलेक्शन प्रोसेस थोड़ा मुश्किल है। ऑल इंडिया लेवल पर 1 लाख छात्र प्रीलीम्स देते हैं, फिर 10000 छात्र मेन्स का एग्ज़ाम देते हैं, उसमें से 1000 इंटरव्यू के लिए जाते हैं और सिर्फ 25 लोगों को ही चुना जाता है।

इज़राइल में बहुत कुछ सीखा

बीएससी एग्रीकल्चर करने के बाद देवाशीष ने इजराइल (Israel) में ड्रिप इरिगेशन की पढ़ाई की। जिसमें IFFCO ने उनकी मदद की। उनका मानना है कि वहां खेती बहुत उन्नत तरीके से की जाती है। वो कहते हैं, इजराइल में पानी की कमी है, तो वहां सोने की तरह पानी का इस्तेमाल होता है।

खेत और घर में पानी के मीटर लगे होते है, जो जितना इस्तेमाल करेगा उतना बिल आता है। वहां जब बहुत ज़रूरी होता है तभी पौधों में सिंचाई की जाती है और वो भी कंप्यूटराइज़्ड है। यही नहीं वो लोग एक ऐप बना रहे हैं जिसमें बिना खेत में गए ही किसान सिर्फ ऐप के ज़रिए खेत में ऑटोमैटिक सिंचाई कर सकता है।

ठुकराया विदेश में करोड़ों रूपये की नौकरी का ऑफऱ

कृषि क्षेत्र से जुड़े देवाशीष को जर्मनी में करोड़ों रुपए की नौकरी का ऑफर मिला था, मगर उन्होंने एक्सेप्ट नहीं किया। वो कहते हैं कि पैसा कमाना उनकी ज़िंदगी का टारगेट कभी नहीं था। अपने माता-पिता की वो इकलौती संतान है साथ ही वो अपने देश से बहुत प्यार करते हैं इसलिए वो ऑफर एक्सेप्ट नहीं किया। वो कहते हैं कि उन्हें अपना देश बहुत सुंदर लगता है, यूरोप उन्हें आकर्षित नहीं करता। उनका मानना है कि यहां इतनी खूबसूरत जगहें हैं कि भारत को एक्सप्लोर करने में ही ज़िंदगी बीत जाएगी।

एग्रीकल्चर स्टूडेंट्स को सलाह

देवाशीष एग्रीकल्चर स्टूडेंट्स को सलाह देते हैं कि अपनी पढ़ाई मन लगाकर करें, क्योंकि वो प्लांट्स के डॉक्टर है, इसे हल्के में न लें। बीएससी एग्रीकल्चर के बाद छात्रों के पास कई विकल्प होते हैं जैसे वो शिक्षण क्षेत्र में जा सकते हैं, सरकारी परीक्षाएं दे सकते हैं या किसी फर्टिलाइज़र या पेस्टीसाइड कंपनी में भी नौकरी पा सकते हैं। वो किसानों को नई टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करने की सलाह देते हैं। उनका मानना है कि आज के वक्त में अच्छी खेती के लिए नई तकनीकों को अपनाना बहुत ज़रूरी है।

सम्पर्क सूत्र: किसान साथी यदि खेती-किसानी से जुड़ी जानकारी या अनुभव हमारे साथ साझा करना चाहें तो हमें फ़ोन नम्बर 9599273766 पर कॉल करके या [email protected] पर ईमेल लिखकर या फिर अपनी बात को रिकॉर्ड करके हमें भेज सकते हैं। किसान ऑफ़ इंडिया के ज़रिये हम आपकी बात लोगों तक पहुँचाएँगे, क्योंकि हम मानते हैं कि किसान उन्नत तो देश ख़ुशहाल।

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