हिमाचल के किसान मनोज शर्मा ने प्राकृतिक खेती से मिट्टी और फ़सल में लाया सुधार

प्राकृतिक खेती से हिमाचल के किसान मनोज शर्मा ने खर्च घटाकर आमदनी बढ़ाई और मिट्टी की सेहत में सुधार किया।

प्राकृतिक खेती Natural Farming

हिमाचल प्रदेश के शिमला ज़िले के ठालोग गांव के मनोज शर्मा शिक्षा से तो एडवोकेट हैं, लेकिन असली लगाव और दिलचस्पी उन्हें खेती से रही है। पढ़ाई पूरी करने के बाद भी उन्होंने खेती को कभी नहीं छोड़ा। करीब 20 साल तक वे सेब, सब्जियों और दालों की रासायनिक खेती करते रहे। शुरुआत में यह खेती उन्हें मुनाफ़ा दे रही थी, लेकिन समय के साथ हालात बदलने लगे। रासायनिक खेती में लागत बहुत बढ़ गई थी, मिट्टी की उर्वरकता कम होने लगी और फ़सलों की गुणवत्ता पर भी असर पड़ने लगा। इन सबका असर उनकी आमदनी पर भी साफ़ दिखने लगा, जिससे वे चिंतित हो गए।

मनोज जी ने इसका हल ढूंढने की ठानी और खेती के दूसरे विकल्पों पर ध्यान देना शुरू किया। उन्होंने ऑर्गेनिक खेती की ओर कदम बढ़ाया और कुछ समय तक उसे अपनाया। हालांकि, शुरुआती कोशिशों में उम्मीद के मुताबिक नतीजे नहीं मिले, जिससे थोड़ी निराशा हुई। लेकिन मनोज जी ने हार नहीं मानी। उन्होंने और ज़्यादा जानकारी जुटाई, नए तरीके सीखे और इसी दौरान उन्हें प्राकृतिक खेती के बारे में पता चला। यह पद्धति उनके लिए उम्मीद की एक नई किरण बनकर सामने आई, जिसमें कम लागत, ज़्यादा पोषण और मिट्टी की सेहत का भी ध्यान रखा जाता है।

प्राकृतिक खेती की ओर पहला कदम (First step towards natural farming)

साल 2016 में मनोज जी ने एक अहम फैसला लिया। उन्होंने अपनी ज़मीन के एक छोटे से हिस्से में प्राकृतिक खेती की शुरुआत की। शुरुआत में यह एक प्रयोग जैसा था, लेकिन इसके पीछे उनका गहरा सोच और अनुभव था। धीरे-धीरे उन्होंने इस पद्धति के फ़ायदे महसूस करने शुरू किए। इसके बाद, साल 2018 में उन्हें हिमाचल प्रदेश के कुफरी में “सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती (SPNF)” का प्रशिक्षण मिला। इस प्रशिक्षण ने उनके ज्ञान को और पक्का किया और आत्मविश्वास को नई ताक़त दी।

प्रशिक्षण के बाद उन्होंने अपनी पूरी 15 बीघा ज़मीन पर रासायनिक खेती छोड़कर पूरी तरह से प्राकृतिक खेती अपनाई। अब वे बिना किसी केमिकल के खेती करते हैं और मिट्टी, पानी और पर्यावरण को भी बचा रहे हैं।

मनोज जी का कहना है –
“मैं खुद को भाग्यशाली मानता हूँ कि मैंने समय रहते रासायनिक खेती छोड़ दी और प्राकृतिक खेती को अपनाया। अब मेरी ज़मीन भी खुश है और मैं भी।”

कम खर्च, अच्छी गुणवत्ता (Low cost, good quality)

मनोज जी बताते हैं कि प्राकृतिक खेती अपनाने के बाद सेब की उपज में बहुत ज़्यादा इजाफ़ा तो नहीं हुआ, लेकिन मंडी में उन्हें रासायनिक खेती वाले सेब के बराबर दाम मिलने लगे। खास बात यह है कि उत्पादन लागत आधी रह गई।पहले 1,200 पौधों की रासायनिक खेती में सालाना खर्च लगभग ₹60,000 आता था, जो अब आधा हो गया है। उनके बाग में मौसम और बीमारियों का असर भी कम हुआ है। सेब का स्वाद बेहतर है और शेल्फ लाइफ भी लंबी हो गई है।

हिमाचल के किसान मनोज शर्मा ने प्राकृतिक खेती से मिट्टी और फ़सल में लाया सुधार

खेती में विविधता और पुराने बीजों की वापसी (Diversification in farming and return of old seeds)

