घर में ही बना दिया ‘मिनी फॉरेस्ट’, कम जगह और कम बजट में तैयार किया कॉन्सेप्ट
किस तरह से कम जगह में, कम बजट में, पर्यावरण को अपने घर में ही बसाया जा सकता है, इसकी मिसाल साक्षी ने युवाओं के सामने रखी है।
अपने खेतों में स्वाद से भरपूर फल, फूल और सब्जियों की खेती करने के लिए विशेषज्ञ सुझाव और तकनीकें।
किस तरह से कम जगह में, कम बजट में, पर्यावरण को अपने घर में ही बसाया जा सकता है, इसकी मिसाल साक्षी ने युवाओं के सामने रखी है।
कृषि विज्ञान केंद्र के ग्रामीण युवा कौशल प्रशिक्षण ने बेरोज़गार युवकों को राह दिखाई। प्रशिक्षित ग्रामीण युवाओं ने ककड़ी की खेती करने का फैसला किया और आज उनका ये फैसला उन्हें कई गुना मुनाफ़ा दे रहा है।
लैवेंडर की खेती कर रही रुबिना न सिर्फ़ लैवेंडर का उत्पादन करती हैं, बल्कि इसकी नर्सरी भी चलाती हैं। साथ ही लैवेंडर के कई और उत्पाद बना खुद ही उनकी मार्केटिंग भी करती हैं।
स्ट्रॉबेरी की खेती में शुरुआत में मुश्किलें भी आईं। स्ट्रॉबेरी के पौधे मर गए, जिससे उन्हें भारी नुकसान का भी सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और दोबारा से स्ट्रॉबेरी के पौधे लगाए।
बागवानी की हाई डेंसिटी तकनीक (High Density Planting) क्या है? कैसे ये काम करती है? कैसे किसानों को इस तकनीक का फ़ायदा हो रहा है? इन सभी सवालों के जवाब दे रहे हैं उत्तर प्रदेश स्थित कृषि विज्ञान केन्द्र बहराइच के प्रमुख और सब्जी और बागवानी विशेषज्ञ डॉ. बी.पी. शाही।
ब्रोकली काफ़ी हद्द तक फूल गोभी की तरह ही है। लेकिन सीज़न में जहाँ फूल गोभी का दाम कौड़ियों के भाव हो जाता है, वहीं ब्रोकली की कीमत 30 से 50 रुपये प्रति किलोग्राम तक मिल जाती है। अलबत्ता, ये कीमतें तभी आकर्षिक लगेंगी जब बाज़ार में ब्रोकली को खरीदार मिल जाएँ। इसीलिए ब्रोकली की खेती में हाथ आज़माने से पहले बाज़ार की नब्ज़ पर परखना बहुत ज़रूरी है।
यदि सूझबूझ के साथ और वैज्ञानिक तरीके से सफ़ेद मूसली या सतावर की खेती की जाए तो ये फसल किसान को खुशहाल बना सकती है। बाज़ार में उम्दा मूसली का दाम 1000-1500 रु. प्रति किलोग्राम तक मिल सकता है। मझोले किस्म की फसल का दाम 700-800 रु. प्रति किलो और हल्की किस्म का दाम 200-300 रु. प्रति किलोग्राम तक मिलता है। सफ़ेद मूसली की उन्नत खेती पर प्रति एकड़ लागत करीब 5-6 लाख रुपये बैठती है और यदि उपज का दाम औसतन 1.2 लाख रुपये प्रति क्विंटल भी मिला और यदि प्रति एकड़ औसत उपज करीब 15 क्लिंटल भी रही तो उपज का दाम करीब 18 लाख रुपये बैठेगा। इसमें से लागत घटा दें तो किसान को प्रति एकड़ 10-12 लाख रुपये का शुद्ध मुनाफ़ा मिलेगा।
गुलदाउदी उगाने की नयी तकनीक से जहाँ घरेलू बाग़ीचों की रौनक बदल सकती है, वहीं नसर्री मालिकों, फूल उत्पादक किसानों और फूलों के कारोबार से जुड़े लोगों के लिए भी आमदनी के नये मौके विकसित हो सकते हैं। NBRI का उद्यानिकी प्रभाग लम्बे अरसे से जुलाई में ही गुलदाउदी को खिलाने की तकनीक विकसित करने की कोशिश कर रहा था। ज़ाहिर है मई-जून में खिलने वाली किस्म से ये मुराद पूरी हो गयी। अपनी उपलब्धि से उत्साहित NBRI के वैज्ञानिकों का इरादा जल्द ही गुलदाउदी की ऐसी किस्मों की पहचान करके उनका ऐसा कलेंडर बनाना है जिससे गुलदाउदी के चाहने वालों को पूरे साल इसके फूलों से सुकून हासिल करने का मौका मिल सके।
