किसानों समेत सभी भारतवासियों को इस ख़तरे से बेहद सावधान रहने की ज़रूरत है कि जिस रफ़्तार से देश भर की मिट्टी की ऊपरी और उपजाऊ परत का नुकसान हो रहा है, उस हिसाब से अगले 60 वर्षों में ही यानी साल 2080-85 तक पूरे देश में उपजाऊ मिट्टी वाली खेत ख़त्म हो जाएँगे और भारत बंजर ज़मीन वाला देश बन जाएगा! ये तथ्य बेहद डरावने हैं, लेकिन पूरी तरह से वैज्ञानिक हैं। ये हमें बताते हैं कि आधुनिक विकास की आपाधापी में हम पर्यावरण को जैसा नुकसान पहुँचा रहे हैं उसका अंज़ाम कब और किस रूप में हमारी आने वाली पीढ़ियों को झेलना पड़ेगा?
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ताज़ा आँकड़ा ये है कि अब तक भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.87 करोड़ हेक्टेयर में से क़रीब 9.64 करोड़ हेक्टेयर ज़मीन की मिट्टी अपक्षरित हो चुकी है। अपक्षरित मिट्टी का मतलब है कि देश के इतने क्षेत्रफल की मृदा की ऊपरी उर्वर परत इतनी नष्ट हो चुकी है वो खेती के लायक नहीं रह गयी है। दूसरे शब्दों में कहें तो अब तक हम 29 प्रतिशत ज़मीन को अनुपादक बना चुके हैं, उसकी उत्पादन क्षमता को नष्ट कर चुके हैं।
बंजर बनी दुनिया की 40% भूमि
उपजाऊ मिट्टी के नष्ट होने की प्रवृत्ति का प्रभाव सिर्फ़ भारत तक ही सीमित नहीं है। ये चुनौती भी विश्वव्यापी है। वस्तुतः वैश्विक तौर पर तो बंजर होती भूमि का दायरा कहीं ज़्यादा भयानक तरीके से विकराल हो रहा है। विश्व खाद्य संगठन और जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क समझौता यानी United Nations Framework Convention on Climate Change (UNFCCC) की ओर से जारी ‘ग्लोबल लैंड आउटलुक रिपोर्ट’ के अनुसार, वैश्विक स्तर पर 40 प्रतिशत से ज़्यादा उपलब्ध भूमि अनुर्वर यानी बंजर हो चुकी है।
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रिपोर्ट ने चेतावनी दी है कि यदि मिट्टी की उपजाऊ क्षमता को बहाल करने की दिशा में मानवता ने युद्धस्तर पर क़दम नहीं उठाये तो वो दिन दूर नहीं जब दुनिया की आधी आबादी को गम्भीर खाद्यान्न संकट से जूझना होगा। इसकी मुख्य वजह ये भी है कि हाल ही विश्व की आबादी 8 अरब की संख्या को पार कर चुकी है। 12 साल पहले ये 7 अरब थी और उससे भी 12 साल पहले थी 6 अरब।
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भूख और पोषण का वैश्विक संकट
अब यदि 11-12 साल का ही वक़्त इंसान को 8 से 9 अरब तक पहुँचने में लगे तो 2035 के आसपास दुनिया की आबादी 9 अरब होगी तो 2045-46 के आसपास 10 अरब। ऐसी बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए वैश्विक स्तर पर जितने खाद्यान्न उत्पादन की अपेक्षा होगी उसे खेती-योग्य उपजाऊ ज़मीन के सिकुड़ते क्षेत्रफल से पूरा करना बेहद कठिन होता चला जाएगा। इसीलिए विशेषज्ञों ने वैश्विक स्तर पर आधी आबादी के लिए भोजन और कुपोषण के संकट की चेतावनी दी है।
विशेषज्ञों के अनुसार, उपजाऊ मिट्टी वाले खेतों के बंजर के रूप में तब्दील होने के लिए भूमि का अतिशय दोहन, परम्परागत कृषि पद्धतियों में रासायनिक उर्वरकों का बढ़ता इस्तेमाल, खनन और वनों की कटाई आदि कारक ज़िम्मेदार हैं। चुनौती ये भी है कि यदि मौजूदा रफ़्तार से ही बंजर-विस्तार जारी रहा तो न सिर्फ़ मानव आहार शृंखला चरमरा जाएगी बल्कि धरती की जैव-विविधता में भी ऐसा पतन होगा कि अनेक महत्वपूर्ण जीव-जन्तुओं की प्रजातियाँ लुप्त हो जाएँगी।
ऐसी रिपोर्टों और विभिन्न स्तरों पर हुए वैज्ञानिक अध्ययनों को देखते हुए ही तमाम अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों ने मृदा क्षरण को रोकने तथा बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने की दिशा में अनेक पहल भी की हैं। इनमें ग्रामीण स्तर पर रासायनिक उर्वरकों से मुक्त जैविक खेती और प्राकृतिक कृषि पद्धतियों को अपनाने के अतिरिक्त शहरी वृक्षारोपण में बढ़ोतरी तथा वनों की कटाई को सख़्ती से रोकने जैसे उपाय शामिल हैं। किसानों को भी मिट्टी की सेहत का ख़्याल अपने परिजनों के स्वास्थ्य की तरह ही रखना चाहिए।
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मिट्टी की सेहत के लिए भारतीय प्रयास
भारत में भी मिट्टी की सेहत का ख़्याल रखने से जुड़ी कोशिशों को ख़ूब प्रोत्साहन दिया जा रहा है। यहाँ मृदा स्वास्थ्य कार्ड (Soil Health Card) योजना को भी बंजर होती धरती की समस्या से निपटने की दिशा में उठाये गये बेहद महत्वपूर्ण क़दम की तरह देखा गया है तो भूजल पुनर्भरण यानी ground water recharging जैसी नीति का सम्बन्ध भी ज़मीन की उर्वरा के संरक्षण के लिए बेहद ज़रूरी है। ऐसे प्रयासों से सूखा, बाढ़, जंगल की आग, रेतीली आँधी तथा धूल आदि प्रदूषण सम्बन्धी समस्याओं की कुछ हद तक रोकथाम सम्भव है।
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वैश्विक स्तर पर संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन में सदस्य राष्ट्रों ने भी एक अरब हेक्टेयर अपक्षरित भूमि या बंजर ज़मीन को सुधारने का निर्णय लिया है। भारत में वर्ष 2030 तक 2.6 करोड़ हेक्टेयर अपक्षरित भूमि को सुधारने के लक्ष्य पर काम किया जा रहा है। सम्पूर्ण भू-सुधार योजना का लक्ष्य मिट्टी में जैविक तत्वों और सूक्ष्म जीवाणुओं की मात्रा में निरन्तर वृद्धि करना है। इसीलिए भारत में शून्य बजट कृषि पद्धतियों या ज़ीरो बजट नेचुरल फॉर्मिंग (ZBNF) को अपनाने पर काफ़ी ज़ोर दिया जा रहा है। टिकाऊ खेती के इस तरीके के प्रति किसानों में जागरूकता बढ़ाने के लिए देश भर में कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं।
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