पहले वे गेहूं, मक्का, दालें, सोयाबीन, बाजरा और सब्जियां उगाते थे, लेकिन रासायनिक खेती के समय अधिकतर समय सेब की खेती पर ही खर्च करना पड़ता था। अब वे सेब के साथ-साथ कई तरह के पारंपरिक अनाज और औषधीय फ़सलें भी उगा रहे हैं। उन्होंने ओगला, कोड़ा, पहाड़ी कुल्थ, राजमाश, और अन्य पारंपरिक फ़सलें बोनी शुरू की हैं। इनमें से कई प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं, लेकिन प्राकृतिक खेती में ये अच्छी तरह पनप रही हैं। इनमें से कुछ बीज उन्हें पड़ोसी राज्य उत्तराखंड से मिले।

आर्थिक लाभ और बचत (Economic benefits and savings)

प्राकृतिक खेती ने मनोज जी को न सिर्फ़़ मिट्टी और फ़सल की सेहत का लाभ दिया, बल्कि उनके आर्थिक हालात भी पहले से बेहतर हो गए। रासायनिक खेती के समय उनका सालाना खर्च करीब ₹1,00,000 तक पहुँच जाता था। खाद, कीटनाशक और बाहरी बीजों पर बहुत पैसा खर्च होता था। लेकिन अब, प्राकृतिक खेती अपनाने के बाद उनका सालाना खर्च घटकर लगभग ₹45,000 रह गया है। यानी आधे से भी कम! खास बात यह है कि खर्च घटने के साथ-साथ उनकी आमदनी भी बढ़ी है।

कम लागत में अच्छी पैदावार होने के कारण उन्हें ज़्यादा मुनाफा हो रहा है। इसके अलावा अब वे अपने खेतों में खुद के सुरक्षित बीजों का इस्तेमाल करते हैं और अलग-अलग तरह की फ़सलें उगाकर फ़सल विविधता को बढ़ावा दे रहे हैं। इस पूरी प्रक्रिया से न केवल उनके ख़र्चों में बचत हुई है, बल्कि खेती के प्रति उनका भरोसा और भी मज़बूत हो गया है।

प्रशिक्षक बनकर किसानों को जागरूक करना (Making farmers aware by becoming trainers)

प्राकृतिक खेती में सफलता के बाद, राज्य कृषि विभाग ने मनोज जी को ट्रेनर के रूप में चुना। उन्होंने सुभाष पालेकर के प्रशिक्षण के बाद 13–14 पंचायतों में किसानों को प्राकृतिक खेती के फ़ायदे बताए और कई किसानों ने अपनी जमीन के हिस्से में इसे अपनाना शुरू किया।

मनोज जी का कहना है –

“मुझे यकीन है कि जब किसान अच्छे नतीजे देखेंगे, तो वे पूरी तरह रासायनिक खेती छोड़ देंगे।”

मनोज शर्मा के बाग और फ़सलें (Manoj Sharma’s garden and crops)

  • कुल जमीन – 23 बीघा
  • प्राकृतिक खेती में जमीन – 15 बीघा
  • ऊंचाई – 2,700 मीटर
  • मुख्य फ़सलें – सेब (रॉयल, गोल्डन, रेड गोल्डन, किंग रोआट), नाशपाती, आलूबुखारा, गेहूं, मक्का, मूंगफली, कोड़ा, सोयाबीन, मटर, लाल चावल, सफेद चावल, राजमाश, बैंगन, शिमला मिर्च आदि।

भविष्य की योजना (Future plan)

मनोज जी यहीं नहीं रुकना चाहते। अब उनका लक्ष्य है कि वे अपनी खेती में और भी पारंपरिक और देसी फ़सलों को शामिल करें, ताकि लोगों को स्थानीय और पौष्टिक अन्न मिल सके। वह चाहते हैं कि प्राकृतिक खेती को बड़े स्तर पर फैलाया जाए, ताकि और भी किसान इससे जुड़ें और इसका लाभ उठा सकें। उनका मानना है कि यदि ज़्यादा से ज़्यादा किसान रासायनिक खेती की जगह प्राकृतिक खेती अपनाएं, तो न सिर्फ़़ मिट्टी की सेहत सुधरेगी, बल्कि खेती की लागत भी काफी हद तक कम हो जाएगी।

साथ ही, इससे उपभोक्ताओं को रसायन-मुक्त, स्वादिष्ट और स्वास्थ्यवर्धक भोजन मिलेगा, जो आज की ज़रूरत भी है। मनोज जी अपने अनुभव से यह साबित कर चुके हैं कि प्राकृतिक खेती न सिर्फ़ पर्यावरण के लिए फ़ायदेमंद है, बल्कि यह आर्थिक रूप से भी टिकाऊ है।

निष्कर्ष (Conclusion)

मनोज शर्मा की कहानी इस बात का सबूत है कि सही जानकारी और दृढ़ निश्चय से किसान न केवल अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं बल्कि मिट्टी, पानी और पर्यावरण को भी बचा सकते हैं। प्राकृतिक खेती न सिर्फ़ खेती का तरीका है, बल्कि यह किसानों के जीवन में स्थायी बदलाव लाने का एक आंदोलन है।

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