कृषि विज्ञान केंद्र, पिथौरागढ़ के सब्जेक्ट मैटर स्पेशलिस्ट डॉ. अलंकार सिंह ने किसान ऑफ़ इंडिया से ख़ास बातचीत में बताया कि कैसे किसानों की आमदनी बढ़ाने के लक्ष्य में गैनोडर्मा मशरूम मदद कर सकता है। जानिए इस मशरूम की ख़ासियत और बाज़ार
मशरूम के एक बैग में औसतन 2 किलोग्राम तक मशरूम उत्पादन होता है। मशरूम की खेती को प्रोत्साहन देने के लिए कश्मीर में सरकार की ओर से सब्सिडी भी मिलती है। मशरूम की खेती का एक और फायदा है तुरंत नगद भुगतान।
भारतीय फूलों की खेती का बाज़ार 2019-24 के दौरान 47200 करोड़ रुपये तक का हो जाने की उम्मीद है। बाज़ार में विदेशी किस्मों के फूलों की मांग काफ़ी अच्छी है और दाम भी अच्छा मिलता है। सजावटी एंथुरियम फूल की खेती के बारे में जानें।
मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा ज़िले के रहने वाले मधुसूदन टोंपे आज की तारीख में पपीते की खेती के लिए जाने जाते हैं। आज जिस 6 एकड़ में वो पपीते की खेती करते हैं, वो ज़मीन पहले वीरान पड़ी थी। जानिए कौन सी किस्म का उन्होंने चुनाव किया और किन बातों का उन्होंने ख्याल रखा।
पिछले कुछ साल से केले की खेती कर रहे किसानों के लिए पनामा विल्ट रोग जी का जंजाल बना हुआ है। बगीचे में लगे पेड़ पनामा विल्ट रोग का शिकार हो रहे हैं। साथ ही गर्मी का असर भी केले की फसल पर पड़ रहा है। कैसे बचाएं इन दोनों से केले की फसल? जानिए डॉ. अजीत सिंह से.
छत्तीसगढ़ की रहने वाली शेख रज़िया ने आदिवासी किसानों को अपने साथ जोड़ा है। उन्होंने 2018 में Bastar Foods के नाम से एक पहल शुरू की। इस वेबसाइट के ज़रिए छत्तीसगढ़ के महुआ उत्पादों से लेकर कई प्रॉडक्ट्स की बिक्री की जाती है। ये प्रॉडक्ट्स आदिवासी किसान ही तैयार करते हैं।
ICAR-Central Institute for Subtropical Horticulture के रिसर्च एसोसिएट डॉ. मनोज कुमार सोनी से आम के बागों के प्रबंधन पर किसान ऑफ़ इंडिया से विशेष बातचीत की।
ऊसर भूमि में ‘आगर होल तकनीक’ का इस्तेमाल करके आँवला, अमरूद, बेर और करौंदा के फलदार पेड़ों को न सिर्फ़ सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है, बल्कि इसकी खेती लाभदायक भी हो सकती है। लागत और आमदनी के पैमाने पर आँवला, करौंदा और अमरूद बेहतरीन रहते हैं। आँवले के मामले में लागत से 2.48 गुना आमदनी हुई तो अमरूद के मामले में ये अनुपात 2.15 गुना और करौंदा के लिए 1.96 गुना रहा।
उत्तराखंड, कश्मीर, हिमाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी इलाकों में बुरांश की खूबियों और इसके इस्तेमाल से स्थानीय लोग अच्छे से वाकिफ़ हैं। अब IIT मंडी और ICGEB दिल्ली के वैज्ञानिकों ने COVID-19 के इलाज में बुरांश के फूल को लेकर एक बड़ा शोध किया है। इस शोध का नेतृत्व करने वाले डॉ. श्याम कुमार मसकपल्ली ने किसान ऑफ़ इंडिया से बातचीत में कई बातें साझा कीं।
किसान ऑफ़ इंडिया की टीम अक्सर बाज़ार की समस्या (marketing of produce)पर एक्सपर्ट किसानों से बात करती रही है। इस लेख में हम लहसुन की खेती कर रहे किसानों के लिए बाज़ार के कुछ विकल्प लेकर आए हैं।
लहसुन की खेती मुख्य तौर पर रबी मौसम में की जाती है। लहसुन की पैदावार क्षमता उसकी किस्म पर निर्भर करती है। इसकी औसतन उपज प्रति हेक्टेयर 150 से 200 क्विंटल के आसपास रहती है।
इथियोपिया के इस किसान को ‘फ़ूड हीरोज’ की उपाधि से भी सम्मानित किया गया है।
Story Courtesy: UN News